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तृतीय सर्ग
ननु तद्दर्शनस्यैतल्लक्षणं स्यादशेषतः । किमथास्त्यपरं किञ्चिल्लक्षणं तद्वदाद्य नः ॥ १ सम्यग्दर्शनमष्टाङ्गमस्ति सिद्धं जगत्त्रये । लक्षणं च गुणश्चाङ्ग शब्दाचं कार्य बाचकाः ॥२ निःशङ्कितं तथा नाम निःकाङ्क्षितमतः परम् । विचिकित्सावर्जं चापि यथादृरमूढता ॥३ उपबृंहणनामाथ सुस्थितीकरणं तथा । वात्सल्यं च यथाम्नायाद्गुणोऽप्यस्ति प्रभावना ॥४ शङ्का भीः साध्वसं भीतिर्भयमेकाभिघा अमी ।
तस्या निष्क्रान्तितो जातो भावो निःशङ्कितोऽर्थतः ॥५
अर्थवशादत्र सूत्रार्थे शङ्का न स्यान्मनीषिणाम् । सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः सन्ति चास्तिक्यगोचराः ॥६ तत्र धर्मादयः सूक्ष्माः सूक्ष्मा: कालाणवोऽणवः । अस्ति सूक्ष्मत्वमेतेषां लिङ्गस्याक्षैरदर्शनात् ॥७ अन्तरिता यथा द्वीपसरिन्नाथनगाधिपाः । दूरार्था भाविनोऽतीता रामरावणचक्रिणः ॥८ न स्यान्मिथ्यादृशो ज्ञानमेतेषां क्वाप्यसंशयम् । संशयादथ हेतोर्वे दृग्मोहस्योदयात्सतः ॥९ न चाऽऽशङ्कयं परोक्षास्ते सदृष्टेर्गोचराः कुतः । तैः सह सन्निकर्षस्य साक्षिकस्याप्यसम्भवात् ॥१०
शंकाकार कहता है कि क्या सम्यग्दर्शनका सम्पूर्ण लक्षण इतना ही है अथवा कुछ और भी है । यदि इसके सिवाय और भी कोई लक्षण है तो उसे आज कहिये ||१|| तीनों लोकों में सम्यग्दर्शनके आठ अंग प्रसिद्ध हैं तथा लक्षण, गुण, अंग आदि सब शब्द एक ही अर्थको कहनेवाले हैं ||२|| निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यग्दर्शनके आठ अंग शास्त्रोंकी परम्परापूर्वक अनादिकाल से चले आ रहे हैं ॥३-४॥ शंका, भी, साध्वस, भीति और भय ये शब्द एक ही अर्थको कहनेवाले हैं । जो आत्माके भाव इन शब्दोंके द्वारा कही जानेवाली शंकासे रहित हैं उसीको निःशंकित अंग कहते हैं ||५|| इसका भी अभिप्राय यह है कि बुद्धिमानोंको अपने किसी भी प्रयोजनसे किसी भी सूत्रके अर्थ में किसी भी पदार्थके स्वरूपमें शंका नहीं करनी चाहिये । संसार में जो पदार्थ सूक्ष्म हैं, इन्द्रियगोचर नहीं हैं, जो अन्तरित हैं अर्थात् जिनके मध्य में अनेक नदी पर्वत क्षेत्र द्वीप समुद्र आदि पड़ गये हैं अथवा जो दूरार्थ हैं अर्थात् जो सैकड़ों हजारों वर्षं पहले हो चुके हैं ऐसे समस्त पदार्थों पर गाढ विश्वास होना चाहिए। ये सब पदार्थ पहले कहे हुए आस्तिक्य गुणके गोचर होने चाहिए || ६ || धर्म-अधर्म आकाश आदि सब सूक्ष्म पदार्थ हैं, कालाणु भी सब सूक्ष्म हैं और पुद्गलके परमाणु भी सब सूक्ष्म हैं । ये सब पदार्थ इन्द्रियगोचर नहीं होते और न इनका कोई यथेष्ट हेतु दिखाई पड़ता है इसीलिये ये सूक्ष्म कहलाते हैं ||७|| नंदीश्वरादिक द्वीप क्षीरसागर आदि सागर, मेरु आदि पर्वत अन्तरि कहलाते हैं । इसी प्रकार राम, रावण, चक्रवर्ती, तीर्थंकर आदि जो पहले हो चुके हैं उनको दूरार्थ कहते हैं ||८|| इस प्रकारके सूक्ष्म अन्तरित और दूरार्थ पदार्थोंका ज्ञान मिथ्यादृष्टियोंको कभी भी सन्देह रहित नहीं होता, क्योंकि दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे उस मिथ्यादृष्टि के सदा सन्देह बना रहता है ||९|| कदाचित् यहाँपर कोई यह शंका करे कि सूक्ष्म अन्तरित और दूरार्थं ये सब परोक्ष पदार्थ हैं फिर भला वे सम्यग्दृष्टिके ज्ञानगोचर किस प्रकार हो जायेंगे क्योंकि उन सूक्ष्मादिक पदार्थों का इन्द्रियोंके साथ सम्बन्ध होना तो असम्भव ही है ।
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