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श्रावकाचार-संग्रह श्रद्धानाविगुणाः बाह्यं लक्ष्म सम्यग्दृगात्मनः । न सम्यक्त्वं तदेवेति सन्ति ज्ञानस्य पर्ययाः ॥४१ अपि चात्मानुभूतिश्च ज्ञानं ज्ञानस्य पर्ययात् । अर्थाद् ज्ञानं न सम्यक्त्वमस्ति चेद्बाह्यलक्षणम् ॥४२ यथोल्लाघो हि दुर्लक्ष्यो लक्ष्यते स्थूललक्षणैः । वाग्मनःकायचेष्टाणामुत्साहादिगुणात्मकैः ।।४३ नन्वात्मानुभवः साक्षात्सम्यक्त्वं वस्तुतः स्वयम् । सर्वतः सर्वकालस्य मिथ्यादृष्टेरसम्भवात् ॥४४ नैवं यतोऽनभिज्ञोऽसि सत्सामान्य विशेषयोः । अप्यनाकारसाकारलिङ्गयोस्तद्यथोच्यते ।।४५ आकारोऽर्थविकल्पः स्यादर्थः स्वपरगोचरः । सोपयोगो विकल्पो वा ज्ञानस्यैतद्धि लक्षणम् ॥४६ नाकारः स्यादनाकारो वस्तुतो निर्विकल्पता । शेषानन्तगुणानां तल्लक्षणं ज्ञानमन्तरा ॥४७ नन्वस्ति वास्तवं सर्व सामान्यं च विशेषवत् । तत्किञ्चित्स्यादनाकारं किञ्चित्साकारमेव तत् ॥४८ सत्यं सामान्यवद्ज्ञानमर्थाच्चास्ति विशेषवत् । यत्सामान्यमनाकारं साकारं यद्विशेषभाक ॥४९ ज्ञानाद्विना गुणाः सर्वे प्रोक्तसल्लक्षणाङ्किताः । सामान्याद्वा विशेषाद्वा सन्त्यनाकारलक्षणाः ॥५० ततो वक्तुमशक्यत्वान्निविकल्पस्य वस्तुनः । तदुल्लेखं समालेख्य ज्ञानद्वारा निरूप्यते ॥५१ स्वापूर्वार्थद्वयोरेव ग्राहकं ज्ञानमेकशः । नात्र ज्ञानमपूर्वार्थो ज्ञानं ज्ञानं परः परः ॥५२ चित्त संसार और संसारके कारणोंसे स्वभावत: हट जाता है। यों तो सम्यक्त्वकी उत्पत्तिकी प्रक्रियाके विषयमें बहुत कुछ वक्तव्य है पर यहाँ संक्षेपमें उसका संकेतमात्र किया है। सम्यग्दृष्टि आत्माके यद्यपि श्रद्धान आदि गुण होते हैं पर वे उसके बाह्य लक्षण हैं। सम्यक्त्व उन रूप नहीं है, क्योंकि वे ज्ञानकी पर्याय हैं ।।४१।। तथा आत्मानुभूति भी ज्ञान ही है, क्योंकि वह ज्ञानकी पर्याय है। वास्तवमें वह आत्मानुभूति ज्ञान ही है सम्यक्त्व नहीं । यदि उसे सम्यक्त्व माना भी जाय तो वह उसका बाह्य लक्षण है ॥४२॥ आशय यह है कि जिस प्रकार स्वास्थ्य लाभ जन्य हर्षका ज्ञान करना कठिन है परन्तु वचन, मन और शरीरकी चेष्टाओंके उत्साह आदि गुणरूप स्थूल लक्षणोंसे उसका ज्ञान कर लिया जाता है उसी प्रकार अतिसूक्ष्म और निर्विकल्प सम्यग्दर्शनका ज्ञान करना कठिन है तो भी श्रद्धान आदि बाह्य लक्षणोंके द्वारा उसका ज्ञान कर लिया जाता है ॥४३।। शंकावास्तवमें आत्मानुभव ही साक्षात् सम्यक्त्व है, क्योंकि मिथ्यादृष्टिके इसका कभी भी पाया जाना असम्भव है॥४४॥ समाधान-ऐसा नहीं है. क्योंकि सत्सामान्य और सद्विशेषका तथा अनाकार और साकारके चिह्नोंका तुम्हें कुछ ज्ञान ही नहीं है। जो इस प्रकार है-ज्ञानमें अर्थका विकल्प होना आकार कहलाता है और अर्थ स्व-परके भेदसे दो प्रकार है। अथवा सोप
गोपयोग अवस्थाका होना ही विकल्प है जो कि ज्ञानका लक्षण है ।।४५-४६|| आकारका नहीं होना ही अनाकार है। उसीका नाम वास्तवमें निर्विकल्पता है। यह निर्विकल्पता ज्ञानके सिवाय शेष अनन्त गुणोंका लक्षण है ॥४७॥ शंका-जब कि सत्सामान्य और सद्विशेष यह सब वास्तविक है तब फिर कुछ अनाकार है और कुछ साकार है ऐसा क्यों ॥४८॥ समाधान-यह कहना ठीक है तथापि ज्ञान वास्तव में सामान्य और विशेष दोनों प्रकारका होता है। उनमेंसे जो सामान्य ज्ञान है वह अनाकार होता है और जो विशेष ज्ञान है वह साकार होता है। तथा ज्ञानके सिवाय सत् लक्षण वाले सामान्य या विशेष रूप और जितने भी गुण कहे गये हैं वे सब वास्तवमें अनाकार ही होते हैं ।।४९-५०॥ इसलिये निर्विकल्प वस्तुका कथन करना शक्य नहीं होनेसे जहाँ भी उसका उल्लेख किया जाता है वह ज्ञान द्वारा ही किया जाता है ।।५१॥
__ यद्यपि स्व और अपूर्व दोनों प्रकारके पदार्थोंको ज्ञान युगपत् ग्रहण करता है तथापि ज्ञान अपूर्वार्थ नहीं हो सकता है। किन्तु ज्ञान ज्ञान है और पर पर है ।।५२।। यतः चित् शक्ति ज्ञानमात्र
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