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लाटी संहिता
अस्ति तत्रापि सम्यक्त्वमाहात्म्यं महतां महत् । यदस्य जगतो ज्ञानमस्त्यास्तिक्यपुरस्सरम् ॥११ नासम्भवमिदं यस्मात्स्वभावोऽतर्क गोचरः । अतिशयोऽतिवागस्ति योगिनां योगिशक्तिवत् ॥१२ अस्ति चात्मपरिच्छेदि ज्ञानं सम्यग्दृगात्मनः । स्वसंवेदन प्रत्यक्षं शुद्धं सिद्धास्पदोपमम् ||१३ यत्रानुभूयमानोऽपि सर्वेराबालमात्मनि । मिथ्याकर्मविपाकाद्वै नानुभूतिः शरीरिणाम् ॥१४ सम्यग्दृष्टः कुदृष्टश्व स्वादुभेदोऽस्ति वस्तुनि । न तत्र वास्तवो भेदो वस्तुसोम्नोऽनतिक्रमात् ॥१५ अत्र तात्पर्यमेवैतत्तवैकत्वेऽपि यो भ्रमः । शङ्कायाः सोऽस्त्यपराधो सास्ति मिथ्योपजीविनी ॥१६ ननु शङ्काकृतो दोषो यो मिथ्यानुभवो नृणाम् । शङ्कापि कुतो न्यायादस्ति मिथ्योपजीविनी ॥१७ अत्रोत्तरं कुदृष्टिर्यः स सप्तभिर्भयैर्युतः । नापि स्पृष्टः सुदृष्टिर्यः सप्तभिः स भयैर्मनाक् ॥ १८
भावार्थ —–शंकाकार कहता है कि जब सूक्ष्मादिक पदार्थों का इन्द्रियोंके साथ सम्बन्ध ही नहीं होता तो फिर उनका ज्ञान जैसा मिथ्यादृष्टिको होता है वैसा ही सम्यग्दृष्टिको होना चाहिये। जिस प्रकार इन सूक्ष्मादिक पदार्थोंके ज्ञान में मिध्यादृष्टिको सन्देह रहता है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टिको भो सन्देह रहना चाहिये परन्तु शंकाकारकी यह शंका ठीक नहीं है ||१०|| क्योंकि परोक्ष पदार्थोंके जाननेमें महापुरुषोंके सम्यग्दर्शनका ऐसा ही कुछ बड़ा भारी माहात्म्य रहता है जिससे कि उनके संसार भरका ज्ञान आस्तिक्य गोचर होता है । भावार्थ - सम्यग्दर्शनका एक आस्तिक्य गुण है जिससे यह सम्यग्दृष्टि जीव भगवान् सर्वज्ञदेवके कहे हुए सूक्ष्मादिक समस्त पदार्थोंका ज्योंके त्यों सत्तारूपसे श्रद्धान करता है तथा उसी आस्तिक्य गुणके कारण उन सूक्ष्मादिक पदार्थोंको अस्तिरूप समझता है । मिथ्यादृष्टि पुरुषके वह आस्तिक्य गुण होता नहीं इसलिये मिथ्यादृष्टिको उन पदार्थों का ज्ञान सन्देहरहित नहीं होता तथा आस्तिक्य गुण होनेके कारण सम्यग्दृष्टिको उन पदार्थों का ज्ञान सन्देहरहित होता है ॥ ११ ॥ " आस्तिक्यगुणके कारण सम्यग्दृष्टिको समस्त संसारके पदार्थों का ज्ञान सन्देहरहित हो जाता है" यह बात असम्भव नहीं है क्योंकि सम्यग्दृष्टिका स्वभाव ही ऐसा होता है। जो जिसका जैसा स्वभाव होता है उसमें किसी भी प्रकारका तर्कवितर्क नहीं हो सकता । सम्यग्दृष्टिका यह अतिशय वचनोंके अगोचर होता है । जैसे योगियोंकी योग शक्ति वचनोंके अगोचर होती है ||१२|| सम्यग्दृष्टिका ज्ञान आत्माके शुद्ध स्वरूपको जाननेवाला ज्ञान है । वह ज्ञान शुद्ध है, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है और सिद्धोंके समान है || १३|| यह अपने शुद्ध आत्माका अनुभव बालकोंसे लेकर वृद्धोंतक समस्त आत्माओं में होता है ||१४|| इसमें भी इतना और समझ लेना चाहिये कि मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि को केवल पदार्थोंके अनुभवसें, स्वाद लेनेमें अन्तर पड़ता है । उन आत्माओं में कोई किसी प्रकारका वास्तविकं भेद नहीं है तथा पदार्थों की जो सीमायें हैं, मर्यादाएँ हैं उनका उल्लंघन कभी नहीं होता है || १५ || इस सबके कहने का अभिप्राय यही है कि यद्यपि जाननेवाला आत्मतत्त्व भी समान है । जैसा मिथ्यादृष्टिका है वैसा ही सम्यग्दृष्टिका है तथा जानने योग्य पदार्थ भी दोनोंके एक ही हैं, भिन्न-भिन्न नहीं हैं तथापि मिथ्यादृष्टिको जो पदार्थोंमें भ्रम होता है वह केवल उसको शंकाका अपराध है । तथा वह शंका उसके मिथ्यात्वकर्मके उदय होने के कारण होती है ॥ १६ ॥ | यहाँपर शंकाकार फिर कहता है कि मनुष्यों को अपने आत्माका मिथ्या या विपरीत अनुभव होता है वह शंकासे होता है यह बात तो ठीक है परन्तु वह शंका मिथ्यात्वकर्मके उदयसे ही होती है यह बात किस प्रकार सिद्ध हो सकती है ? ||१७||
इस शंकाका समाधान यह है कि वह शंका मिध्यात्व कर्मके उदयसे ही होती है अतः
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