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लाटीसंहिता निग्रन्थोऽन्तर्बहिर्मोहनन्येरुद्ग्रन्थको यमो। कर्मनिर्जरकः श्रेण्या तपस्वी स तपः शुचिः ॥१९४ परोषहोपसर्गाद्यैरजय्यो जितमन्मथः । एषणाशुद्धिसंशुद्धः प्रत्याख्यानपरायणः ॥१९५ इत्याद्यनेकवाऽनेकैः साधुः साधुगुणैः श्रितः । नमस्यः श्रेयसेऽवश्यं नेतरो विदुषां महान् ।।१९६ एवं मुनित्रयो ख्याता महतो महतामपि । तद्विशुद्धिविशेषोऽस्ति कमात्तरतमात्मकः ॥१९७
तत्राचार्यः प्रसिद्धोऽस्ति दीक्षादेशाद्गुणाग्रणीः ।।
न्यायाद्वा देशनोऽध्यक्षात् सिद्धः स्वात्मन्यतत्परः ॥१९८ अर्थान्नातत्परोऽप्येष दृग्मोहानुदयात्सतः । अस्ति तेनाविनाभूतशुद्धात्मानुभवः स्फुटम् ॥१९९ अप्यस्ति देशतस्तत्र चारित्रावरणक्षतिः । वाक्यार्थात् केवलं न स्यात्क्षतिर्वापि तदक्षतिः ॥२०० तथापि न बहिर्वस्तु स्यात्तद्धेतुरहेतुतः । अस्त्युपादानहेतोश्च तत्क्षतिर्वा तवक्षतिः ॥२०१ सन्ति संज्वलनस्योच्चैः स्पर्द्धकाः देशघातिनः । तद्विपाकोऽस्त्यमन्दो वा मन्दो हेतुः क्रमाद्वयोः २०२ संक्लेशस्तक्षतिनं विशुद्धिस्तु तदक्षतिः । सोऽपि तरतमस्वांशः साऽप्यनेकैरनेकधा ॥२०३ अस्तु यद्वा न शैथिल्यं तत्र हेतुवशादिह । तथाप्येतावताचार्यः सिद्धो नात्मन्यतत्परः ॥२०४ तत्रावश्यं विशुद्धयंशस्तेषां मन्दोदयादिह । संक्लेशांशोऽथवा तीव्रोदयानायं विधिः स्मृतः ॥२०५
दिगम्बर जन्मके समय जैसा रूप होता है वैसे रूपको धारण करनेवाला, दयाशील, निर्ग्रन्थ, अन्तरंग और बहिरंग मोहकी गाँठको खोलनेवाला, व्रतोंको जीवन पर्यन्त पालनेवाला, गुणश्रेणिरूपसे कर्मोको निर्जरा करनेवाला, तपरूपी किरणोंको तपनेसे तपस्वी, परोषह और उपसर्ग आदिसे अजेय, कामको जीतनेवाला, शास्त्रोक्तविधिसे आहार लेने वाला और प्रत्याख्यानमें तत्पर इत्यादि अनेक प्रकारके साधुके योग्य अनेक गणोंको धारण करनेवाला साधु होता है। ऐसा साधु कल्याणके लिये नियमसे नमस्कार करने योग्य है इससे विपरीत कोई यदि विद्वानोंमें श्रेष्ठ भी हो तो वह नमस्कार करने योग्य नहीं है ॥१९३-१९६।।
इस प्रकार यद्यपि श्रेष्ठमें भी श्रेष्ठ इन तीन प्रकारके मुनियोंका व्याख्यान किया तथापि उनमें तरतमरूप कुछ विशेषता पाई जाती है ॥१९७॥ वह इस प्रकार है-उन तीनोंमें जो दीक्षा और आदेश देता है वह गणका अग्रणी आचार्य है। वह अपनी आत्मामें लीन रहता है यह बात युक्ति आगम और अनुभवसे सिद्ध है ॥१९८|| इसके दर्शन मोहनीयका अनुदय होता है इसलिये यह वास्तवमें अपनी आत्मामें अतत्पर नहीं है । किन्तु इसके उससे अविनाभाव सम्बन्ध रखनेवाला शुद्ध आत्माका अनुभव नियमसे पाया जाता है ।।१९९।। दूसरे इसके चारित्र मोहनीयका एक देश क्षय भी पाया जाता है। क्योंकि चारित्रकी हानि और लाभ केवल बाह्य पदार्थके निमित्तसे नहीं होता है ॥२००॥ किन्तु उपादान कारणके बलसे चारित्रकी हानि या उसका लाभ होता है। तब भी अहेतु होनेसे बाह्य वस्तु उसका कारण नहीं है ॥२०१॥ वास्तवमें संज्वलन कषायके जो देशघाति स्पर्धक पाये जाते हैं उनका तीव्र और मन्द उदय ही क्रमसे चारित्रकी क्षति और अक्षतिका कारण है ॥२०२।। संक्लेश नियमसे चारित्रको क्षतिका कारण है और विशुद्धि चारित्रकी हानिका कारण नहीं है और वह संक्लेश तथा विशुद्धि भी अपने तरतमरूप अंशोंकी अपेक्षा अनेक प्रकारको है। और ये तरतमरूप भी अपने अवान्तर भेदोंकी अपेक्षा अनेक प्रकारके हैं ॥२०३।। अथवा कारणवश आचार्यके चारित्रमें कदाचित् शिथिलता भी होवे और कदाचित् न भी होवे तो भी इतने मात्रसे आचार्य अपनी आत्मामें अतत्पर है यह बात सिद्ध नहीं होती ॥२०४॥ उनके देशघाति
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