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श्रावकाचार-संग्रह आत्मेतराङ्गिणामङ्गरक्षाणं यन्मतं स्मृतौ । तत्परं स्वात्मरक्षाया. कृतेनात. परत्र तत् ॥२५४ सत्सु रागादिभावेषु बन्धः स्यात्कर्मणां बलात् । तत्पाकादात्मनो दुःखं तत्सिद्धः स्वात्मनो वधः ।। ततः शुद्धोपयोगो यो मोहकर्मोदयादृते । चारित्रापरनामैतद्वतं निश्चयतः परम् ॥२५६ रूढेः शुभोपयोगोऽपि ख्यातश्चारित्रसंज्ञया । स्वार्थक्रियामकुर्वाणः सार्थनामा न निश्चयात् ॥२५७ किन्तु बन्धस्य हेतुः स्यादर्थात्तत्प्रत्यनीकवत् । नासौ वरं वरं यः स नापकारोपकारकृत् ॥२५८ विरुद्धकार्यकारित्वं नास्यासिद्धं विचारसात् । बन्धस्यैकान्ततो हेतोः शुद्धादन्यत्र सम्भवात् ॥२५९ नोह्यं प्रज्ञापराधत्वान्निर्जराहेतुरंशतः । अस्ति नाबन्धहेतुर्वा शुभो नाप्यशुभावहात् ॥२६० कर्मादानक्रियारोधः स्वरूपाचरणं च यत् । धर्मः शुद्धोपयोगः स्यात्सैष चारित्रसंज्ञकः ॥२६१ उक्तंच
चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्तिणिद्दिट्ठो।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥२१ नूनं सद्दर्शनज्ञानचारित्रर्मोक्षपद्धतिः । समस्तैरेव न व्यस्तैस्तत्कि चारित्रमात्रया ॥२६२ सत्यं सद्दर्शनं ज्ञानं चारित्रान्तर्गतं मिथः । त्रयाणामविनाभावाद रत्नत्रयमखण्डितम् ॥२६३ वे रागादिक भाव रहते हैं तबतक ज्ञानादिक धर्मोंकी हिंसा होनेसे आत्माको हिंसा होती रहती है ॥२५३।। आशय यह है कि वास्तवमें रागादि भाव ही हिंसा है, अधर्म है, व्रतसे च्युत होना है और रागादिका त्याग करना ही अहिंसा है, व्रत है अथवा धर्म है ॥२५४॥ रागादि भावोंके होनेपर कर्मोंका बन्ध नियमसे होता है और उस बँधे हुए कर्मके उदयसे आत्माको दुःख होता है इसलिये रागादि भावोंका होना आत्मबध है यह बात सिद्ध होती है ॥२५५॥ इसलिये मोहनीय कर्मके उदयसे अभावमें जो शुद्धोपयोग होता है उसका दूसरा नाम चारित्र है और वही निश्चयसे उत्कृष्ट व्रत है ।।२५६।। चारित्र सब प्रकारसे अपनी अर्थक्रियाको करता हुआ भी निर्जराका कारण है यह बात न्यायसे भी अबाधित है इसलिये वह दीपकके समान सार्थक नामवाला है ।।२५७।। किन्तु वह अशुभोपयोगके समान वास्तव में बन्धका कारण है इसलिये यह श्रेष्ठ नहीं है। श्रेष्ठ वह है जो न तो उपकार ही करता है और न अपकार ही करता है ॥२५८।। शुभोपयोग विरुद्ध कार्यकारी है यह बात विचार करनेपर असिद्ध भी नहीं प्रतीत होती, क्योंकि शुभोपयोग एकान्तसे बन्धका कारण होनेसे वह शुद्धोपयोगके अभावमें हो पाया जाता है ।।२५९|| बुद्धि दोषसे ऐसो तकणा भी नहीं करनी चाहिये कि शुभोपयोग एक देशनिर्जराका कारण है, क्योंकि न तो शुभोपयोग ही बन्धके अभावका कारण है और न अशुभोपयोग ही बन्धके अभावका कारण है ।।२६०॥ कर्मों के ग्रहण करनेकी क्रियाका रुक जाना ही स्वरूपाचरण है। वही धर्म है, वहो शुद्धोपयोग है और वही चारित्र है ।।२६१॥
__कहा भी है-"निश्चयसे चारित्र ही धर्म है और जो धर्म है उसीको शम कहते हैं।" तात्पर्य यह है कि मोह और क्षोभसे रहित आत्माका परिणाम ही धर्म है ॥२१॥
शंका-जब कि सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र इन तीनोंके मिलनेपर ही मोक्षमार्ग होता है एक-एकके रहनेपर नहीं तब फिर केवल चारित्रको मोक्षमार्ग कहनेसे क्या प्रयोजन है ॥२६२।। समाधान--यह कहना ठीक है तथापि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ये दोनों मिलकर चारित्रमें गर्भित हैं, क्योंकि तीनोंका परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध होनेसे ये तीनों
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