________________
उमास्वामि श्रावकाचार
एककालादपि प्राप्तजन्मनोर्दृष्टिबोधयोः । पृथगाराधनं प्रोक्तं भिन्नत्वं चापि लक्षणात् ॥२४९ सम्यग्ज्ञानं मतं कार्य सम्यक्त्वं कारणं यतः । ज्ञानस्याराधनं प्रोक्तं सम्यक्त्वानन्तरं ततः ॥२५० त्रैकाल्यं त्रिजगत्तत्त्वं हेयादेय प्रकाशनम् । यत्करोतीह जीवानां सम्यग्ज्ञानं तदुच्यते ॥ २५१ ग्रन्थार्थोभयपूर्ण कालविनयसोपधानं च । बहुमानेन समन्वितमनिह्नवं ज्ञानमाराध्यम् ॥ २५२ तस्यानुयोगाश्चत्वारो विदिता वेदसंज्ञया । जिनागमे वेदसंज्ञा नान्ये वेदाः प्रकल्पिता ॥२५३ यत्र जिनादिविचित्रोत्तमपुरुषचरित्रकीर्तनं पुण्यम् । प्रथमानुयोगसम्यग्ज्ञानं मुनयस्तमाहुश्च ॥ २५४ नरकद्वीपपयोनिधिगिरिवरसुरलोकवातवलयानाम् । परिमाणादिप्रकटनदक्षः करणानुयोगोऽयम् २५५ व्रतसमितिगुतिलक्षणचरणं यो वदति तत्फलं चापि । चरणानुयोगसम्यग्ज्ञानं तज्ज्ञानिनो जगदुः ॥ २५६ षड्द्रव्यनवपदार्थास्तिकायसहितानि सप्त तत्त्वानि । द्रव्यानुयोगदीपो विमलः सम्यक् प्रकाशयति २५७ शोकाकुभेदैकपरशुं समजीवनम् । मुक्तिश्री बोधजनकं सम्यग्ज्ञानं श्रयन्तु च ॥ २५८ इत्थं विधूतदृग्सो हैर्भव्यैः पञ्चमसंश्रये । सम्यग्ज्ञानं विभाव्यात्र चारित्रमवलम्ब्यताम् ॥२५९ अज्ञानपूर्वकं वृत्तं सम्यग् नाप्नोति यज्जनः । संज्ञानानन्तरं प्रोक्तं व्रतस्याराधनं ततः ॥ २६० सम्यक्समस्तसावद्यवियोगाद् व्रतमुत्तमम् । तदेव व्रतमाख्यातं पञ्चभेदं तदन्तरे ॥ २६१
होते हैं, तथापि लक्षणकी अपेक्षासे उन दोनोंमें भिन्नता है, अतः सम्यग्दर्शनसे सम्यग्ज्ञानका पृथक् आराधन करना कहा गया है || २४९|| सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान इन दोनोंमें सम्यग्दर्शन यतः कारण है, अतः सम्यग्ज्ञान उराका कार्य माना गया है । इसलिए सम्यग्दर्शन के अनन्तर सम्यग्ज्ञानकी आराधना कही गयी है || २५० || जो त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती तत्त्वोंमेंसे जीवोंको हेय और उपादेय तत्त्वका प्रकाशन करता है, उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं ।। २५१ ॥ ज्ञानकी आराधना ग्रन्थशुद्धि, अर्थशुद्धि, उभयशुद्धि, कालशुद्धि, विनयशुद्धि पूर्वक उपधान और बहुमानके साथ निह्नव-रहित होकर करनी चाहिये || २५२ || जिनागममें उस सम्यग्ज्ञानके वेदसंज्ञक ये चार अनुयोग कहे गये हैं- प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग । इन अनुयोगोंकी ही वेदसंज्ञा है । इनके अतिरिक्त जो वेद हैं, वे सब पर-परिकल्पित हैं, यथार्थ नहीं है ॥ २५३॥ जिसमें जिन तीर्थंकर और चक्रवर्ती आदि अनेक उत्तम पुरुषोंके चरित्रोंका कथंन हो, पुण्यका वर्णन हो, उसे मुनिजनोंने प्रथमानुयोग नामका सम्यग्ज्ञान कहा है ।। २५४ || जो नरक, द्वीप, समुद्र, पर्वत, देवलोक, और वातवलयोंके परिमाण, संख्या आदिके प्रकट करने में दक्ष है, वह करणानुयोग कहलाता है || २५५ || जो व्रत, समिति, गुप्तिस्वरूप चारित्रका और उसके फलका भी प्रतिपादन करता है उसे ज्ञानीजनोंने चरणानुयोगरूप सम्यग्ज्ञान कहा है || २५६|| द्रव्यानुयोगरूप निर्मल दीपक छह द्रव्य, नो पदार्थ और पाँच अस्तिकायके सहित सात तत्त्वोंको उत्तम प्रकार से प्रकाशित करता है || २५७॥ शोकरूपी वृक्षके भेदन करनेके लिए अद्वितीय परशुके समान, उपशम या समभावका जीवन स्वरूप और मुक्ति लक्ष्मीका ज्ञान - उत्पादक सम्यग्ज्ञानका भव्य जीवोंको आश्रय लेना चाहिये || २५८ || इस प्रकार जिनका दर्शनमोहकर्म दूर हो गया है, ऐसे भव्योंको पंचम पदमें सम्यग्ज्ञानकी आराधना करके सम्यक्चारित्रका आलम्बन लेना चाहिए ॥ २५९ ॥ यतः अज्ञानपूर्वक धारण किया गया चारित्र सम्यक्पनेको प्राप्त नहीं होता है, अतः सम्यग्ज्ञानके पश्चात् सम्यक्चारित्रकी आराधना करना कहा गया है || २६० ॥ सम्यक् प्रकार मन वचन कायसे समस्त पापकार्योंके त्याग करनेको उत्तम व्रत कहते हैं। उसके अवान्तर भेदोंकी अपेक्षा वह व्रत
Jain Education International
१७३
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org