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लाटीसंहिता
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एवमित्यादिदिग्मात्रं षोढा चाभ्यन्तरं तपः । निर्दिष्टं कृपयाऽस्माभिर्देशतो व्रतधारिणाम् ॥८८
अक्षरमात्रपदस्वर होनं व्यञ्जनसन्धिविजितरेफम् ।
साधु भिरत्र मम क्षमितव्यं को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे ॥८९ इति श्रावकाचागपरनाम लाटीसंहितायां सामायिकाद्येकादश प्रतिमापर्यन्त
वर्णनं नाम षष्ठः सर्गः ।।६।।
छहों प्रकारके अंतरंग तपोंका स्वरूप अत्यन्त संक्षेपसे बतलाया ||८८॥ इस ग्रन्थमें जो अक्षर, मावा, पद, स्वर आदि कम हों अथवा व्यंजन सन्धि रेफ आदिसे रहित हों तो भी सज्जन लोगोंको मेरा यह अपराध क्षमा कर देना चाहिए, क्योंकि शास्त्र एक प्रकारका अगाध समुद्र है इसमें कौन गोता नहीं खाता है अर्थात् कौन नहीं भूलता है ? छद्मस्थ अल्पज्ञानी सभी भूलते हैं ।।८।।
इस प्रकार सामायिक प्रतिमासे लेकर उद्दिष्टत्याग नामकी ग्यारहवीं प्रतिमा तक
नी प्रतिमाओंके स्वरूपको निरूपण करनेवाला यह छठा सर्ग समाप्त हुआ।
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