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उमास्वामि-भावकाचार
तपो द्वादशभेदं च सम्यक् तप्त्वा मुनीश्वरः । घातिकर्मक्षयं कृत्वा केवली च शिवं व्रजेत् ॥२२३ दानसंज्ञं महाकर्म गृहस्थानां सुखाकरम् । षष्ठं वक्ष्ये सुभोगाविदायकं दुःखनाशकम् ॥ २२४ दानं लोकान् वशीकर्तु प्रथमं कारणं मतम् । दानं गुरुत्त्वसद्धे तुकुलजातिप्रकाशकम् ॥२२५ दानमाहारदानं स्याज्ज्ञानदानं तथा परम् । भैषज्यमभयं चेति दानानि जिनशासने ॥२२६ आहारः सर्वजीवानां सद्यः सुखविधायकः । ध्यानाध्ययनकर्माणि कर्तुं तस्मात्थामो नरः ॥२२७ अन्नदानं समं दानं न भूतं भुवनत्रये । न भवत्यपि नो भावि ततोऽन्यल्लोभवर्षकम् ॥२२८ श्रीषेणः समभूद् राजाऽऽहारदानात्प्रसिद्धिभाक् । शान्तिसत्तीर्थं कृच्चक्री लोकानां सुखदायकः ॥२२९ केवलज्ञानसाम्राज्यकारणं कर्मनाशकम् । ज्ञानदानं प्रदातव्यं योग्यपात्राय पावनम् ॥२३० विवेकिनो विनीताश्च गुरुभक्तिपरायणाः । ये शिष्याः सद्व्रताचारास्ते पाठघाः पुण्यहेतवे ॥२३१ दाता गुरुश्च शिष्या हि त्रिभिः स्याच्छास्त्रविस्तरः । सामग्री सकलं कार्य सिद्धत्येव न संशयः २३२ पुस्तकाचप्रदानादिविधिना विगतभ्रमः । कौण्डेश इव पुण्यात्मा प्रशस्यः स्याज्जगत्त्रये ॥ २३३ त्रिविधेभ्यः सुपात्रेभ्यो रोगनिर्णाशहेतवे । औषधं विविधं देयं विधिपूर्व विचक्षणैः ॥२३४ निर्दोषं प्राकं शस्यं त्वनिन्द्यं भक्ष्यमुत्तमैः । म्लेच्छाद्यस्पृश्यतापेतं देयमौषधमुत्तमम् ॥ २३५ पात्रेभ्यो निन्द्यमस्पृश्यमौषधं चेत्प्रदीयते । तद्दानान्नरकग्रामभागी स्याच्च भवे भवे ॥२३६
करके और केवली होकर मोक्षको जाते हैं ||२२३|| अब मैं गृहस्थोंको सुखका निधानभूत दान नामके छठे महान् आवश्यक कर्मको कहूंगा, जो कि उत्तम भोग आदिका दायक और दुःखोंका नाशक है || २२४|| लोगोंको अपने वशमें करनेके लिए दान प्रथम कारण माना गया है । दान गुरुपका उत्तम कारण है और अपने कुल एवं जातिका मुख उज्ज्वल करनेवाला है || २२५ || जैन शासन में आहारदान, ज्ञानदान, औषधिदान और अभयदान ये चार प्रकारके दान कहे गये हैं ||२२६॥ आहार दान सभी जीवोंको शीघ्र सुख देता है । इस आहारके प्रभावसे ही मनुष्य ध्यान और स्वाध्याय कार्य करनेके लिए समर्थ होता है || २२७|| अन्नदानके समान दान तीन भुवनमें न तो हुआ है, न है और न आगे होगा । इससे भिन्न अन्य दान तो लोभके वर्धक हैं, किन्तु अन्नदान लोभका नाशक है || २२८ || आहारदानसे श्रीषेण राजा उस जन्ममें तो प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ और अन्य भवमें शान्तिनाथ तीर्थंकर और चक्रवर्ती पद-धारक होके लोगोंको सुखका देनेवाला हुआ || २२९|| ज्ञानदान केवलज्ञान साम्राज्यकी प्राप्तिका कारण है और कर्मोंका नाशक है, इसलिए योग्य पात्रको पवित्र ज्ञानदान सदा देना चाहिए || २३०|| जो शिष्य विवेकी हैं, विनीत हैं, गुरुभक्तिमें तत्पर हैं और सद् व्रतोंका आचरण करनेवाले हैं, उन्हें पुण्य प्राप्तिके लिए पढ़ाना चाहिए || २३१॥ ज्ञानसामग्रीका दाता, पढ़ानेवाला गुरु और पढ़नेवाले शिष्य ये तीनोंके द्वारा ही शास्त्रोंका विस्तार होता है । सम्पूर्ण सामग्रीके मिलनेपर कार्य सिद्ध होता है, इसमें कोई संशय नहीं है ॥२३२॥ पुस्तक - शास्त्रकी पूजा और उसके दानकी विधिसे विभ्रम-रहित होकर पुण्यात्मा मनुष्य कौण्डेशके समान तीन जगत् में प्रशंसनीय होता है || २३३ ||
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तीनों प्रकार के सुपात्रों को उनके रोगको दूर करनेके लिए चतुरजनोंको अनेक प्रकारकी औषधि विधि पूर्वक देनी चाहिये ||२३४|| दानमें देने योग्य औषधि निर्दोष हो, प्रासुक हो, प्रशंसनीय हो, अनिन्द्य हो, भक्ष्य हो, और म्लेच्छ आदि नीच जनोंके स्पर्शसे रहित हो । ऐसी उत्तम औषधि ही श्रेष्ठ पुरुषों को देनी चाहिये || २३५ ॥ यदि पात्रोंके लिए निन्द्य और अस्पृश्य औषघि
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