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श्री पूज्यपाद-श्रावकाचार भीमज्जिनेन्द्रचन्द्रस्य सान्द्रवाक्-चन्द्रिकाऽङ्गिनाम् । हृषीष्टं दुष्टकर्माष्टधर्मसन्तापनधमम् ।।१ दुराचारचयाक्रान्तदुःखसन्तानहानये । बबीम्युपासकाचारं चारुमुक्तिसुखप्रवम् ॥२ बाप्तोऽष्टादशभिर्दोषनिर्मुक्तः शान्तरूपवान् । नन्थ्येन भवेन्मोक्षो धर्मो हिसादिजितः ॥३ क्षुधा तृषा भयं द्वषो रागो मोहश्च चिन्तनम् । जरा रुजा च मृत्युश्च खेदः स्वेदो मदोऽरतिः ॥४ विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश ध्रुवम् । त्रिजगत्सर्वभूतानां दोषाः साधारणा इमे ॥५ एतेदोविनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरञ्जनः । विद्यन्ते येषु ते नित्यं तेऽत्र संसारिणः स्मृताः ॥६ क्षेत्र वास्तु धन धान्यं द्विपदं च चतुष्पदम् । आसनं शयनं कुप्यं भाण्डं चेति बहिर्दश ॥७ मिथ्यात्ववेदरागाश्च द्वेषो हास्यादयस्तथा । क्रोधादयश्च विजेया आभ्यन्तरपरिग्रहाः ॥८ एतेषु निश्चयो यस्य विद्यते स पुमानिह । सम्यग्दृष्टिरिति जेयो मिथ्यादृष्टिश्च संशयी ॥९ स्वतत्त्वपरतत्त्वेषु हेयोपादेयनिश्चयः । संशयेन विनिर्मुक्तः स सम्यग्दृष्टिरुज्यते ॥१० अषिष्ठानं भवेन्मूलं प्रासादानां यथा पुनः । तथा सर्ववतानां च मूलं सम्यक्त्वमुच्यते ॥११ नास्त्यहतः परो देवो धर्मो नास्ति दयां विना । तपःपरं च नैर्ग्रन्थ्यावेतत्सम्यक्त्वलवाणम् ॥१२
श्रीमान् जिनेन्द्रचन्द्रकी सघन वचनरूप चन्द्रिका प्राणियोंके दुष्ट अष्ट कर्मरूप घामके सन्तापन-श्रमको हरण करनेवाली है, अतः वह सबको इष्ट है ॥१॥ दुराचारके संचयसे आक्रान्त जीवोंके दुःख सन्तानको दूर करनेके लिए सुन्दर मुक्ति-सुखके देनेवाले उपासकाचारको मैं कहता हूँ॥२॥ जो वक्ष्यमाण अठारह दोषोंसे रहित है, शान्तरूपवाला है, वह आप्त है। निग्रन्थतासे हो मोक्ष प्राप्त होता है और धर्म हिंसादिसे रहित अहिंसास्वरूप है ॥३॥ क्षुधा, तृषा, भय, द्वेष, राग, मोह,चिन्ता, जरा, रोग, मृत्यु, खेद, स्वेद, मद, अरति, विस्मय, जन्म, निन्दा और विषाद ये अठारह दोष निश्चयसे तीन लोकके सर्व प्राणियोंके साधारण हैं, अर्थात् समानरूपसे पाये जाते हैं ।।४-५॥ जो इन दोषोंसे विनिर्मुक्त है, वह निरंजन आप्त है और जिनमें ये दोष नित्य पाये जाते हैं, सब संसारी जीव माने गये हैं ॥६॥ क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, आसन, शयन, कुप्य और भाण्ड ये दश प्रकारके बाह्य परिग्रह हैं ॥७॥ मिथ्यात्व, वेद, राग, द्वेष, हास्यादिक छह नोकषाय और कोषादिक चार कषाय ये चौदह आभ्यन्तर परिग्रह जानना चाहिये ।।८। इस प्रकार सर्व दोषरहित आप्त देवमें, सर्व परिग्रह-रहित निर्ग्रन्थ गुरुमें और अहिंसामय धर्ममें जिसका दृढ़ निश्चय (श्रद्धान) है, वह पुरुष सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये। जिसे उक्त तीनोंमें संशय है, वह मिथ्यादृष्टि है ।।९।। जिसे स्वतत्त्व और-परतत्त्वोंमें हेय-उपादेयका निश्चय है, और जो संशयसे रहित है, वह सम्यग्दृष्टि कहा जाता है ॥१०॥ जैसे सभी भवनोंका आधार उसका मूल (नीव) है, उसी प्रकार सर्व व्रतोंका मूल आधार सम्यक्त्व कहा गया है ॥११॥ अरहन्तसे श्रेष्ठ कोई देव नहीं, दयाके विना कोई धर्म नहीं और निर्गन्यतासे परे कोई तप नहीं है, ऐसा दृढ़ श्रदान ही सम्यक्त्वका
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