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उमास्वामि- धावकाचार
पञ्चाङ्गुले तु वृद्धिः स्यावुत गस्तु षडङ्गले । सप्ताङ्गले गवां वृद्धिर्हानिरष्टाङ्गके मता ॥१०२ नवाङ्गले पुत्रवृद्धिर्धननाशो दशाङ्गुले । आरम्यैकाङ्गुलाद्विम्बाद्यावदेकादशाङ्गुलम् ॥१०३ गृहे संपूजयेद्विम्बमूर्ध्वप्रासादगं पुनः । प्रतिमाकाष्ठलेपाश्मस्वर्णरूप्यायसां गृहे ॥१०४ मानाधिकपरीवाररहिता नैव पूज्यते । काष्ठलेपायसां भूता प्रतिमा साम्प्रतं न हि ॥१०५ योग्यास्तेषां यथोक्तानां लाभस्यापि त्वभावतः । जीवोत्पत्त्यादयो दोषा बहवः सम्भवन्ति च ॥ १०६ प्रासादे ध्वजनिर्मुक्ते पूजाहोमजपादिकम् । सवं विलुप्यते यस्मात्तस्मात्कार्यो ध्वजोच्छ्रयः ॥ १०७ अतीताब्दशतं यत्स्याद् यच्च स्थापितमुत्तमैः । तद्व्यङ्गमपि पूज्यं स्याद्विम्बं तन्निष्फलं न हि ॥१०८
उक्तं च
यद्विम्बं लक्षणैर्युक्तं शिल्पिशास्त्रनिवेदितम् । साङ्गोपाङ्गं यथायुक्तं पूजनीयं प्रतिष्ठितम् ॥१०९ नासामुखे तथा नेत्रे हृदये नाभिमण्डले । स्थानेषु व्यङ्गितेष्वेव प्रतिमा नैव पूजयेत् ॥ ११० जीणं चातिशयोपेतं तद्व्यङ्गमपि पूजयेत् । शिरोहीनं न पूज्यं स्यान्निक्षेप्यं तन्नवादिषु ॥ १११
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है, दो अंगुलप्रमाणका जिनबिम्ब धन-नाशक होता है, तीन अंगलके जिनबिम्ब बनवानेपर धनधान्य एवं सन्तान आदिको वृद्धि होती है और चार अंगुलके जिनबिम्ब होनेपर पीड़ा होती है ॥ १०१ ॥ पाँच अंगुलके जिनबिम्ब होनेपर घरकी वृद्धि होती है, छह अंगुलके जिनबिम्ब होनेपर घरमें उद्वेग होता है, सात अंगुलके जिनबिम्ब होनेपर गायोंकी वृद्धि होती है और आठ अंगुलके जिनबिम्ब होनेपर धन-धान्यादिककी हानि होती है || १०२ || नौ अंगुलके जिनबिम्ब होनेपर पुत्रोंकी वृद्धि होती है और दश अंगुलके जिनबिम्ब होनेपर धनका नाश होता है। इस प्रकार एक अंगुल - प्रमाण जिनबिम्बसे लेकर ग्यारह अंगुल तकके जिनबिम्बको घरमें स्थापन करनेका शुभाशुभ फल कहा ॥१०३ || अतएव गृहस्थको घरमें ग्यारह अंगुलप्रमाणवाला जिनबिम्ब पूजना चाहिए। इससे अधिक प्रमाणवाला जिनबिम्ब ऊंचे शिखरवाले जिनमन्दिरमें स्थापन करके पूजे । घरके चैत्यालयके लिए प्रतिमा काठ, लेप (चित्राम), पाषाण, सुवर्ण, चांदी और लोहेकी बनवाये ||१०४|| ग्यारह अंगुलसे अधिक प्रमाणवाली प्रतिमा आठ प्रातिहार्य आदि परिवारसे रहित नहीं पूजना चाहिए । अर्थात् ग्यारह अंगुलसे बड़ी प्रतिमाको आठ प्रातिहार्यादि परिवारसे संयुक्त ही बनवाना चाहिए। तथा आजके समयमें काठ, लेप और लोहेको प्रतिमा नहीं बनवाना चाहिए ॥ १०५॥ क्योंकि इनकी बनवाई गई यथोक्त योग्य प्रतिमाओंके निर्माणका कोई लाभ नहीं है और जीवों की उत्पत्ति आदिक होनेसे अनेक दोषों की सम्भावना है ॥ १०६ ॥ यतः जिनमन्दिरके ध्वजासे रहित होनेपर पूजन हवन और जप आदिक सर्व विलुप्त हो जाते हैं, अतः जिनमन्दिर पर ध्वजारोपण कराना चाहिए ॥ १०७॥ जिस जिनबिम्बको पूजते हुए एक सौ वर्ष व्यतीत हो गये हैं, और जिस जिनबिम्बको उत्तम पुरुषोंने स्थापित किया है, वह जिनबिम्ब यदि अंगहीन है, तो भी पूज्य है, उसका पूजन निष्फल नहीं है ॥१०८॥
इस विषय में प्रतिष्ठाशास्त्रोंमें ऐसा कहा है- जो जिनबिम्ब शुभ लक्षणोंसे युक्त हो, शिल्पिशास्त्रमें प्रतिपादित नाप-तौलवाला हो, अंग और उपांगसे सहित हो और प्रतिष्ठित हो, वह यथायोग्य पूजनीय है। किन्तु जो जिनबिम्ब नासा, मुख, नेत्र, हृदय और नाभिमण्डल इतने स्थानों पर यदि अंगहीन हो तो वह प्रतिमा नहीं पूजनी चाहिए ॥१०९-११०॥ यदि कोई प्रतिमा प्राचोन हो और अतिशय-संयुक्त हो, तो वह अंग-हीन भी पूजनी चाहिए। किन्तु शिर-हीन प्रतिमा
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