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श्रावकाचार-संग्रह सन्त्यत्र विषयाः सीम्नः वननीवृनगापगाः । अनु तानवधिं कृत्वा गच्छेदग्नि तद्बहिः ॥११२ पूर्वस्यां दिशि गच्छामि यावद्गङ्गाम्बु केवलम् । तद्बहिर्वपुषानेन न गच्छामि सचेतनः ॥११३ एवं कृतप्रतिज्ञस्य संवरः पापकर्मणः । तदबहिः सर्वहिंसाया अभावात्तन्मुनेरिव ॥११४ परिपाटयानयोदीच्या पश्चिमायां दिशि स्मृताः । मर्यादोर्ध्वमधश्चापि दक्षिणस्यां विदिक्षु च ॥११५ तत्करणे महच्छ्रेयो हिंसा तृष्णाद्वयात्ययात् । करणीयं ततोऽवश्यं श्रावकैवतधारिभिः ॥११६ सन्ति तत्राप्यतीचाराः पञ्चेति सूत्रसाधिताः । सावधानतया त्याज्यास्तेऽपि तद्वतसिद्धये ॥११७ तत्सूयं यथा
अवधिस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि ॥५१ उच्चैर्षात्रीघरारोहे भवेदूवंव्यतिक्रमः । अगाघभूधरावेशाद्विख्यातोऽधोव्यतिक्रमः ॥११८ क्वचिद्दिक्कोणदेशादौ क्षेत्र वीर्घावतिनि । कारणाद् गमनं लोभाद् भवेत्तियंग्व्यतिक्रमः ।।११९ उससे आगे न जानेका नियम लेना दिग्व्रत अथवा दिग्विरतिव्रत कहलाता है ॥१११।। वन, देश, पर्वत, नदी और बड़े बड़े देश इस दिग्वतकी सीमा कहलाते हैं। इनकी मर्यादा नियत करके उस मर्यादाके भीतर ही जाना चाहिये । मर्यादाके बाहर कभी नहीं जाना चाहिये ।।११२।। जैसे मैं इस शरीरसे सचेतन अवस्थामें पूर्व दिशामें जहाँ तक गंगा नदी बहती है वहाँ तक जाऊँगा इससे आगे कभी नहीं जाऊँगा ॥११३।। इस प्रकारकी प्रतिज्ञा करनेवाले श्रावकको मर्यादाके बाहर मुनिके समान समस्त हिंसाका त्याग हो जाता है। अतएव उस श्रावकके मुनियोंके समान ही पापकर्मोका संवर होता है ।।११४॥ जिस प्रकार यह पूर्व दिशाका उदाहरण दिया है उसी प्रकार उत्तर दिशामें, पश्चिम दिशामें, दक्षिण दिशामें, ईशान आग्नेय नैऋत्य वायव्यादिक चारों विदिशाओंमें तथा ऊपरकी और नोचेकी ओर भी मर्यादा नियत कर उससे आगे न जानेकी प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये ॥११५॥ इस प्रकार दशों दिशाओंमें मर्यादा नियत कर उससे आगे न जानेको प्रतिज्ञा कर लेनेसे आत्माका बहुत भारी कल्याण होता है क्योंकि इस प्रकारको प्रतिज्ञा करनेसे हिंसा और तृष्णा दोनोंका त्याग हो जाता है। मर्यादा नियत कर लेने पर मर्यादाके बाहर फिर किसी भी प्रकारका सम्बन्ध रखनेकी तृष्णा नहीं रहती है और न किसी प्रकारकी हिंसा हो सकती है अतएव व्रत धारण करनेवाले श्रावकोंको यह दिग्वत अवश्य धारण कर लेना चाहिये ॥११६।। अन्य व्रतोंके समान इस दिग्वतके भी पांच अतिचार हैं जो कि सूत्र में बतलाये हैं। इस दिग्व्रतको अच्छी तरह पालन करनेके लिये, निर्दोष या शुद्ध पालन करनेके लिये इन सब अतिचारोंका त्याग भो बड़ी सावधानी के साथ कर देना चाहिये ।।११७॥
उन अतिचारोंके कहनेवाला वह सूत्र यह है-ऊर्ध्वव्यतिक्रम अर्थात् ऊपरकी मर्यादाका उल्लङ्घन करना, अधोव्यतिक्रम अर्थात् नीचेकी मर्यादाका उल्लङ्घन करना, तिर्यग्व्यतिक्रम अर्थात् आठों दिशाओंकी मर्यादाका उल्लङ्घन करना, क्षेत्रको मर्यादा बढ़ा लेना और नियत की हुई मर्यादाको भूल जाना ये पांच दिग्वतके अतिचार हैं ॥५१॥
____ आगे इन्हींका विशेष वर्णन करते हैं। ऊंची पृथ्वी पर चढ़नेसे अथवा किसी पर्वत पर चढ़नेसे कवंव्यतिक्रम होता है। इस प्रकार किसी पर्वतको बहुत नीची गुफामें जानेसे अधोव्यतिक्रम होता है । भावार्थ-ऊपर और नीचेकी जितनी मर्यादा नियत कर ली है उसका उल्लङ्घन करना अतिचार है ॥११८॥ कोई कोई देश ऐसे हैं जो दिशाओंके कोनोंमें हैं और बहुत लम्बे हैं
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