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पल्लव और कादम्ब राजवंश
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जैनग्रन्ध 'चूलामणि' को तोळमोलि देवरने राजा सेन्दन (६५० ई० ) के राज्यकालमें उनके पिता राजा मारवर्मन् भवेनी चूलमनिकी स्मृतिमें रचा था। सालेम जिलेके धर्मपुरी नामक स्थानवाले लेखसे (नं० ३०७) प्रकट है कि राजा महेन्द्रवर्मनके समयमें श्री मंगलसेठीके पुत्र निधिपन्ना मौर चंदिपन्नाने तगदूरमें एक जिनालय बनवाया था। निधिपनाने राजा महेन्द्रसे मूलशल्ली प्राम लेकर श्री विनयसेनाचार्यके शिष्य श्री कनकसेनजीको मंदिर जीर्णोद्धारके लिये अर्पण किया था। राजा महेन्द्रवर्मन् स्वयं जैनधर्मानुयायी था। किन्तु शैव योगी अप्परने महेन्द्रको शैवमतमें दीक्षित कर लिया था।
शैव होने पर महेन्द्रवर्मन्ने दक्षिण अर्काट जिलेके पाटलिपुत्रिम् नामक स्थान के प्रसिद्ध जैनमठको नष्टभ्रष्ट किया था और उसके स्थान पर शैव मठकी स्थापना की थी। इस घटनासे जैनधर्मको काफी धक्का लगा था। जिन ग्रामोंमें पहले जैनोंका अधिकार था उनमें ब्रामणोंको स्वामी बना दिया गया था । किन्तु पल्लव राजाओंके समयमें विद्या एवं कलाकी विशेष
उमति हुई थी। महेन्द्रवर्मन् स्वयं कलाकार फ्लव-का। था। उसने — दक्षिणचित्रम् ' नामक चित्र
शास्त्रकी रचना की थी। उसके समयके बने हुये दो मंदिर मिलते हैं। (१) मामन्डूरका शैव मंदिर मौर (२) शितणवासलका जैन गुंफा मंदिर। शित्तमवासल पुदकोटै राज्यकी रामपानीसे ९ मीक उत्तर दिशामें सवस्थित दिगम्बर जैनोंका एक
१-पूर्व.पू. ३५. २-ममैप्रावस्मा०, पृ०८. ३-ओअ०, पृ. ५
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