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लाटीसंहिता मोहारातिक्षतेः शुद्धः शुद्धाच्छुद्धतरस्ततः । जीवः शुद्धतमः कश्चिदस्तीत्यात्मप्रभावना ॥३११ नायं स्यात्पौरुषायत्तः किन्तु नूनं स्वभावतः । ऊर्ध्वमूद्ध्वं गुणश्रेणी यतः शुद्धिर्यथोत्तरा ॥३१२ बाह्यप्रभावनाङ्गोऽस्ति विद्यामन्त्रासिभिर्बलैः । तपोदानादिभिजैनधर्मोत्कर्षो विधीयताम् ॥३१३ परषामपकर्षाय मिथ्यात्वोत्कर्षशालिनाम् । चमत्कारकरं किञ्चित्तविधेयं महात्मभिः ॥३१४ उक्तः प्रभावनाङ्गोऽपि गुणः सद्दर्शनस्य वै । येन सम्पूर्णतां याति दर्शनस्य गुणाष्टकम् ॥३१५
इति श्रावकाचारापरनामलाटीसंहितायां अष्टाङ्गसम्यग्दर्शनवर्णनो नाम तृतीयः सर्गः।
मैं दोषकारक नहीं है ॥३१०|| कोई जीव मोहरूपी शत्रुका नाश होनेसे शुद्ध हो जाता है । कोई शुद्धसे शुद्धतर हो जाता है। और कोई शुद्धतम हो जाता है। इस प्रकार अपना उत्कर्ष करना स्वात्मप्रभावना है ॥३११।। यह सब पौरुषाधीन नहीं है किन्तु स्वभावसे ही ऐसा होता है क्योंकि ऊपर ऊपर जैसे गणश्रेणी निर्जरा बढ़ती जाती है तदनुसार आगे आगे उसकी शुद्धि होती है ॥३१२।। विद्या और मन्त्र आदि बलके द्वारा तथा तप और दान आदिके द्वारा जैनधर्मका उत्कर्ष करना बाह्य प्रभावना अंग है ॥३१३।। जो अन्य लोग मिथ्यात्वका उत्कर्ष चाहते हैं उनका अपकर्ष करने के लिए महा पुरुषोंको कुछ ऐसे कार्य करने चाहिए जो चमत्कार पैदा करनेवाले हों ॥३१४॥ इस प्रकार सम्यग्दर्शनका प्रभावना नामका गुण कहा । जिसके कारण सम्यग्दर्शनके आठों गुण पूर्णताको प्राप्त होते हैं ॥३१५।। इन आठ गुणोंके सिवा सम्यग्दृष्टिके और भी बहुतसे गुण हैं । इस प्रकार श्रावकाचार अपर नाम लाटीसंहितामें अष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनका वर्णन करनेवाला
तीसरा सर्ग समाप्त हुआ ॥३।।
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