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लाटीसंहिता
सिद्धो निःकाङ्क्षितो ज्ञानी कुर्वाणोऽप्युदितां क्रियाम् । निष्कामतः कृतं कर्म न रागाय विरागिणाम् ॥९४
नाशक्यं चास्ति निःकाङ्क्षः सामान्योऽपि जनः क्वचित् । हेतोः कुतश्चिदन्यत्र दर्शनातिशयादपि ९५ तो निःकाङ्क्षिता नास्ति न्यायात्सद्दर्शनं विना । नानिच्छास्त्यक्षजे सौख्ये तदत्यक्षमनिच्छतः ॥९६ तदत्यक्ष सुखं मोहान्मिथ्यादृष्टिः स नेष्यति । दृग्मोहस्य तथा पाकशक्तेः सद्भावतोऽनिशम् ॥९७ उक्त निःकाङ्क्षितो भावो गुणौ सद्दर्शनस्य वै ।
अस्तु का नः क्षतिः प्राक् चेत्परोक्षाक्षमता मता ॥९८ अथ निविचिकित्साख्यो गुणः संलक्ष्यते स यः । सद्दर्शनगुणस्योच्चैर्गुणो युक्तिवशादपि ॥९९ आत्मन्यात्मगुणोत्कर्ष बुद्ध्या स्वात्मप्रशंसनात् । परत्राप्यपकर्षेषु बुद्धिविचिकित्सा स्मृता ॥१०० निष्क्रान्तो विचिकित्सायाः प्रोक्तो निर्विचिकित्सकः । गुणः सद्दर्शनस्पोच्चैर्वक्ष्ये तल्लक्षणं यथा १०१ दुर्दैवादुःखिते पुंसि तोव्रासाताघृणास्पदे । यन्नासूयापरं चेतः स्मृतो निर्विचिकित्सकः ॥१०२ नैतत्तन्मनस्यज्ञानमस्म्यहं सम्पदां पदम् । नासावस्मत्समो दीनो वराको विपदां पदम् ॥१०३ प्रत्युत ज्ञानमेवैतत्तत्र कर्मविपाकजाः । प्राणिनः सदृशः सर्वे त्रसस्थावरयोनयः ॥ १०४ यथा द्वावको जात शूद्रकायास्तयोदरात् । शूद्रावभ्रान्तितस्तौ द्वौ कृतो भेदो भ्रमात्मना ॥१०५
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अपेक्षा से होता हो सो बात नहीं है किन्तु वह (क्रिया) अवश्य ही दैवकी अपेक्षासे होता है ||१३|| इससे सिद्ध हुआ कि ज्ञानी पुरुष कर्मोदय जन्य क्रियाको करता हुआ भी कांक्षारहित है, क्योंकि विरागियोंका बिना इच्छाके किया हुआ कार्य रागके लिए नहीं होता ||९४ || यदि कोई ऐसी आशंका करे कि सम्यग्दर्शन रूप अतिशय के बिना भी किसी अन्य कारणसे सामान्य जन भी कहींपर कांक्षारहित हो जाता है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि न्यायसे यह बात सिद्ध है कि सम्यग्दर्शनके बिना निःकांक्षित गुण नहीं हो सकता है। कारण कि जो अतीन्द्रिय सुखको नहीं चाहता उसकी इन्द्रियजन्य सुखमें अनिच्छा नहीं हो सकती ।। ९५-९६ ।। उस अतीन्द्रिय सुखको मोहवश मिथ्याजीव नहीं चाहता, क्योंकि उसके दर्शनमोहनीयकी पाकशक्ति सदैव उसी प्रकार पायी जाती है ||१७|| इस प्रकार निःकांक्षित भावका निर्देश किया जो नियमसे सम्यग्दर्शनका गुण है । यदि यह सम्यग्दर्शन के पहले होता है ऐसा माना जाय तो ऐसा मानने में हमारी क्या हानि है क्योंकि प्रत्येक बात परीक्षा करके ही मानी जाती है ||९८ || अब निर्विचिकित्सा नामका जो गुण है उसका लक्षण कहते हैं । यह युक्ति से भी सम्यग्दर्शनका उत्कृष्ट गुण सिद्ध होता है ||१९|| अपने में अपने गुणों के उत्कर्ष की बुद्धिसे अपनी प्रशंसा करना और दूसरोंके अपकर्षकी बुद्धि रखना विचिकित्सा मानी गयी है || १०० || जो इस प्रकारकी विचिकित्सासे रहित है वह सम्यग्दर्शनका सर्वोत्तम निर्विचिकित्सक नामक गुण कहा गया है। अब इसका लक्षण कहते हैं ॥ १०१ ॥ यथा - जो पुरुष दुर्दैवके कारण दुःखित हो रहा है और तीव्र असाताके कारण जो घृणास्पद है उसके विषय में असूयारूप चित्तका नहीं होना ही निर्विचिकित्सक गुण माना गया है || १०२ || मनमें ऐसा अज्ञान नहीं होना चाहिये कि मैं सम्पत्तियोंका घर हूँ और यह दीन गरीब विपत्तियों का घर है । यह हमारे समान नहीं हो सकता ॥ १०३ ॥ किन्तु इसके विपरीत मनमें ऐसा ज्ञान होना चाहिये कि कर्म विपाकसे जितने भी प्राणी त्रस और स्थावर योनि में हैं वे सब समान हैं ||१०४ || जैसे शूद्रीके उदरसे दो बालक पैदा हुए। वे दोनों वास्तव में शूद्र है । किन्तु
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