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साटीसंहिता सिद्धमेतावताऽप्येतन्मिथ्यादृष्टेः क्रियावतः । एकादशाङ्गपाठेऽपि ज्ञानेऽन्यज्ञानमेव तत् ॥२८ न चासचं क्रियामत्रे नानुरागोऽस्य लेशतः। रागस्य हेतुसिद्धत्वाद्विशुद्धस्तत्र सम्भवात् ॥२९ सूत्राद्विशुद्धिस्थानानि सन्ति मिथ्यादृशि क्वचित् । हेतोश्चारित्रमोहस्य रसपाकस्य लाघवात् ॥३० ततो विशुद्धिसंसिद्धेरन्यथानुपपत्तितः । मिथ्यादृष्टे रवश्यं स्यात्सद्वतेष्वनुरागिता ॥३१ ततः क्रियानुरागेण क्रियामात्राच्छुभास्रवात् । सद्वतस्य प्रभावात्स्यादस्य प्रैवेयकं सुखम् ॥३२ . किन्तु कश्चिद्विशेषोऽस्ति जिनदृष्टो यथागमात् । क्रियावानपि येनायमचारित्री प्रमाणितः ॥३३ सम्यग्दृष्टेस्तु तत्सर्वं यथाणुव्रतपञ्चकम् । महावतं तपश्चापि श्रेयसे चामृताय च ॥३४ अस्ति वा द्वादशाङ्गादिपाठस्तज्ज्ञानमित्यपि । सम्यग्ज्ञानं तदेवैकं मोक्षाय च दृगात्मनः ॥३५ एवं सम्यक् परिज्ञाय श्रद्धाय श्रावकोत्तमैः । सम्पदर्थमिहामुत्र कर्तव्यो व्रतसंग्रहः ॥३६ उसका आस्वादन या अनुभव नहीं कर सकता ॥२६-२७। इससे सिद्ध होता है कि अणुव्रत या महाव्रत क्रियाओंको पालन करनेवाले इस मिथ्यादृष्टिका ज्ञान यद्यपि ग्यारह अंक तकका ज्ञान है तथापि शुद्ध आत्माके अनुभवके विना वह ज्ञान अज्ञान ही कहलाता है ॥२८॥ यहाँपर कदाचित कोई यह शंका करे कि मिथ्यादृष्टिके व्रतोंके पालन करने रूप क्रियाओंमें लेशमात्र भी अनराग नहीं होता होगा? सो भी ठीक नहीं है क्योंकि मिथ्यादृष्टिके व्रतोंमें अनुराग होना हेतुपूर्वक सिद्ध हो जाता है तथा व्रतोंमें अनुराग होनेका हेतु उसके आत्मामें विशुद्धिका होना है ॥२९॥ मिथ्यादृष्टि पुरुषके भी आत्माको विशुद्धि होती है इसका कारण यह है कि कभी-कभी मिथ्यादष्टिके भी चारित्रमोहनीय कर्मका उदय मन्द होता है तथा चारित्रमोहनीय कर्मके मन्द उदय होनेसे उस मिथ्यादृष्टिके भी कितने ही विशुद्धिके स्थान हो जाते हैं ऐसा शास्त्रोंमें स्पष्ट उल्लेख मिलता है ॥३०॥ यह नियम है कि वात्माको विशुद्धि मोहनीय कर्मके मन्द उदयसे होती है। मोहनीय कर्मके मन्द उदय हुए विना आत्माकी विशुद्धि कभी नहीं होती। मिथ्यादृष्टिके चारित्रमोहनीय कर्मका मन्द उदय होता है इसलिए उसके आत्मामें विशुद्धि होना अनिवार्य है क्योंकि जहाँ-जहाँ चारित्रमोहनीय कर्मका मन्द उदय होता है वहां-वहाँ विशुद्धि अवश्य होती है और वहाँ-जहाँ आत्माको विशुद्धि होती है वहां-वहां व्रतोंमें अनुराग अवश्य होता है। इस प्रकार मिथ्याष्टि पुरुषके भी चारित्रमोहनीय कर्मका मन्द उदय होता है, मोहनीयकमके मन्द उदय होनेसे आत्माकी विशुद्धि होती है और आत्माको विशुद्धि होनेसे उसके व्रतोंमें अनुराग होता है ॥३१॥ इस प्रकार मिथ्यादृष्टि पुरुषके व्रतरूप क्रियाओंके पालन करनेमें अनुराग हो जाता है । व्रतोंमें अनुराग होनेसे वह क्रियारूप व्रतोंको पालन करता है तथा व्रतरूप क्रियाओंको पालन करनेसे शुभ कर्मोंका आस्रव होता है। इस प्रकार श्रेष्ठ व्रतोंके पालन करनेसे उस मिथ्यादृष्टि पुरुषको भी नव ग्रेवेयकतकके सुख प्राप्त होते हैं ॥३२॥ इतना सब होनेपर भी मिथ्याइष्टिमें कोई ऐसी विशेषता होती है जिसको भगवान् अरहन्तदेव ही देखते हैं अथवा वह विशेषता शास्त्रोंसे जानी जाती है। उस विशेषताके कारण ही महाव्रत आदि व्रतोंको पूर्ण क्रियाओंको पालन करता हुआ भी वह चारित्र-रहित कहलाता है ॥३३॥ किन्तु सम्यग्दृष्टि-पुरुषके उस दर्शनमोहनीय कर्मका अभाव हो जाता है इसलिए उसके पांचों अणुव्रत, पांचों महाव्रत और बारह प्रकारका तप आदि सब आत्माका कल्याण करनेवाला होता है और परम्परासे मोक्ष प्राप्त करनेवाला होता है ॥३४॥ अथवा यों कहना चाहिये कि सम्यग्दृष्टि पुरुषके जो द्वादशांगका पाठ है अथवा उसका ज्ञान है वह सब सम्यग्ज्ञान कहलाता है और वह सम्यग्ज्ञान अकेला ही मोक्षका कारण होता है ।।३५।। इस प्रकार उत्तम श्रावकोंको
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