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उमास्वामि-श्रावकाचार
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अनेकान्तात्मक वस्तुजातं यद् गदितं जिनः । तन्नान्यथेति तन्वानो जनो निःशङ्कितो भवेत् ॥३५ जिन एकोऽस्ति सद्देवस्तेनोक्तं तत्त्वमेव च । यस्येति निश्चयः सः स्यानिःशङ्कितशिरोमणिः ॥३६ हृषीकराक्षसाक्रान्तो गगनेऽपि गति क्षणात् । निःशङ्किततया प्राप तस्करोऽञ्जनसंज्ञकः ॥३७ तपः सुदुःसहं तन्वन् दानं वा स्वर्गसम्भवम् । सुखं नाकाङ्क्षति त्रेधा यः स निष्काङ्किताप्रणीः ३८ सुखे वैषयिके सान्ते तपोदानं वितन्वतः । नरस्य स्पृहयालुत्वं यत्सा काङ्क्षा बुधैर्मता ॥३९ हासात्पितुश्चतुर्थेऽस्मिन् व्रतेऽनन्तमती स्थिता । कृत्वा तपश्च निष्काङ्क्षा कल्पं द्वादशमाविशत् ४० स्वभावादशुचौ देहे रत्नत्रयपवित्रिते । निघृणा च गुणप्रीतिर्मता निविचिकित्सता ॥४१ ऊर्ध्वत्वभुक्तितो नाग्यात्स्नानाचमनवर्जनात् । अनिद्यमपि निन्दन्ति दुर्दशो जिनशासनम् ॥४२ ते तदर्थमजानाना मिथ्यात्वोदयदूषिताः । तथैव विचिकित्सन्ति स्वभावकुटिलाः खलाः ॥४३ शुद्धात्मध्याननिष्ठानां यतीनां ब्रह्मचारिणाम् । व्रतमन्त्रपवित्राणामस्नानं नात्र दूष्यते ॥४४ यदेवाङ्गमशुद्धं स्यादद्भिः शोध्यं तदेव हि । अङ्गलौ सर्पदष्टायां न हि नासा निकृन्त्यते ॥४५ सङ्गे कापालिकात्रेयीचाण्डालशबरादिभिः । आप्लुत्य दण्डवत्सम्यक् जपेन्मन्त्रमुपोषितः ॥४६ हीन मन्त्र आदि कार्यकारी नहीं होते हैं ॥३४॥ जिनराजोंने जो अनेक धर्मात्मक वस्तुसमुदाय कहा है, वह वैसा ही है, अन्यथा नहीं है, ऐसी दृढ़ श्रद्धा रखनेवाला मनुष्य निःशंकित अंगधारी है ।।३५।। जिनदेव ही एकमात्र सच्चे देव हैं, और उनके द्वारा कहा गया तत्त्व ही सत्य है, ऐसा जिसके निश्चय होता है, वह व्यक्ति निःशंकित अंगधारियोंमें शिरोमणि है ॥३६।। पाँचों इन्द्रियोंके विषयरूप राक्षसोंसे आक्रान्त भी अंजन नामका चोर निःशंकित अंगको धारण करनेसे क्षणमात्र आकाशमें गमन करनेकी शक्तिको प्राप्त हो गया ॥३७॥ जो पुरुष दुःसह तपको तपता हुआ और स्वर्ग में पैदा करनेवाले दानको देता हुआ भी मन वचन कायरूप त्रियोगसे सांसारिक सुखको आकांक्षा नहीं करता है, वह निःकांक्षित पुरुषोंमें अग्रणी हैं ॥३८|| तप और दानको करते हुए भी जिस मनुष्यके सान्त वैषयिक सुखमें जो अभिलाषा होती है, उसे ज्ञानी जनोंने कांक्षा माना है ।।३९।। पिताके हास्यसे कहे गये वचनोंपर ब्रह्मचर्य नामके इस चौथे व्रतमें अनन्तमती स्थित रही और आकांक्षा-रहित होकर तप करके उसने बारहवें स्वर्गको प्राप्त होकर देव पद पाया ॥४०॥ स्वभावसे अपवित्र किन्तु रत्नत्रयसे पवित्र हुए साधुके शरीरमें ग्लानि नहीं करना और उनके गणोंमें प्रीति करना निर्विचिकित्सा मानी गई है ॥४१॥ साधुओंके खड़े होकर भोजन करनेसे, नग्न रहनेसे, स्नान और आचमन नहीं करनेसे अनिन्द्य भी जिनशासनकी मिथ्यादृष्टि लोग निन्दा करते हैं ।।४२।। जो मिथ्यात्वकर्मके उदयसे दूषितचित्त हैं, और स्वभावसे कुटिल हैं, ऐसे दुर्जन मिथ्यादृष्टि लोग साधुओंके उक्त गुणोंके अर्थ या अभिप्रायको नहीं जानते हुए वृथा ही साधुओंकी एवं जिनशासनकी निन्दा करते और उसके प्रति ग्लानि प्रकट करते हैं ॥४३॥ जो शुद्ध आत्माके ध्यानमें संलग्न हैं, ब्रह्मचर्यके धारक हैं, व्रत और मन्त्रसे पवित्र हैं, ऐसे साधुओंका स्नान नहीं करना इस संसार में दूषणयोग्य नहीं है ।।४४।। शरीरका जो अंग अशुद्ध हो, वही अंग जलसे शुद्ध करने के योग्य होता है। अंगुली साँपके द्वारा डंसी जानेपर नाक नहीं काटी जाती है ।।४।। भावार्थ-साधुजन मल-मूत्रादिसे अशुद्ध हुए स्थानको जलसे शुद्ध कर लेते हैं, अतः उन्हें सर्वाग स्नान आवश्यक नहीं है। गमन करते हुए कदाचित् कापालिक (मनुष्यकी खोपड़ीको रखनेवाला), अत्रेयी (रजस्वला स्त्री), चाण्डाल और भील आदिसे स्पर्शका संगम होनेपर साधुजन
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