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श्रावकाचार-संग्रह
उक्तं च
आदहिदं कादव्वं जइ सक्कइ परहिंदं च कादव्वं । आदहिदपरहिदादो आदहिदं सुट्टु कादव्वं ॥२५ उक्तं दिग्मात्रतोऽप्यत्र सुस्थितीकरणं गुणः । निर्जरायां गुणश्रेणौ प्रसिद्धः सुहगात्मनः ||३०० वात्सल्यं नाम दासत्वं सिद्धार्ह बिम्बवेश्मसु । संघे चतुविधे शास्त्रे स्वामिकार्ये सुभृत्यवत् ॥३०१ अर्थादन्यतमस्योच्चैरुद्दिष्टेषु सुदृष्टिमान् । सत्सु घोरोपसर्गेषु तत्परः स्यात्तदत्यये ॥ ३०२ यद्वा न ह्यात्मसामथ्यं यावन्मंत्रासिकोशकम् । तावद्द्रष्टुं च श्रोतुं च तद्वाधां सहते न सः || ३०३ तद्विधाऽथ च वात्सल्यं भेदात्स्वपरगोचरात् । प्रधानं स्वात्मसम्बन्धिगुणो यावत्परात्मनि ॥ ३०४ परोषहोपसर्गाद्यः पीडितस्यापि कस्यचित् । न शैथिल्यं शुभाचारे ज्ञाने ध्याने तदादिमम् ||३०५ इतरत्प्रागिहाख्यातं गुणो दृष्टिमतः स्फुटम् । शुद्धध्यानबलादेव सतो बाधापकर्षणम् ॥३०६ प्रभावनाङ्गसंज्ञोऽस्ति गुणः सद्दर्शनस्य वै । उत्कर्षकरणं नाम लक्षणादपि लक्षितम् ॥३०७ अर्थात्तद्धर्मणः पक्षे नावद्यस्य मनागपि । धर्मपक्षक्षते यस्मादधर्मोत्कर्ष रोषणात् ॥ ३०८ पूर्ववत्सोऽपि द्वैविध्यः स्वान्यात्मभेदतः पुनः । तत्राद्यो वरमादेयः स्यादादेयो परोऽप्यतः ॥ ३०९ उत्कर्षो यद्बलाधिक्यादधिकीकरणं वृषे । असत्सु प्रत्यनीकेषु नालं दोषाय तत्क्वचित् ॥ ३१० दूसरेका अनुग्रह करना चाहिए। किन्तु अपने व्रतको छोड़कर दूसरे जीवोंकी रक्षा करने में तत्पर होना उचित नहीं है ॥ २९९ ॥
कहा भी है- 'सर्वप्रथम आत्महित करना चाहिए। यदि शक्य हो तो परहित भी करना चाहिए | किन्तु आत्महित और परहित इन दोनोंमेंसे आत्महित भले प्रकार करना चाहिये ||२५|| इस प्रकार संक्षेपसे यहाँ पर स्थितीकरण गुण कहा जो कि सम्यग्दृष्टि जीवके गुण श्रेणी निर्जरामें भली प्रकार प्रसिद्ध है ||३००|| जिस प्रकार उत्तम सेवक स्वामीके कार्य में दासभाव रखता है उसी प्रकार सिद्ध प्रतिमा, जिन बिम्ब, जिनमन्दिर, चार प्रकारका संघ और शास्त्र इन सबमें दासभाव रखना वात्सल्य अंग है || ३०१ || अभिप्राय यह है कि पूर्वोक्त सिद्ध प्रतिमा आदिमेंसे किसी एक पर घोर उपसर्ग आने पर वह सम्यग्दृष्टि जीव इसके दूर करनेके लिए सदा तत्पर रहता है || ३०२|| अथवा यदि आत्मीक सामर्थ्य नहीं है तो जब तक मन्त्र, तलवार और धन है तब तक वह उन सिद्ध प्रतिमा आदि पर आई हुई बाधाको न तो देख ही सकता है और न सुन ही सकता है || ३०३ || स्व और परके भेदसे वह वात्सल्य दो प्रकारका है । इनमेंसे अपनी आत्मासे सम्बन्ध रखनेवाला वात्सल्य प्रधान है और अन्य आत्मासे सम्बन्ध रखनेवाला वात्सल्य गौण है || ३०४|| परीषह और उपसगं आदिसे कहीं पर पीड़ित होकर भी शुभाचारमें, ज्ञानमें और ध्यान में शिथिलता न लाना यह पहला स्ववात्सल्य है || ३०५ || दूसरा पर वात्सल्य इस ग्रन्थमें पहले कह आये हैं । वह भी सम्यग्दृष्टिका प्रकट गुण है क्योंकि शुद्ध ज्ञानके बलसे ही बाधा दूर की जा सकती है || ३०६ || सम्यग्दर्शनका एक प्रभावना नामक गुण है । इसका लक्षण उत्कर्ष करना है । इसीसे यह जाना जाता है || ३०७ || हिंसा अतद्धर्म है इसलिये इस पक्षका थोड़ा भी पोषण नहीं करना चाहिए क्योंकि अधर्मके उत्कर्षका पोषण करनेसे धर्म पक्षकी हानि होती है || ३०८|| पहले अंगोंके समान यह अंग भी स्वात्मा और परात्माके भेदसे दो प्रकारका है। उनमेंसे पहला अच्छी तरह से उपादेय है और इसके बाद दूसरा भी उपादेय है ॥ ३०९ ॥ यतः धर्मको हानि पहुँचाने वाले असमीचीन कारणोंके रहने पर अधिक बल लगाकर धर्मकी वृद्धि करना ही उत्कर्ष है अतः ऐसा उत्सगं किसी भी हालत
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