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उमास्वामि-भावकाचार मक्षिका कुरुते छदि कुष्ट व्याधि च कोकिला । मेषां पिपोलकाऽवश्यं निर्वासयति भलिता ॥३२१ . दन्तखण्डं दृषत्खण्डं गोमयः कुरुते घृणाम् । भोज्ये च पतिता यूका वितनोति जलोदरम् ॥३२२ शिरोरुहः स्वरध्वन्सं कण्ठपीडां च कण्टकः । वृश्चिकस्तालभङ्गं च तनुते नात्र संशयः ॥३२३ अतोऽन्येऽपि प्रजायन्ते दोषा वाचामगोचरा । विमुञ्चन्तु ततः सन्तः पापकृत्तनिशाशनम् ॥३२४ ये रात्रौ सर्वदाहारं वर्जयन्ति सुमेधसः । तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते ॥३२५ खावन्त्यहनिशं येऽत्र तिष्ठन्ति व्यस्तचेतनाः । शृङ्गपुच्छपरिभ्रष्टास्ते कथं पशवो न च ॥३२६ वासरस्य मुखे चान्ते विमुच्य घटिकाद्वयम् । योऽशनं सम्यगाधत्ते तस्यानस्तमितवतम् ॥३२७ रात्रिभुक्तिपरित्यागफलं गोमायुनेरितम् । तदत्यागफलं चापि लोकदृष्टं घनधियः ॥३२८ उलूककाकमार्जारगृध्रसंवरशूकराः । अहिवृश्चिकगोषाश्च जायन्ते रात्रिभोजनात् ॥३२९ रात्रिभुक्तिविमुक्तस्य ये गुणाः खलु जन्मिनः । सर्वज्ञमन्तरेणान्यो न सम्यग् वक्तुमीश्वरः ॥३३० अणुव्रतानि पञ्च स्युस्त्रिप्रकारं गुणवतम् । शिक्षाक्तानि चत्वारि सागाराणां जिनागमे ॥३३१ हिंसातोऽसत्यतः स्तेयान्मैथुनाच्च परिग्रहात् । यदेकदेशविरतिस्तदणुव्रतपत्रकम् ॥३३२ यत्कषायोदयात्प्राणिप्राणानां व्यपरोपणम् । न क्वापि तवहिंसाल्यं व्रतं विश्वहितङ्करम् ॥३३३ कारण नहीं दिखनेसे यदि मक्खी खाने में आ जाय, तो वह तत्काल वमन कराती है, विसम्भरी कसारी खाने में आ जाय, तो वह कोढ़ जैसी व्याधिको करती है, चींटी-कीड़ी यदि खानेमें आ जाय, तो वह बद्धिको अवश्य ही भ्रष्ट कर देती है॥३२॥ भोजनमें यदि दान्तका टुकड़ा, पाषाणका खण्ड, और गोबर आ जाय, तो घृणा उत्पन्न होती है। तथा भोज्यवस्तुमें गिरी हुई यूका (जू) यदि खाने में आ जाय, तो वह जलोदर रोगको उत्पन्न करती है ॥३२२।। भोजनमें खाया गया केश स्वर-भंगको, काँटा कण्ठ-पीडाको और बिच्छ ताल-भंगको करता है, इसमें कोई संशय नहीं है ।।३२३।। इनके अतिरिक्त रात्रिमें भोजन करनेसे और भी अनेक वचनके अगोचर दोष उत्पन्न होते हैं, अतएव सज्जनोंको ऐसे पापकारक रात्रिभोजनका त्याग करना चाहिये ॥३२४॥ जो बुद्धिमान् लोग रात्रिमें सदा ही सर्व प्रकारके आहारका त्याग करते हैं, उन्हें एक मास में एक पक्ष (१५ दिन) के उपवासका फल प्राप्त होता है ॥३२५।। जो बुद्धि-विचार-विहीन लोग इस संसारमें रात-दिन खाते रहते हैं, वे सींग और पूंछसे रहित पशु कैसे न माने जायं? अर्थात् उन्हें पशु ही समझना चाहिये ॥३२६।। जो गृहस्थ दिनके प्रारम्भ और अन्तमें दो घड़ी समय छोड़कर आहार करते हैं, वे हो अनस्तमित (रात्रिभोजन त्याग) व्रत भली-भांतिसे पालन करते हैं ॥३२७।। रात्रि भोजन त्यागका फल इस लोकमें गोमायु (गीदड़) ने प्रकट किया। तथा रात्रिभोजन करनेका फल लोगोंने धनश्रीके देखा ॥३२८॥ रात्रिभोजन करनेसे मनुष्य उलूक, काक, मार्जार, गिद्ध, विसमरा, सूकर, सांप, बिच्छू और गोधा (गोहरा) आदि निकृष्ट जीवोंमें उत्पन्न होते हैं ॥३२९|| रात्रिभोजन त्याग करनेवाले मनुष्यके जो गुण प्रकट होते हैं, उन्हें निश्चयसे सर्वज्ञदेवके विना और कोई अन्य पुरुष कहनेके लिये समर्थ नहीं है ।।३३०॥
जिनागममें श्रावकोंके पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये बारहव्रत बतलाये गये हैं ॥३३१॥ हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुनसेवन और परिग्रह इन पांच पापोंके एक देश त्यागकों पाँच अणुव्रत कहते हैं ।।३३२॥ कषायके उदयसे जो कहींपर भी प्राणियोंके प्राणोंका घात नहीं
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