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लाटोसंहिता
न प्रमाणीकृतं वृद्धधर्मायाधर्मसेवनम् । भाविधर्माशया केचिन्मदाः सावद्यवादिनः ॥२८६ परम्परेति पक्षस्य नावकाशोऽत्र लेशतः । मूर्खादन्यत्र को मोहात्शीतार्थी वह्निमाविशेत् ॥ २८७ नैतद्धर्मस्य प्राग्रूपं प्रागधर्मस्य सेवनम् । व्याप्तेरपक्षधर्मत्वाद्धेतोर्वा व्यभिचारतः ॥ २८८ प्रतिसूक्ष्मक्षणं यावद्धेतोः कर्मोदयात्स्वतः । धर्मो वा स्यादधर्मो वाऽप्येष सर्वत्र निश्चयः ॥ २८९ तत्स्थितीकरणं द्वेधा साक्षात्स्वपरभेदतः । स्वात्मनः स्वात्मतत्वेऽर्थात् परतत्वे परस्य तत् ॥ २९० तत्र मोहोदयोद्रेकाच्च्युतस्यात्मस्थितेश्चितः । भूयः संस्थापनं स्वस्य स्थितीकरणमात्मनि ॥२९१ अयं भावः क्वचिद्दैवाद्दर्शनात्स पतत्यधः । व्रजत्यूद्ध्वं पुनर्देवात्सम्यगारुह्य दर्शनम् ॥२९२ अथ क्वचिद्यथाहेतोर्दर्शनादपतन्नपि । भावशुद्धिमधोघोंऽशैर्गच्छत्यूद्ध्वं स रोहति ॥ २९३
चिद्बहिः शुभाचारं स्वीकृतं चाऽपि मुञ्चति । न मुञ्चति कदाचिद्वै मुक्त्वा वा पुनराचरेत् २९४ यद्वा बहिः क्रियाचारे यथावस्थं स्थितेऽपि च । कदाचिद्धीयमानोऽन्तर्भावैर्भूत्वा च वर्तते ॥२९५ नासम्भव मिदं यस्माच्चारित्रावरणोदयः । अस्ति तरतमस्त्रांशैः गच्छन्निम्नोऽन्नतामिह ॥ २९६ अत्राभिप्रेतमेवैतत् स्वस्थितीकरणं स्वतः । न्यायात्कुतश्चिदत्रापि हेतुस्तत्रानवस्थितिः ॥ २९७ सुस्थितीकरणं नाम परेषां सदनुग्रहात् । भ्रष्टानां स्वपदात्तत्र स्थापनं तत्पदे पुनः ॥ २९८ धर्मादेशोपदेशाभ्यां कर्तव्योऽनुग्रहः परे । नात्मवृत्तं विहायाशु तत्परः पररक्षणे ॥ २९९
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आशा सावधका उपदेश देते हैं किन्तु ज्ञानी पुरुषोंने धर्मके लिए अधर्मका सेवन करना प्रमाण नहीं माना है ॥२८६ ॥ 'अधर्मके सेवन करनेसे परम्परा धर्म होता है' इस पक्षको यहाँ थोड़ा भी अवकाश नहीं है, क्योंकि मूर्खको छोड़कर कोई भी प्राणी मोहवश शीतके लिए अग्निमें प्रवेश नहीं करता है ॥२८७॥ पहले अधर्मका सेवन करना यह धर्मका पूर्व रूप नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा माननेपर व्याप्ति पक्षघर्मसे रहित हो जाती है और हेतु व्यभिचारी हो जाता है ॥२८८॥ प्रति समय जबतक कर्मोंका उदय रूप हेतु मौजूद है तब तक स्वतः धर्म भी हो सकता है और भी हो सकता है यह सर्वत्र नियम है ॥ २८९ ॥ | यह प्रत्यक्षसे प्रतीत होता है कि वह स्थितीकरण स्व और परके भेदसे दो प्रकारका है । अपनी आत्माको अपने आत्मतत्त्वमें स्थित करना यह स्वस्थितीकरण है और अन्यकी आत्माको उसके आत्मतत्त्वमें स्थित करना यह परस्थितीकरण है || २९० || मोहके उदयकी तीव्रतावश आत्मस्थिति से डिगे हुए आत्माको फिरसे अपनी आत्मामें स्थित करना स्वस्थितीकरण है || २९१|| आशय यह है कि कभी दैववश वह जीव सम्यग्दर्शनसे नीचे गिर जाता है । और कभी दैववश सम्यग्दर्शनको पाकर ऊपर चढ़ता है || २९२॥ अथवा कभी अनुकूल कारण सामग्रीके मिलने पर सम्यग्दर्शनसे नहीं गिरता हुआ भी भावोंकी शुद्धिको नीचे नीचे अंशोंसे ऊपर ऊपरको बढ़ाता है || २९३|| कभी यह जीव बाह्य शुभाचारको स्वीकार करके भी छोड़ देता है और कदाचित् नहीं भी छोड़ता है । या कदाचित् छोड़कर पुनः ग्रहण कर लेता है ॥२९४॥ अथवा बाह्य क्रियाचारमें अवस्थानुसार स्थित रहता हुआ भी कदाचित् अन्तरंग भावोंसे देदीप्यमान होता हुआ स्थित रहता है ।। २९५|| और यह बात असम्भव भी नहीं है, क्योंकि इसके अपने तरतम रूप अंशोंके कारण हीनाधिक अवस्थाको प्राप्त होनेवाला चारित्र मोहनीयका उदय पाया जाता है ||२९६ || यहाँ इतना ही अभिप्राय है कि स्वस्थितिकरण होता है । इसमें अन्य कारण नहीं है। यदि किसी नीतिवश इसमें किसी अन्य कारणकी कल्पना की जाती है तो अवस्था दोष आता है ||२९७|| अपने पदसे भ्रष्ट हुए अन्य जीवोंको सदनुग्रह भावसे उसी पदमें फिरसे स्थापित कर देना यह परस्थितीकरण है || २९८|| धर्मके आदेश और उपदेश द्वारा ही
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