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श्रावकाचार-संग्रह
अनुकम्पा कृपा ज्ञेया सर्वसत्त्वेष्वनुग्रहः । मैत्रभावोऽथ माध्यस्थ्यं निःशल्यं वैरवर्जनात् ॥८९ दृग्मोहानुक्यस्तत्र हेतुर्वाच्योऽस्ति केवलम् । मिथ्याज्ञानं विना न स्याद्वैरभावः क्वचिद्यथा ।।९० मिथ्या यत्परतः स्वस्य स्वस्माद्वा परजन्मिनाम् । इच्छेत्तत्सुखदुःखादि मृत्यु जीवितं मनाक ॥९१ अस्ति यस्यैतदज्ञानं मिथ्यादृष्टि: सः शल्यवान् । अज्ञानाद्धन्तुकामोऽपि क्षमो हन्तुं न चापरम् ॥९२ समता सर्वभूतेषु यानुकम्पा परत्र सा । अर्थतः स्वानुकम्पा स्याच्छल्यवच्छल्यवर्जनात् ॥९३ रागाद्यशुद्धभावानां सद्भावे बन्ध एव हि । न बन्धस्तदसद्भावे तद्विधेया कृपात्मनि ॥९४ आस्तिक्यं सस्वसद्धावे स्वतः सिद्धे गतिश्चितः । धर्मे हेतौ च धर्मस्य फले चात्मादि धर्मवित् ॥९५ अस्त्यात्मा जीवसंज्ञो यः स्वतःसिद्धोऽप्यमूर्तिमान् । चेतनः स्यादजीवस्तु यावानप्यस्त्यचेतनः ॥९६ अस्त्यात्माऽनादितो बद्धः कर्मभिः कार्मणात्मकैः । कर्ता भोक्ता च तेषां हि तत्क्षयान्मोक्षभाग्भवेत् ॥९७ अस्ति पुण्यं च पापं च तद्धेतुस्तत्फलं च वै । आस्रवाद्यास्तथा सन्ति तस्य संसारिणोऽनिशम् ॥२८ अस्त्येव पर्ययादेशाद् बन्धो मोक्षस्तु तत्फलम् । अपि शुद्धनयादेशात् शुद्धः सर्वोऽपि सर्वदा ॥९९ तत्रायं जीवसंज्ञो यः स्वयंवेद्यश्चिदात्मकः । सोऽहमन्ये तु रागाद्याः हेयाः पौद्गलिका अमी ॥१०० इत्याद्यनादिजीवादि वस्तुजातं यतोऽखिलम् । निश्चयव्यवहाराभ्यामास्तिक्यं तत्तथामतिः ॥१०१
वास्तव में अधर्म हो है ॥४७॥ मिथ्यादृष्टि जीव निरन्तर रागी होता है वह रागरहित कभी भी नहीं हो सकता और सम्यग्दृष्टि जीव निरन्तर रागरहित होता है अथवा उसके सदा काल राग नहीं पाया जाता ||८८।। अनुकम्पाका अर्थ कृपा है। या सब जीवोंका अनुग्रह करना अनुकम्पा है । या मैत्री भावका नाम अनुकम्पा है । या मध्यस्थ भावका रखना अनुकम्पा है । या शत्रुताका त्याग कर देनेसे शल्यरहित हो जाना अनुकम्पा है ।।८९।। इसका कारण केवल दर्शन मोहनीयका अनुदय है, क्योंकि मिथ्या ज्ञानके बिना किसी जीवमें वैर भाव नहीं होता है ।।९०॥ परके निमित्तसे अपने लिए या अपने निमित्तसे अन्य प्राणियोंके लिए थोड़े ही सुख, दुःखादि या मरण और जीवनकी चाह करना मिथ्या ज्ञान है ॥९॥ और जिसके यह अज्ञान होता है वही मिथ्यादृष्टि है और वह शल्यवाला है। वह अज्ञान वश दूसरेको मारना चाहता है पर मार नहीं सकता ।।९२।। सब प्राणियोंमें जो समभाव धारण किया जाता है वह परानुकम्पा है और काँटेके समान शल्यका त्याग कर देना वास्तवमें स्वानुकम्पा है ॥९३॥ रागादि अशुद्ध भावोंके सद्भावमें बन्ध ही होता है और उनके अभावमें बन्ध नहीं होता, इसलिए अपने ऊपर ऐसो कृपा करनी चाहिए जिससे रागादि भाव न हों ।।९४|| स्वतः सिद्ध तत्त्वोंके सद्भावमें निश्चय भाव रखना तथा धर्म, धमके हेतु और धर्मके फलमें आत्माकी अस्ति आदि रूप बुद्धिका होना आस्तिक्य है ॥९५।। जो स्वतः सिद्ध है, अमूर्त है और चेतन है वह आत्मा है। इसका दूसरा नाम जीव है तथा इसके सिवाय जितना भी अचेतन पदार्थ है वह सब अजीव है ।।९६।। आत्मा अनादि कालसे कार्मण वर्गणा रूप कर्मोसे बंधा हुआ है । और अपनेको उन्हींका कर्ता व भोक्ता मान रहा है। जब इनका क्षय कर देता है तब मुक्त हो जाता है ॥९७|| उस संसारी जीवके पुण्य, पाप, इनका कारण, इनका फल और आस्रव आदि सदैव बने रहते हैं ॥९८|| इस प्रकार पर्यायार्थिक नयको अपेक्षा बन्ध भी है, मोक्ष भी है और उनका फल भी है। किन्तु शुद्ध नयको अपेक्षा सभी जीव सदा शुद्ध हैं ।।९।। उनमें एक जीव हो ऐसा है जो स्वसंवेद्य, चिदात्मक और 'सोऽहम्' प्रत्ययवेद्य होनेसे उपादेय है। बाकी जितने भी रागादिक भाव हैं वे सब हेय हैं, क्योंकि वे पौद्गलिक हैं ॥१००। इस प्रकार अनादि कालसे चला
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