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श्रावकाचार-संग्रह
चतुर्यतो गुणेषु स्यात्क्षायिकं निखिलेष्वपि । मिश्राख्यं सप्तमं यावत्सम्यक्त्वं मुक्तिकारणम् ॥२५ तुर्यादारम्य भव्यात्मवाञ्छितार्थप्रदायकम् । उपशान्तकषायान्तं सम्यक्त्वं प्रथमं मतम् ॥२६ साध्यसाधनभेदेन द्विधा सम्यक्त्वमीरितम् । साधनं द्वितयं साध्यं क्षायिकं मुक्तिदायकम् ॥२७ पुद्गलार्घपरावर्ताद्वध्वं मोक्षं प्रपित्सुना । भव्येन लभ्यते पूर्व प्रशमाख्यं सुदर्शनम् ॥२८ प्रथमस्य स्थितिः प्रोक्ता जघन्याऽन्तर्मुहूत्तिकी । वेदकस्य स्थितिः श्रेष्ठा षट्षष्टिमितसागरा ॥२९ अन्तर्मुहूर्तमात्राऽन्या प्रोक्ता क्षायिकसम्भवा । पूर्वकोटिद्वयोपेतास्त्रयस्त्रशत्पयोधयः ||३० किञ्चिन्न्यूना स्थितिः प्रोक्ता परा सम्यक्त्ववेदिभिः ।
सम्यक्त्वं त्रितयं श्वभ्रे प्रथमेऽन्येषु हे जनाः ॥३१ सम्यक्त्वद्वितयं मुक्त्वा क्षायिकं मुक्तिदायकम् । तिर्यङ्नरामराणां च सम्यक्त्वत्रयमुत्तमम् । देवाङ्गनातिरश्चीनां क्षायिकाच्चापरं द्वयम् ॥३२
( षट्पदी श्लोक :) सम्यक्त्वद्वितयं प्रोक्तं सरागं सुखकारणम् । वीतरागं पुनः सम्यक् क्षायिकं भववारणम् ॥३३ दर्शनं साङ्गमुद्दिष्टं समयं भवसङ्क्षये । नाङ्गहीनं भवेत्कार्यकरं मन्त्रादिवद्यथा || ३४
आदि तोन भेद कहे गये हैं और आज्ञासम्यक्त्व आदि दश भेद भी माने गये हैं । इनमें से सबसे पहले उपशमसम्यक्त्व होता है, तत्पश्चात् मिश्र अर्थात् क्षायोपशमिकसम्यक्त्व होता है और तदनन्तर क्षायिकसम्यक्त्व उत्पन्न होता है || २४|| यह क्षायिकसम्यक्त्व चौथे गुणस्थानसे लेकर ऊपरके सभी गुणस्थानोंमें पाया जाता है। मिश्रनामक सम्यक्त्व चौथेसे सातवें गुणस्थान तक पाया जाता है । यह भी मुक्तिका कारण है || २५ || उपशमसम्यक्त्व चौथेसे लेकर उपशान्तकषाय नामके ग्यारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है और यह भव्य आत्माओंको वांछित अर्थोका देनेवाला माना गया है ||२६|| साध्य और साधनके भेदसे सम्यक्त्व दो प्रकारका कहा गया है । उपशम और मिश्र ये दो सम्यक्त्व तो साधन माने गये हैं और मुक्तिको साक्षात् देनेवाला क्षायिकसम्यक्त्व साध्य कहा गया है ||२७|| अर्धपुद्गल परिवर्तनके अनन्तर नियमसे मोक्षको प्राप्त होनेकी इच्छा रखनेवाले भव्यजीवके द्वारा पहले प्रशम नामका सुदर्शन अर्थात् उपशम सम्यक्त्व प्राप्त किया जाता है ||२८|| प्रथम जो उपशमसम्यक्त्व है उसकी उत्कृष्ट (ओर जघन्य ) स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कही गई है । वेदक अर्थात् मिश्रसम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति छ्यासठ सागर प्रमाण कही गई है, तथा उसकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तमात्र कही गई है । क्षायिक सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होती है और उत्कृष्ट स्थिति कुछ कम दो पूर्वकोटि वर्षसे अधिक तेतीस सागरप्रमाण सम्यक्त्वके वेत्ताओंने कही है ॥२९-३०३ ॥ हे भव्यजनो, प्रथम नरक में तीनों ही सम्यक्त्व होते हैं, और अन्य छह नरकोंमें मुक्ति-दायक क्षायिकको छोड़कर शेष दोनों सम्यक्त्व होते हैं । पुरुषवेदी तिर्यंच, मनुष्य और देवोंके तीनों ही उत्तम सम्यक्त्व होते हैं । देवाङ्गनाओंके और तिर्यचनियोंके क्षायिकसम्यक्त्वके सिवाय शेष दोनों सम्यक्त्व होते हैं ||३१-३२॥ उपशम और मिश्र ये दो सम्यक्त्व सराग और सुखके कारण कहे गये हैं । किन्तु क्षायिकसम्यक्त्व वीतराग और संसारका निवारण करनेवाला है ||३३|| अपने सर्व अंगोंसे संयुक्त सम्यग्दर्शन संसारका क्षय करने में समर्थ कहा गया है । अंग-हीन सम्यक्त्व कार्यकारी नहीं होता, जैसे कि अक्षर आदिसे
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