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भावकाचारसंबह सकलं विकलं प्रोक्तं द्विमेवं व्रतमुत्तमम् । सकलस्य त्रिदिग्भेवा विकलस्य व द्वादश ॥२६२ मेरेयपललोद्रपञ्चोदुम्बरवर्जनम । व्रतं जिघाणा पूर्व विधातव्यं प्रयत्नतः ॥२६३ मनोमगेहस्य हेतुत्वान्निदानत्वाद् भवापदाम् । मद्यं सद्धिः सदा हेय मिहामुत्र च दोषकृत् ॥२६४ मद्याचदुसुता नष्टा एकपात्तापसः खलः । अङ्गारकः खलो जातः पिङ्गलो मद्यदोषतः ॥२६५ हन्ता दाता च संस्कर्ताऽनुमन्ता भक्षकस्तथा। क्रेता पलस्य विक्रेता यः स दुर्गतिभाजनम् ॥२६६ नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित् । न च प्राणिवधात्स्वर्गस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ॥२६७ मांस भक्षायति प्रेत्य यस्य मांसमिहादम्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वे निक्ति मनुरब्रवीत् ॥२६८ न मांससेवने दोषो न मद्येन च मेथुने । प्रवृत्तिरेवं भूतानामित्यूविषयार्थिनः ॥२६९ बनाविकाला भ्रमतां भवाब्धी निर्दयात्मनाम् । कामातचेतसां याति वचः पेशलतामदः ॥२७० कृपालुताबुद्धीनां चारित्राचारशालिनाम् । अमृषाभाषिणामेषां न स्तुत्या गोः कचिन्नृणाम् ॥२७१ सन्दिग्धेऽपि परे लोके त्याज्यमेवाशुभं बुधैः । यदि न स्यात्ततः किं स्यादस्ति चेन्नास्तिको हतः ॥२७२
पांच भेदरूप कहा गया है ।।२६१॥ मूलमें व्रतके दो भेद कहे गये हैं-सकलव्रत और विकलव्रत । सकलव्रतके पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्तिरूप तेरह भेद हैं और विकलव्रतके पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाक्तरूप बारह भेद हैं ॥२६२।। व्रतको ग्रहण करनेकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यको सबसे पहले प्रयत्नपूर्वक मद्य, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फलोंके त्यागरूप आठ मूलगुणव्रत धारण करना चाहिए ॥२६३।। मद्य भनके मोहित करनेका कारण है, संसारकी आपदाओंका निदान है और इस लोक तथा परलोक में अनेक दोषोंका करनेवाला है, इसलिए सज्जनोंको उसका सदा त्याग करना चाहिए ॥२६४॥ मद्यपानसे यदुपुत्र (यादव) नष्ट हए, मद्यदोषसे एकपाद नामका तापस नष्ट हुआ, अंगारक नामका तापस और पिंगल नामका राजा भी मद्यके दोषसे नष्ट हुआ ॥२६५।। मांसके लिए जीवका मारनेवाला, मांसको देनेवाला, मांसको पकानेवाला, मांस खानेकी अनुमोदना करनेवाला, मांसका भक्षक, मांसको खरीदनेवाला और मांसको बेचनेवाला, ये सभी दुर्गतिके पात्र हैं ।।२६६।। प्राणियोंकी हिंसाको किये विना मांस कहींपर उत्पन्न नहीं होता है, और न प्राणिघातसे स्वर्ग ही मिलता है, इसलिए मांसको खानेका त्याग करना चाहिए ॥२६७।। मनु ऋषिने 'मांस' की निरुक्ति इस प्रकार की है कि मैं जिसका मांस यहाँपर खाता हूँ, 'मां' मुझे 'स' वह परलोकमें खावेगा। यहीं 'मांस' की मांसता है ॥२६८॥ इन्द्रिय-विषयोंके लोलुपी लोगोंने यह कहकर लोगोंको भ्रम डाला है कि न मांस-भक्षणमें दोष है, न मद्य-पानमें और न मैथुन-सेवनमें ही दोष है। यह तो प्राणियोंकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है ।।२६९।। अनादिकालसे संसार-समुद्र में परिभ्रमण करनेवाले, निर्दय-स्वभावी और कामसे पीड़ित चित्तवाले मनुष्योंको ही उक्त प्रकारके वचन अच्छे लगते हैं ।।२७०।। किन्तु दयालुतासे जिनकी बुद्धि गीली हो रही है, जो चारित्रका आचरण करनेवाले हैं और सत्यभाषी हैं, ऐसे मनुष्योंको उक्त वाणी कहींपर भी अच्छी नहीं लगती है ॥२७॥ जिन्हें परलोकके विषयमें सन्देह है, उन बुद्धिमानोंको भी अशुभ कार्य सदा त्याज्य ही हैं। यदि परलोक नहीं है, तो भी उससे क्या हानि है, अर्थात् बुरे कार्य न करनेका फल इस लोकमें भी अच्छा ही होता है । और यदि परलोक है, तो फिर उसका अभाव बतानेवाला नास्तिक मारा गया। अर्थात् वह परलोकमें बुरे कार्यका फल पायेगा ही ॥२७२।। जो परलोकको उत्तम बनाना चाहते हैं, उन्हें मद्य-मांस-भक्षियोंके घरों में प्राण जानेपर
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