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श्रावकाचार-संग्रह
अथानिष्टार्थसंयोगो दुर्दैवाज्जायते नृणाम् । तथा द्वेषो न कर्तव्यो धनसंख्या व्रतेप्सिना ॥९५ इष्टानिष्टादिशब्दार्थ : सुगमत्वान्न लक्षितः । रागद्वेषौ प्रसिद्धौ स्तः प्रयासः सुगमे वृथा ॥९६ अत्रातीचारसंज्ञाः स्युः दोषाः संख्याव्रतस्य च । उदिता सूत्रकारेण त्याज्या व्रतविशुद्धये ॥९७ तत्सूत्रं यथा
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क्षेत्रवास्तु हिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः ॥५० क्षेत्रं स्याद्वसतिस्थानं धान्याधिष्ठानमेव वा । गवाद्यागारमात्रं वा स्वीकृतं यावदात्मना ॥९८ ततोऽतिरिक्ते लोभान्मूर्च्छावृत्तिरतिक्रमः । न कर्तव्यो व्रतस्थेन कुर्वतोपधितुच्छताम् ॥९९ वास्तु वस्त्रादिसामान्यं तत्संख्यां क्रियतां बुधैः । अतीचारनिवृत्त्यर्थं कार्यो नातिक्रमस्ततः ॥१०० हिरण्यध्वनिना प्रोक्तं वज्रमौक्तिकसत्फलम् । तेषां प्रमाणमात्रेण क्षणान्मूर्च्छा प्रलीयते ॥ १०१ अत्र सुवर्णशब्देन ताम्रादिरजतादयः । संख्या तेषां च कर्तव्या श्रेयान्नातिक्रमस्ततः ॥१०२
कर्मके उदयसे मनुष्योंको अनिष्ट पदार्थों का संयोग हो जाय, रोग या कुपुत्र या कलह करनेवाली स्त्रीका संयोग प्राप्त हो जाय तो धन-धान्यादिका परिमाण करनेवाले या घटानेकी इच्छा करनेवाले श्रावकोंको उन अनिष्ट पदार्थोंसे द्वेष नहीं करना चाहिए। उन अनिष्ट पदार्थों के संयोगको भी शांत और मध्यस्थ भावोंसे भोगना चाहिए || ९५|| इष्ट और अनिष्ट शब्दों का अर्थ सुगम है इसलिए उनका अलग लक्षण नहीं कहा है। इसी प्रकार राग और द्वेष शब्द भी प्रसिद्ध हैं अतएव उनका अर्थ भी नहीं बतलाया है क्योंकि जिन शब्दोंका अर्थ सुगमतासे मालूम हो जाय उनके अर्थ बतलाने में परिश्रम करना व्यर्थ है || ९६ || इस परिग्रहपरिमाणव्रतके भी पाँच अतिचार हैं जो सूत्रकारने भी अपने सूत्रमें बतलाए हैं । अणुव्रती श्रावकोंको अपने व्रत शुद्ध रखनेके लिये उन दोषोंका भी त्याग कर देना चाहिए ||९७||
उन अतिचारोंको कहने वाला जो सूत्र है वह यह है-क्षेत्र वास्तु हिरण्य सुवर्ण धन धान्य दासी दास और कुप्य पदार्थोंका जितना परिणाम किया है उसको उल्लङ्घन करना परिग्रहपरिमाणव्रतके अतिचार हैं ॥५०॥
आगे इन्हींका विशेष करते हैं । क्षेत्र शब्दका अर्थ रहनेका स्थान है अथवा जिसमें गेहूँ, जो, चावल आदि धान्य उत्पन्न होते हैं ऐसे खेतों को भी क्षेत्र कहते हैं अथवा जिनमें गाय भैंस आदि पशु बाँधे जाते हैं ऐसे स्थानको भी क्षेत्र कहते हैं । ऐसे क्षेत्रका जितना परिमाण कर लिया है उससे अधिक क्षेत्रमें किसी लोभके कारण मूर्च्छा रखना, मोह रखना, ममत्व रखना अतिक्रम या अतिचार कहलाता है । अणुव्रतोंको धारण करनेवाले और परिग्रहको घटाने की इच्छा करनेवाले श्रावकको ऐसे अतिचारका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ||९८-९९ || वस्त्र आदि सामानको वास्तु कहते हैं । बुद्धिमान श्रावकोंको अतिचार या दोषोंका त्याग करनेके लिये वस्त्रादिकोंका परिमाण भी नियत कर लेना चाहिये तथा जो परिमाण नियत कर लिया है उसका उल्लङ्घन कभी नहीं करना चाहिये || १०० || हिरण्य शब्दका अर्थ हीरा मोती मानिक आदि जवाहरात हैं ऐसे पदार्थों का परिमाण कर लेनेसे. अणुव्रती श्रावकका ममत्व क्षणभरमें नष्ट हो जाता है ॥ १०१ ॥ | यहाँ सुवर्ण शब्दका अर्थ सोना, चांदी, तांबा, पीतल आदि धातु समझना चाहिये । अणुव्रती श्रावकको ऐसी धातुओंका परिमाण भी नियत कर लेना चाहिये तथा जितना परिमाण नियत किया है उसका
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