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श्रावकाचार-संग्रह किन्तु धातुचतुष्कस्य पिण्डे सूच्यप्रमात्रके । एकाक्षाः सन्त्यसंख्याता नानन्ता नापि संख्यकाः ।।८६ अयमर्थः पृथिव्यादिकाये यलो विधीयताम् । तद्वधादिपरित्यागवृत्त्यभावेऽपि श्रावकैः ।।८७ अनन्तानन्तजीवास्तु स्युर्वनस्पतिकायिकाः ।पूर्ववक्तेऽपि सूक्ष्माश्च बादराश्चेति भेदतः ।।८८ पर्याप्तापर्याप्तकाश्च प्रत्येकं चेति ते द्विधा । प्रत्येकाः साधारणाश्च विज्ञेया जैनशासनात् ॥८९ सूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याप्तानां च लक्षणम् । ज्ञातव्यं यत्प्रागत्रैव निर्दिष्टं नातिविस्तरात् ॥९० साधारणा निकोताश्च सन्त्येवैकार्थवाचकाः । घृतघटवद्यैः सूक्ष्मर्लोकोऽयं संभृतोऽखिलः ॥९१ बाधाराधेयहेतुत्वाद् बादराः स्युः कचित्वचित् । तेऽपि प्रतिष्ठिताः केचिनिकोतैश्चाप्रतिष्ठिताः ॥९२ तैराधिता यथा प्रोक्ताः प्रागितो मूलकादयः । अनाश्रिता यथैतैश्च ब्रीहयश्चणकादयः ॥९३ तत्रकस्मिन् शरीरेऽपि सन्त्यनन्ताश्च प्राणिनः । प्रत्येकाश्च निकोताश्च नाम्ना सूत्रेषु संज्ञिताः ॥९४
उक्तंचएय णिगोयसरीरे जीवा दवप्पमाणदो दिवा । सिद्धेहि अणंतगुणा सम्वेण वितोदकालेण ॥३२ और नारकियोंका शरीर इन आठ स्थानोंमें निगोदिया जीव नहीं रहते हैं। इनके सिवाय बाकी जीवोंके शरीर निगोदराशिसे भरे हुए प्रतिष्ठित समझने चाहिए ॥३१॥
__इस प्रकार यद्यपि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इन चारों धातुओंमें निगोदिया जीव नहीं रहते तथापि इन चारों ही धातुओंका पिंड जितना सुईके अग्रभागपर आता है उतने धातुओंके पिंडमें असंख्यात एकेन्द्रिय जीव होते हैं। उन जीवोंकी संख्या न तो संख्यात होती है और न अनन्त होती है किन्तु असंख्यात ही होती है ॥८६॥ इस सबके कहनेका अभिप्राय यह है कि यद्यपि श्रावकोंके स्थावर जीवोंकी हिंसाका त्याग नहीं होता तथापि उनको पृथ्वीकायिकादि जीवोंकी रक्षाका प्रयत्न अवश्य करते रहना चाहिए ॥८७॥ वनस्पतिकायिक जीव अनन्तानन्त होते हैं तथा उनके भी पहलेके समान स्थूल और सूक्ष्म ऐसे दो भेद होते हैं ।।८८॥ इनमें भी प्रत्येकके दो-दो भेद होते हैं-एक पर्याप्तक और दसरा अपर्याप्तक। जैनशास्त्रोंमें इन सबके दो-दो भेद बतलाए हैं-एक प्रत्येक और दूसरे साधारण ||८९|| इनमेंसे सूक्ष्म बादर (स्थल) पर्याप्तक और अपर्याप्तकोंका लक्षण पहले बता चके हैं. इनका जो लक्षण पहले संक्षेपसे बतलाया है वही यहाँपर समझ लेना चाहिये ।।९०॥ साधारण और निगोद ये दोनों ही शब्द एक ही अर्थको कहनेवाले हैं। जो निगोदका अर्थ है वही साधारणका अर्थ है। ऐसे सूक्ष्म निगोदिया जीवोंसे यह समस्त लोकाकाश इस प्रकार भरा हुआ है जैसे धींका घड़ा घीसे भरा रहता है ॥११॥ स्थूल वनस्पतिकायिक जीव इस लोकाकाशमें आधाराधेयरूपसे कहीं-कहींपर रहते हैं। तथा वे स्थूल जीव अन्य कितने ही जीवोंके बाधारभूत भी होते हैं और उन स्थूल जीवोंमेंसे कितने तो ऐसे हैं जो निगोदिया जीवोंसे भरे हुए प्रतिष्ठित हैं और कितने ही ऐसे हैं जो निगोदिया जीवोंसे रहित अप्रतिष्ठित हैं ।।१२। उन अनन्तानन्त निगोदिया जीवोंसे आश्रित रहनेवाले वनस्पतिकायिक स्थूल जीव मूली अदरक मालिक हैं जिनका स्वरूप पहले अच्छी तरह बतला चुके हैं तथा जो अनन्तानन्त निगोदिया जीवोंसे आश्रित नहीं हैं अर्थात् जिनमें अनन्तानन्त निगोदिया जोव नहीं हैं वे एक स्थूल वनस्पतिकायिक गेहूँ चना आदि हैं ॥९३।। उन निगोदियोंके एक शरीरमें भी अनन्त जीव होते हैं जो कि आगम-सूत्रोंमें प्रत्येक और निगोद नामसे कहे गये हैं ॥१४॥
कहा भी है-निगोदिया जीवोंके एक शरीरमें जो अनन्तानन्त जीव होते हैं उनकी संख्या व्यतीत अनादिकालसे तथा आज तक जितने सिद्ध हुए हैं उनकी संख्यासे अनन्तगुणो है ॥३२॥
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