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श्रावकाचार-संग्रह अज्ञानी कर्म नोकर्म भावकर्मात्मकं च यत् । मनुतेऽहं सर्वमेवैतन्मोहादद्वैतवादवत् ॥३३ विश्वाद्भिन्नोऽपि विश्वं स्वं कुर्वन्नात्मानमात्महा । भूत्वा विश्वमयो लोके भयं नोज्नति जातुचित् ३४ तात्पर्य सर्वतोऽनित्ये कर्मणां पाक सम्भवात् । नित्यं बुद्ध्वा शरीरादो भ्रान्तो भोतिमुपैति सः ॥३५ सम्यग्दृष्टिः सदैकत्वं स्वं समासादयन्नियत् । यावत्कर्मातिरिक्तत्वाच्छुद्धमभ्येति चिन्मयम् ॥३६ शरीरं सुखदुःखादि पुत्र-पौत्रादिकं तथा । अनित्यं कर्मकार्यत्वादस्वरूपमवैति यः ।।३७
लोकोऽयं मे हि चिल्लोको नूनं नित्योऽस्ति सोऽर्थतः ।
नापरो लौकिको लोकस्ततो भीतिः कुतोऽस्ति मे ॥३८ स्वात्मसञ्चतनादेवं ज्ञानी ज्ञानेकतानतः । इह लोकभयान्मुक्तो मुक्तस्तत्कर्मबन्धनात् ॥३९ परलोकः परत्रात्मा भाविजन्मान्तरांशभाक् । ततः कम्प इव त्रासो भोतिः परलोकतोऽस्ति सा ॥४० भद्रं चेज्जन्म स्वर्लोके मामून्मे जन्म दुर्गतौ । इत्याद्याकुलितं चेतः साध्वसं पारलौकिकम् ॥४१ मिथ्यादृष्टस्तदेवास्ति मिथ्याभावककारणात् । तद्विपक्षस्य सदृष्टेर्नास्ति तत्तत्र व्यत्ययात् ॥४२ बहिर्दृष्टिरनात्मज्ञो मिथ्यामात्रकभूमिकः । स्वं समासादयत्यज्ञः कर्म कर्म फलात्मकम् । ४३ ततो नित्यं भयाक्रान्तो वर्तते भ्रान्तिमानिव । मनुते मृगतृष्णायामम्भोभारं जनः कुधीः ॥४४
भय सम्यग्ज्ञानी या सम्यग्दष्टिको कभी किसी कालमें भी नहीं होता है। इस प्रकारके इस फलरूप हेतुसे या इस कार्य रूप हेतुसे यह बात सहज सिद्ध हो जाती है कि सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिमें बहुत भारी अन्तर है ।।३२।। यतः अज्ञानी जीव कर्म, नोकर्म और भावकर्ममय है अतः वह इस सबको मोहवश अद्वैतवादके समान अपनेसे अभिन्न मानता है ।।३३।। वह आत्मघाती विश्वसे भिन्न होकर भी अपने आत्माको विश्वमय मान बैठा है और इस प्रकार विश्वमय होकर लोकमें कभी भी भयसे मुक्त नहीं हो पाता ॥३४॥ तात्पर्य यह है कि यद्यपि शरीरादि सर्वथा अनित्य हैं तो भी वह मिथ्यात्व कर्मके उदयसे इनमें नित्य बुद्धि रखकर भ्रान्त हो रहा है जिससे वह भयको प्राप्त होता है ॥३५॥ किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव सदा ही अपने आत्मामें एकत्वका अनुभव करता है। वह उसे सब कर्मोंसे भिन्न, शुद्ध और चिन्मय मानता है ॥३६॥ वह शरीर, सुख, दुःख और पुत्र, पौत्र आदिकको अनित्य मानता है और कर्मजन्य होनेसे इन्हें आत्माका स्वरूप नहीं मानता ॥३७॥ वह ऐसा विचार करता है कि यह चैतन्य लोक ही मेरा लोक है । वह वास्तवमें नित्य है। इससे भिन्न अलोकिक लोक नहीं है इसलिये मुझे भय कैसे हो सकता है ॥३८॥ इस प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव अपने आत्माका अनुभव होनेके कारण ज्ञानानन्दमें लीन रहता है। जिससे वह इस लोक सम्बन्धी भयसे सदा मुक्त रहता है और इसके कारणभूत कर्मबन्धनसे भी अपनेको मुक्त अनुभव करता है ॥३९|| आगामी जन्मान्तरको प्राप्त होनेवाले परभव सम्बन्धी आत्माका नाम ही परलोक है। इसके कारण जीवको कम्पके समान दुःख होता है इसलिये ऐसे भयको परलोक भय कहते हैं ॥४०॥ यदि इस लोकमें जन्म हो तो अच्छा है, दुर्गतिमें मेरा जन्म न होवे इत्यादि रूपसे चित्तका आकुलित होना ही परलोक भय है ॥४१॥ मिथ्यादष्टि जीवके ऐसा भय अवश्य पाया जाता है, क्योंकि इसका कारण एकमात्र मिथ्याभाव है। किन्तु इससे विपरीत सम्यग्दृष्टिके यह भय नहीं पाया जाता है क्योंकि इसके मिथ्याभावका अभाव हो गया है ।।४२॥ मिथ्यादृष्टि जीव अपनी आत्माको नहीं पहिचानता है, क्योंकि वह एकमात्र मिथ्याभूमिमें स्थित है। वह मूर्ख अपनी आत्माको कर्म और कर्मफल रूप ही अनुभव करता है ॥४३॥ इसलिये
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