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लाटी संहिता अन्तरात्मा तु निर्भीकः पदं निर्भयमाश्रितः । भोतिहेतोरिहावश्यं मिथ्याभ्रान्तरसम्भवात् ॥४५ मिथ्याभ्रान्तिर्यदन्यत्र दर्शनं चान्यवस्तुनः । कथा रज्जो तमोहेतोः साध्यासावत्यषीः ॥४६ स्वसंवेदनप्रत्यक्ष ज्योतियों वेत्त्यनन्यसात् । स बिभेति कुतो न्यायादन्यथाभवनावपि ॥४७ वेदनागन्तुका बाधा मलानां कोपतस्तनौ । भीतिः प्रागेव कम्पोऽस्या मोहाद्वा परिदेवनम् ॥४८ उल्लाघोऽहं भविष्यामि मामन्मे वेदना क्वचित् । मूच्छंव वेदना भीतिश्चिन्तनं वा मुहुर्मुहुः ॥४९ अस्ति नूनं कुदृष्टेः सा दृष्टिदोषैकहेतुतः । नीरोगस्यात्मनोऽज्ञानान्न स्यात्सा ज्ञानिनां क्वचित् ॥५० पुद्गलाद्भिन्नचिद्धाम्नो न मे व्याधिः कुतो भयम् । व्याधिः सर्वः शरीरस्य नामूर्तस्येति चिन्तनात् ५१ स्पर्शनादीन्द्रियार्थेषु प्रत्युत्पन्नेषु भाविषु । नादरो यस्य सोऽस्त्यर्थानि को वेदनाभयात् ॥५२ व्याधिस्थानेषु तेषच्चै सिद्धो नादरो मनाक । बाधाहेतोः स्वतस्तेषामामयस्याविशेषतः ॥५३ अत्राणं क्षणिकैकान्ते पक्षे चित्तक्षणादिवत् । नाशात्प्रागंशनाशस्य त्रातुमक्षमतात्मनः ॥५४ भीतिः प्रागंशनाशात्स्यादशिनाशभ्रमोऽन्वयात् । मिथ्यामात्रैकहेतुत्वान्नूनं मिथ्याशोऽस्ति सा ॥५५ शरणं पर्ययस्यास्तङ्गतस्यापि सदन्वयम् । तमनिच्छन्निवाज्ञः स त्रस्तोऽस्त्यत्राणसाध्वसात् ॥५६ भ्रमिष्ठ पुरुषके समान वह निरन्तर ही भयाक्रान्त रहता है । ठीक ही है क्योंकि अज्ञानी जीव मृगतृष्णामें ही जल समझ बैठता है ॥४४॥ किन्तु जो अन्तरात्मा है वह निर्भय पदको प्राप्त होनेके कारण सदा ही निर्भीक है, क्योंकि भयकी कारणभूत भ्रान्ति इसके नियमसे पायी जाती है ॥४५॥ जो अन्य पदार्थमें किसी अन्य पदार्थका ज्ञान होता है वह मिथ्या भ्रान्ति कहलाती है। जैसे कि अज्ञानी जीव अन्धकारके कारण रस्सीमें सर्पका निश्चय हो जानेसे डरकर भागता है वैसे ही मिथ्यादृष्टि भी मिथ्यात्वके कारण कर्म और कर्मफलमें आत्माका निश्चय कर लेनेसे डरता रहता है ।।४६।। किन्तु जो स्वसंवेदन प्रत्यक्ष रूपी ज्योतिको अपनेसे अभिन्न जानता है वह कैसे डर सकता है, क्योंकि उसे ज्ञात रहता है कि कोई भी कार्य अन्यथा नहीं हो सकता है ॥४७॥
शरीरमें वातादि मलोंके कुपित होनेसे जो बाधा उत्पन्न होती है वह वेदना कहलाती है। इस वेदनाके पहले ही शरीरमें कम्प होने लगता है अथवा मोहवश यह जीव विलाप करने लगता है इसीका नाम वेदना भय है ॥४८॥ में नोरोग हो जाऊँ, मुझे वेदना कभी भी न हो इस प्रकारकी मूर्छाका होना या इस प्रकार बारबार चिन्तवन करना ही वेदना भय है ।।४९।। वह वेदना भय मिथ्यादर्शनके कारण नीरोग आत्माका ज्ञान न होनेसे मिथ्यादृष्टि जीवके नियमसे होता है। किन्तु ज्ञानी जीवके वह कभी भी नहीं पाया जाता ॥५०॥ ज्ञानी जीव विचार करता है कि आत्मा चैतन्यमात्रका स्थान है जो पुद्गलसे भिन्न है इसलिये जब कि मुझे व्याधि ही नहीं तब भय कैसे हो सकता है। जितनी भी व्याधियाँ हैं वे सब शरीरमें ही होती हैं अमूर्त आत्मामें नहीं ॥५१॥ जिसका स्पर्शन आदि इन्द्रियोंके वर्तमानकालीन और भविष्यत्कालीन विषयोंमें आदर नहीं है वही वास्तवमें वेदनाभयसे निर्भीक है ॥५२॥ सम्यग्दृष्टि जीवके व्याधियोंके आधारभूत इन इन्द्रियोंके विषयोंमें अत्यन्त अनादर भावका पाया जाना असिद्ध नहीं है, क्योंकि वे स्वयं बाधाकी कारण हैं इसलिये उनमें रोगसे कोई भेद नहीं ॥५३॥ जिस प्रकार क्षणिक एकान्त पक्षमें चित्तक्षण आदिकी रक्षा नहीं की जा सकती उसी प्रकार नाशसे पूर्व ही अंशीके नामकी रक्षा करने में अपनी असमर्थता मानना अत्राणभय है ॥५४॥ पर्यायके नष्ट होनेके पहले ही अन्वयरूपसे अंशीके नाशका होना अत्राण भय है। इसका कारण मिथ्याभाव है इसलिये यह मिथ्यादृष्टिके नियमसे होता है ॥५५॥ यद्यपि पर्याय निरन्तर नष्ट होती रहती है तथापि अन्वयरूपसे एक सत् ही शरणभूत है। किन्तु
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