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गङ्ग-राजवंश।
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योकी संस्कृत-रचनायें अमूल्य थीं । ७वी-८वीं शताब्दियोंमें जब जैनी एक बड़ी संख्यामें आकर गंगवाड़ीमें बस गये, तब वहां संस्कृत जैन साहित्यकी पवित्र जाही ही वह निकली । अष्टशती, माप्तमीमांसा, पद्मपुराण, उत्तरपुषण, कल्याणकारक मादि ग्रंथ इसी समयकी रचनायें हैं। सारांशत: गंग रज्यमें जैनियों द्वारा साहित्य की विशेष उन्नति हुई थी। गंगवाड़ीमें कनड़ी भाषाका प्रचार अधिक था। इस भाषाका
साहित्य भी तामिक-साहित्य इतना प्राचीन कनडी साहित्य । था। ९ वीं-१० वीं शताब्दि के साहित्यक
उल्लेखों एवं श्री पुरुष मादि राजाभोंके शिलालेखोंसे सष्ट है कि 'पूर्वद इलेकन्नड' अर्थात् प्राचीन कन्नड़ भाषा, जो मुलतः बनवासीकी भाषा थी, उसका प्रचार कन्नड़ साहित्यक कवियोंके मस्तित्वसे पहलेका था। किन्तु सातवीं माठवीं शताब्दिमें भाकर उसका स्थान 'हले-कन्नड' अर्थात् नूतन-कन्नड़ी-भाषाने ले लिया और १९ वीं शताब्दि तक उसका प्रचलन खूब रहा। पम्प कविने कनड़ी भाषाके प्रसिद्ध कवि रूपमें समन्तभद्र कविपरमेष्ठी और पूज्यपाद प्रभृति का उल्लेख किया है। यह कनड़ीके प्राचीन कवि थे। समस्तमद्रस्वामीने ' भाषामंजरी '_' चिंतामणिटिप्पणी' मादि ग्रन्थ रचे थे। श्री वर्द्धदेव अथवा तुम्बुलराचार्यने प्रसिद्ध ग्रंथ 'चूडामणि' की रचना की थी। भट्टाकलकने अपने 'कर्णाटक शब्दानुशासन' में इस ग्रंयकी खुब प्रशंसा लिखी। ... १-गंग०, पृ. २७०-२२।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com