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लाटीसंहिता
ऋते सम्यक्त्वभावं यो धत्ते व्रततपःक्रियाम् । तस्य मिथ्यागुणस्थानमेकं स्यादागमे स्मृतम् ॥१२४ प्रकृतोऽपि नरो नैव मुच्यते कर्मबन्धनात् । स एव मुच्यतेऽवश्यं यदा सम्यक्त्वमश्नुते ॥१२५ किञ्च प्रोक्ता क्रियाऽप्येषा दर्शनप्रतिमात्मिका । सम्यक्त्वेन युता चेत्सा तद्गुणस्थानतिना ॥१२६ तत्राप्यस्ति विशेषोऽयं तुर्यपञ्चमयोदयोः । योगाद्वा रूढितश्चापि गुणस्थानविशेषयोः ॥१२७ सैवैका क्रिया साक्षादष्टमूलगुणात्मिका । व्यसनाद्युज्झिता चापि दर्शनेन समन्विता ॥१२८ एवमेव च सा चेत्स्यात्कुलाचारक्रमात्परम् । विना नियमादि तावत्प्रोच्यते सा कुलक्रिया ॥१२९ भावशन्याः क्रिया यस्मान्नेष्टसिद्धय भवन्ति हि । क्रियामात्रफलं चास्ति स्वल्पभोगानुषङ्गाजम् ॥१३० दर्शनप्रतिमा नास्य गुणस्थानं न पञ्चमम् । केवलं पाक्षिकः सः स्याद्गुणस्थानादसंयतः ॥१३१ किञ्च सोऽपि क्रियामात्रात्कुलाचारक्रमागतात् । स्वर्गादिसम्पदो भुक्त्वा क्रमाद्याति शिवालयम् १३२
शास्त्रोंमें लिखा है कि विना सम्यग्दर्शनके जो व्रत या तपश्चरणकी क्रियाओंको धारण करता है उसके सदा पहला मिथ्यात्वगुण स्थान ही रहता है ।।१२४।। विना सम्यग्दर्शनके कैसा ही विद्वान् पुरुष क्यों न हो कर्मबन्धनसे कभी छूट नहीं सकता तथा वही मनुष्य जब सम्यग्दर्शन धारण कर लेता है तब फिर वह उन कर्मबन्धनोंसे अवश्य छूट जाता है ॥१२५।। ऊपर जो यह दर्शन प्रतिमारूप क्रिया बतलायी है वह यदि उन गुणस्थानोंमें होनेवाले सम्यग्दर्शनके साथ हो तब तो वह दर्शनप्रतिमा कहलाती है अन्यथा नहीं ॥१२६।। उसमें भी इतना विशेष है कि सम्यग्दर्शनके साथ-साथ आठ मूलगुणोंका साक्षात् धारण करनेरूप क्रिया तथा सातों व्यसनोंके त्याग करनेरूप क्रिया योगसे तथा रूढ़िसे चौथे पाँचवें दोनों विशेष गुणस्थानोंमें एक-सी ही होती है। भावार्थ-चौथे गुणस्थानमें सम्यग्दर्शन भी होता है और आठ मूलगुणोंका पालन तथा सातों व्यसनोंका त्याग भी होता है । पाँचवें गुणस्थानमें भी ये सब क्रियायें होती हैं। इस प्रकार चौथे पाँचवें दोनों गुणस्थानोंमें ये ऊपर लिखी क्रियायें एक-सी होती हैं तथापि उनमें नीचे लिखे अनुसार अन्तर है ॥१२७-१२८॥ यदि ये ऊपर लिखी क्रियाएँ विना किसी नियमके यों ही कुलपरम्परासे चली आयी हों तो उनको व्रत नहीं कहते किन्तु कुलक्रिया कहते हैं । भावार्थ-व्रत तभी कहलाता है जब कि नियमपूर्वक धारण किया जाता है। मद्यमांसादिकका या व्यसनोंका नियमपूर्वक त्याग किये विना कुलाचार कहलाता है व्रत नहीं कहलाता ॥१२९।। इसका भी कारण यह है कि विना भावोंके को हुई किसी भी क्रियासे अपने इष्टपदार्थोकी सिद्धि नहीं होती है। ऐसे विना भावोंके जो क्रियाएं की जाती हैं उनका फल केवल क्रिया करने मात्रका होता है जैसे थोड़ी-सी भोगोपभोगकी सामग्रीका मिल जाना आदि । इसके सिवाय और कुछ फल नहीं मिलता तथा जो त्याग भावपूर्वक किया जाता है उसका फल स्वर्ग मोक्ष मिलता है ॥१३०॥ इस प्रकार जो मनुष्य मद्य, मांस, मधु, पाँचों उदुम्बर तथा व्यसनोंका सेवन नहीं करता, परन्तु उनके सेवन न करनेका नियम भी नहीं लेता, इन ऊपर लिखे पापोंको भावपूर्वक त्याग नहीं करता उसके न तो दर्शनप्रतिमा होती है और न पाँचवाँ गुणस्थान ही होता है। उसको केवल पाक्षिक श्रावक कहते हैं और उसके असंयत नामका चौथा गुणस्थान होता है ।।१३१।। इस प्रकार सम्यग्दर्शनको धारण करनेवाला पुरुष भी कुलक्रमसे चली आयी परिपाटीके अनुसार जो क्रियाएँ पालन करता है वह भी स्वर्गादिककी सम्पदाओंको भोगकर अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त करता है
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