Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 02
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી યશોવિજયજી જૈન ગ્રંથમાળા, દાદાસાહેબ, ભાવનગર, ટહeheae-2eo : pકે ૩૦૦૪૮૪૬ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3653 संक्षिप्त जैन इतिहास। तृ० भागः द्वि० खंड लेखक:बाबू कामताप्रसादजी जैन साहित्यमनीषी अलीगंज, एटा। "दिगंबर जैन" के ३१ वे वर्षका उपहार प्रन्या - य कि प्रकाशक Pार בלה YMENT Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ किसनदासमी कापड़िया स्मारक ग्रंथमाला नं. २ संक्षिप्त जैन इतिहास। भाग ३-खण्ड २ [ दक्षिण भारतके जैनधर्मका इतिहास ] विभाग१-मध्यकालीन खंड- पल्लव और कदंब राजवंश। २-गंग राजवंश। ३-तत्कालीन छोटे राजवंश । लेखकबा. कामताप्रसाद जैन साहित्यमनीषी एम. आर. ए. एस., सम्पादक, "वीर" और जैन सिद्धान्त भास्कर, अलीगंज (एटा) प्रकाशकमूलचन्द किसनदास कापड़िया, मालिक, दिगम्बर जैनपुस्तकालय, कापडियामान-सूरत । FOneioso In मुरत निवासी स्वर्गीय सेठ किसनदास पूनमचन्दजी कापडियाके स्मरणार्थ “ दिगम्बर जैन" के १३ वर्षके ग्राहकोंको भेट । 100000000000000HUDHAIDUADIUMBINI प्रथमावृत्ति [प्रत १००० वीर सं० २४६४ मूल्य-एक रुपया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HE दो शब्द । BAR "क्षिप्त जैन इतिहास" के तृतीय भागका यह दूसग खण्ड पाठ. कोको भेंट करते हुये मुझे हर्ष है। इस खण्डमें दक्षिण भारतके कतिपय प्रमुख राजवंशो, जैसे पल्लव, कादम्ब, गंग अदिका परिचयात्मक विवरण दिया गया है। साथ ही उन वंशोके गजाओके शापनकाटमें बैनधर्मका क्या अस्तित्व रहा था, यह भी पाठक इपमें अवलोकन करेंगे । मेरे खयानसे यह रचना जैन-साहित्य ही नहीं, बल्कि भरतीय हिन्दीसाहित्यमें अपने ढंगकी पहली रचना है और इसमें ही इसका महत्व है। मुझे जहांतक ज्ञात है, हिन्दी में शायद ही कोई ऐसा ऐतिहासिक प्रन्थ है, जिसमें दक्षिण भारत के राजवंशो विशद वर्णन मिलता हो। इस इतिहासके अगले खण्ड में पाठकगण दक्षिणके अन्य प्रमुख राजवंशोचालुक्य, राष्ट्रकूट, होयसळ इत्यादिका परिचय पढ़ेंगे। और इस प्रकार दोनो बण्डोके पूर्णत: प्रकट होनेपर दक्षिण भारतका एक प्रामाणिक इतिहास हिन्दीमें प्राप्त होसकेगा, जिससे हिनीके इतिहास-शासकी एक हद तक सासी पूर्ति होगी। यदि विद्वानोको यह रचना रुचिकर और प्राय हुई, तो मैं अपने परिश्रमको सफल हुभा समझूगा । अन्तमें मैं उन महानुभावोका आभार स्वीकार करना भी अपना कर्तव्य समझता हूं जिनसे मुझे इस इतिहास-निर्माणमें किसी न किसी रूपमें सहायता मिली है। विशेषतः मैं उन प्रन्य-कर्ताओ उपकृत है जिनके प्रन्योसे मैंने सहायता ली है। उनका नामोल्लेख भटग एक संकेतसूचीमें कर दिया है। उनके साथ ही में श्री. के. भुनबली शास्त्री, अध्यक्ष जनसियांत भवन आरा ए अध्यक्ष, इम्पीरियल लायब्रेरी कल. कत्ताका भी भामारी हूं जिन्होंने अपने भवनोसे आवश्यक प्रन्य उवार देकर मेरे कार्यको सुगम बना दिया । अन्तत: सेठ मूलचन्द किसनदारबी कापरियाको धन्यवाद दिये विना भी मैं रह नहीं सकता, क्योकि उनकी कपाका परिणाम है कि यह प्रन्य इतना जल्दी प्रचारमें भारहा है। अलीगंज। विनीतता० ३-१०-१८ कामतामसाद जैन। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .................. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .... . . . . . . ..... .......... ....... . ................................ .... . ..... . r ...............................nu . . . . . . . . . . .. . . . . . . . . . . .. . . .. . . . . . ...... ..... . . . . . .. . . . . . . . . . . www.umaragyanbhandar.com स्वर्गीय सेठ किसनदास पूनमचन्दजी कापडिया प्रकाशक। स्मारक ग्रन्थमाला नं० २ वीर सं० २४६० में हमने अपने पूज्य पिताजीके अंत समय पर २०००) इस लिये निकाले थे कि इस रकमको स्थायी रखकर उसकी मायमेंसे पूज्य पिताजीके स्मरणार्थ एक स्थायी ग्रंथमाला निकालकर उसका सुलभ प्रचार किया जाय । इस प्रकार इस स्मारक प्रन्थमालाकी स्थापना वीर सं० २४६२ में की गई और उसका प्रथम ग्रन्थ "पाततोद्धारक जैन धर्म" प्रकट करके 'दिगम्बर जैन ' के २९ वें वर्षके प्राहकोंको भेट किया गया था और इस मालाका यह दूसरा प्रन्थ “संक्षिप्त जैन इतिहास" तीसरे भागका दूसरा खंड प्रका किया जाता है और यह भी 'दिगम्बर जन' के ३१वें मूलचन्द किसनदास कापडिया, ऐसी ही अनेक स्मारक ग्रंथमालाएं जैन समाजमें स्थापित वर्षके ग्राहकोंको भेट दिया जाता है । हों ऐसी हमारी हार्दिक भावना है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ... . . Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = निवेदन। = दिगम्बर जैन समाजमें अलीगंज (एटा) निवासी श्री. बाबू कामताप्रसादनी जैन एक ऐसे अनोड व्यक्ति हैं जो अपना जीवन प्राचीन जैन इतिहासके संकलन में ही लगा रहे हैं और उसके कारण अपने स्वास्थ्यकी भी पावा नहीं करते हैं। आपके सम्पादन किये हुए भगवान महावीर, भगवान पार्श्वनाथ, भ. महावीर व म० बुद्ध, पंचरत्न, नवरत्न, सत्यमार्ग, पतितोद्धारक जैनधर्म, दिगम्बरत्व व दि० मुनि, वीर पाठावलि, और संक्षिप्त जैन इतिहास प्र० द० व तीसरा भाग (प्र. खंड) तोप्रकट होचुके हैं और यह संक्षिप्त जैन इतिहास तीसरा भाग - दूसरा खंड प्रकट करते हुए हमें अतीव हर्ष होता है हम और सारा जैन समाज आपकी इन कृतियों के लिये सदैव आभारी रहेंगे। इसके तीसरे भागका तीसरा खण्ड भी आप तयार कर रहे हैं जो बहुत करके आगामी वर्ष में प्रकट किया जायगा इस ग्रंथकी कुछ प्रतियां विक्रयार्थ भी निकाली गई हैं, आशा है उसका शीघ्र ही प्रचार हो जायगा । निवेदक:वीर सं० २४६४. । मूलचन्द किसनदास कापडिया, माश्विन मुदी १४.) -प्रकाशक । "जैनविजय " प्रिन्टिग प्रेस, गांधीचौक,-सूरतमें मृलचम किसनदास कापडियाने मुद्रित किया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेताक्षर-सूची। इस प्रन्य निर्माणमें निम्नलिखित प्रन्योसे सधन्यवाद सहायता प्रहण की गई हैअहिई-भी हिस्ट्री ऑव इंडिया, स्मिथकृत (चतुर्थावृत्ति )। आइई०-आरीजिरक इन्हैबीटेन्ट्स ऑफ इंडिया, ऑपटंकृत । ओ०-ओझा अभिनन्दन प्रन्थ (हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग )। इआ-एनुभल बिछोप्रेफी ऑव इंडियन ऑलॉजी (लीडन )। इका-इपीप्रेफिया कर्नाटेका ( बंगलोर )। कलि०-हिस्ट्री ऑव कनैरीज़ लिट्रेचर (Heritage of India Series) गङ्गा-एम. वी. कृष्णकृत दी गंगज ऑष तलकाड (मद्रास ). गैब०-भाण्डारकर, गैजेरियर ऑव बोम्बे प्रेजीडेंसी (लंदन ). जमीसा-जर्नल ऑव दी मीधिक सोसाइटी (बेंगलोर )। जैसाई. एस. आ. शर्मा, जैनीजम इन साउथ इंडिया जैशिसं०-जैन शिलालेख संग्रह (माणिकचन्द्र दि० बन ग्रंथमाला )। जैहि-जैन हितैषी (बम्बई )। दिदिमु०-दिगम्बरस्व और दिगम्बर मुनि ( अम्बाला )। ममैप्रास्मा०-माघ मैक्षर प्राचीन जैन स्मारक ( मरत) मैकु०-इस कृत मैसूर एण्ड कुग फ्रॉम इंसक्रिपशन्स । रधा०-रस्नकरण श्रावकाचार (मा० प्र०)। लामाइलाला लाजपयगय कृत 'भारतका इतिहास' (लाहौर)। सुसाइज०) सदीज इन साउथ इंडियन जैनीज्म । हरि०-हरिवंशपुराण (कलकत्ता)। नोट--विशेषके लिये मा० ३ खण्ड । देखो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धाशुद्धिपत्र । अशुद्ध पृष्ठ पंक्ति शुद्ध विजयनगर पांड्य पल्लन ૧૧ बहन विजयननर पाव्य पक्ष पतन समूहक्क सेनापति श्वेतपत्र सघाधुओ १७ समूहका सेनापति श्वेतपट साधुओं जैन क्षत्रियों अमित हो राजमल पड़ा, जो छत्रियों अतिम होगमल उद्योग पराप्त उद्योत पगस्त एक बौद्ध मठम अकादशज्य दुघहन पका बुटुट १४ तुतुव नामक १५९ में पराजय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat मकरद राज्य दुलहन पल्लव बुटुग तुलुव नामक रात्रा २० १५४ www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयसूची । विषय नं० ७-९ ९-१० १ - दक्षिण भारत के जैन धर्मका इतिहास २- मध्यकालीन खंड- पलव और कदंब राजवंश... पल्ला उत्पत्ति, राजनैतिक परिस्थिति, महेन्द्रवर्मन नसांग, कांचीमें जैन धर्म, पल्लव राजा पल्लव कला, कला, पांड्यराज ... चोलराजा, कदंब राजवंश, मयूरशर्मा कंशुवर्मा, काकुस्थवर्मा, शांतिवर्मा मृगेशवर्मा, रविवर्मा, हरिवर्मा ११-१५ १६-१९ २०-२१ २१-२२ २३-२५ ... करंबवंश पतन, शासन प्रणाली, कदंब राजा जैन सम्प्रदाय, दि० जैन यापनीय संघ, संघकी स्थिति ३१-३२ इतर सम्प्रदाय, तत्कालीन जैन धर्म 3- गंग राजवंश ... ... ... ... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ... ... ... ... कोदेशके राजा, सिंहनंद्य चार्य, कोगुणवमे किरिय माधव, हरिवर्मा, विष्णुगोप, अविनीत दुर्विनीत, मुष्कर, श्रीविक्रम... भूविक्रम, शिवमार, श्री पुरुष राठौर से युद्ध, शिवमार, मारसिंह दिदिग, पृथिवीपति, राजमल्ल नीतिमार्ग, द्वि० राजमल्ल, युवराज बुटुग.... द्वि० नीतिमार्ग, तृ० राजमल्ल, द्वि० मारसिंह चामुण्डराय, रक्कसगंग, गंगराजा दि० जैनाचार्य, पात्र केशरी, पूज्यपाद देवनन्दी, धर्म संकट, अजितसेनाचार्य... मल्लिषेणाचार्य, जैनागार, अप्रहार, जैनमत कनडी साहित्य, महाकवि पम्प, महाकवि पोन्न महाकवि रत्न, आचारविचार, शिल्पकला... जैन मंदिर, जैन स्तम्भ, वीरकल, बेह, गोमटमूर्ति ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ३७-४० ४१-४३ ४४-४७ ४८-४९ ५१-५७ ५८-५९ ६२-६४ ६५-६० ७२-८६ ९९-१०१ ११३-११६ ११७-१२१ १२३-१२५ १२६-१२९ १३८ - १३९ www.umaragyanbhandar.com ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... 100 ... ... ... पृष्ठ ૧ ६ ... ૩૪ ३६ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) ४-तत्कालीन छोटे राजवंश ... नोलंब, सिंहपोत, पोलल महेन्द्र अय्यप, दिलीप, जिनदत्तराय ... सांतारवंशके राजा, चंगालन... पंचव, अत्तरादित्य, कोगल्य ... ... जीभूतवाहन, श्रीविजय, एलिन राजवंश १४४ १४४-४५ १४६-४७ १४८-५३ १५४-५५ ... १६१-६२ श्रद्धाञ्जलि! श्रीमान् पं० युगलकिशोरजी मुख्तार-सरसावा की सेवामें यह तुच्छ रचना उनकी ऐतिहासिक प्रगति और उल्लेखनीय शोध को लक्ष्य करके सादर समर्पित है। --कामताप्रसाद। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रवणबेलगोलामें इन्द्रगिरिस्थितश्री गोमट्टस्वामीजी (बाहुबलीस्वामीजी)। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BOOK EXCA श्री श्रवणबेलगोलाके मुख्य मंदिरकी - प्राचीन प्रतिमाएँ । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः। संक्षिप्त जैन इतिहास। (भाग ३ खण्ड २) दक्षिण भारतके जैनधर्मका इतिहास । जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित धर्म लोकमें जैनधर्मके नामसे प्रसिद्ध है और उस मतक माननेवालोंको लोग जैनी कहते हैं। यह ठीक है, परन्तु इसके अतिरिक्त यह अनुमान करना कि जैनधर्मका अभ्युदय करीब दो ढाई हज़ार वर्ष पहले भ० महावीर वर्द्धमान द्वारा हुमा था, बिल्कुल गलत है। जैनधर्म एक प्राचीन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | और स्वतन्त्र धर्म है । वह वैदिक और बौद्ध मतों से भिन्न है । उसके माननेवाले भारतमें एक अत्यन्त प्राचीन काळसे होते माये हैं । भारतका प्राचीनतम पुरातत्व इस व्याख्याका समर्थक है; क्योंकि उसमें जैनत्वको प्रमाणित करनेवाली सामिग्री उपलब्ध है । 'संक्षिप्त जैन इतिहास' के पूर्व मार्गो में इस विषयका सप्रमाण स्पष्टीक रण किया जाचुका है; इसलिये उसी विषयको यहां दुहराना व्यर्थ है । उसपर ध्यान देनेकी एक खास बात यह है कि जैनधर्म वस्तुस्वरूप मात्र है - वह एक बिज्ञान है । ऐसा कौनसा समय हो सकता जिसमें जैनधर्मका अस्तित्व तात्विक रूपमें न रहा हो ? वह सर्वज्ञ सर्वदर्शी महापुरुषों की 'देन' है, जो तीर्थङ्कर कहलाते थे । इस काल में ऐसे पहले तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव थे । इस युगमें उन्होंने ही सर्व प्रथम सभ्यता, संस्कृति और धर्मका प्रतिपादन किया था । उनका प्रतिपादा हुआ धर्म उत्तर भारत के साथ ही दक्षिण भारत में प्रचलित हो गया था। जैन एवं स्वाधीन साक्षीसे यह स्पष्ट है कि दक्षिण भारत में जैनधर्म्म एक अत्यन्त प्राचीनकाल से फैला हुआ था । पंचपाण्डवों के समय में उस देशमें तीर्थङ्कर भरिष्टनेमिका विहार होने के कारण जैनधर्म्मका अच्छा अभ्युदय हुआ था । इन सब बातोंको जिज्ञासु पाठक महोदय इस इतिहासके पूर्व खण्ड ( भा० ३ खण्ड १ ) में अवलोकन करके मनस्तुष्टि कर सकते हैं । उस खण्ड के पाठसे उन्हें यह भी ज्ञात हो जायगा कि विन्ध्याचल पर्वत के उपरान्त समूचा दक्षिण प्रदेश ऐतिहासिक घटनाओंकी भिन्नताके कारण दो भागों में विभक्त किया जाता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com · Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारतके जैनधर्मका इतिहास । [ ३ वस्तुतः सुदूर दक्षिण भारतकी ऐतिहासिक घटनायें बिन्ध्याचलके निकटवर्ती दक्षिणस्थ भारत से भिन्न रही हैं । इसी विशेषताको लक्ष्य करके दक्षिण भारत के इतिहासकी रूपरेखा दो विभिन्न आकृतियोंमें उपस्थित की जाती हैं । किन्तु एक बात है कि यह भिन्नता बिजयनगर साम्राज्यकाळ ( ई० १४ वीं से १६ वीं शताब्दि ) के पहले पहले ही मिलती है; उपरान्त दोनों भागों की ऐतिहासिक धारायें मिलकर एक हो जाती हैं और तब उनका इतिहास नभिन्न हो जाता है । मागेके पृष्टोंमें पाठक महोदय दक्षिण भारतके मध्यकालीन इतिहासका अबलोकन करेंगे। पहले, सुदूरवर्ती दक्षिण भारत के इतिहास में वह पल्लवों, कादम्ब, चोल और गङ्ग वंशोंके राजाओं का वर्णन पढ़ेंगे। उनकी श्रीवृद्धिको चालुक्योंने हतप्रम बना दिया था । चालुक्यगण दक्षिण पथसे आगे बढ़कर चेर, चोल और पाण्ड्य देशोंके अधिकारी हुये थे और उनके पश्चात् राष्ट्रकूटवंश के राजाओंका मभ्युदय हुआ था। वे चालुक्योंकी तरह गुजरातसे लगाकर ठेठ दक्षिण भारत तक शासनाधिकारी थे । राष्ट्रकूटों का परम सहायक मैसूरका प्राचीन गङ्गवंश था । गङ्गवंशके राजालोग मैसूर में ईस्वी दुसरी शताब्दिसे स्वाधीन रूपमें शासन कर रहे थे । चालुक्य, राष्ट्रकूट और गङ्ग वंशोंके राजाओंको चोक राजाओंने परास्त करके ब्राह्मण धर्मको उन्नत बनाया था; किंतु उनका अभ्युद दीर्घकालीन न था । मैसूर के उत्तर-पश्चिममें कलचूरी वंशके राजा लोग उजवशील हो रहे थे और मैसूर के पश्चिममें होयसळवंश राज्याधिकारी होरहा था। होयसलोंके हतप्रभ होने पर विजयनगर साम्राज्यकी श्रीवृद्धि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । TALIORAINRITAINNARIENTRALLAIRAVAILWARAWAITIRAIMALAIMURNAKAAMAMALALAAMRALIANSINEMAILY हुई, जिसमें आर्यसंस्कृतिका उल्लेखनीय पुनरुद्धार हुमा। किन्तु विजयननर साम्राज्यका भन्त मार्यसंस्कृतिके लिये घातक सिद्ध हुमा; क्योंकि विजयनगर साम्राज्यके भव्य खंडहरों पर ही मुसलमान और ब्रिटिश राज्य-भवनका निर्माण हुआ। इसप्रकार संक्षेपमें दक्षिण भारतके इतिहासकी रूपरेखा है, जिसका विशेष वर्णन पाठकयण इस खण्डमें भागे पढ़ेंगे और देखेंगे कि इन विभिन्न राज्य-कालोंमें जैनधर्मका क्या रूप रहा था। राजवंशोंमें परस्पर धर्मभेद होनेके कारण कैसे-कैसे राज्यकीय परिवर्तन हुये थे, यह भी वह देखेंगे। पदमातरम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास। (भाग ३-खंड २) मध्यकालीन-खण्ड। दक्षिण-भारतका इतिहास। (१) (पल्लव और कादम राजप) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लव और कदम्ब राजवंश । [७ पल्लव और कदम्ब राजवंश । चेर, चोल और पांड्य मंडलोंका संयुक्त प्रदेश तामिक अथवा द्राविड़ राज्य कहलाता था । प्रारम्मिक-कालमें चेर, चोल और पाण्ड्य राजवंश ही अपने-अपने मण्डल में राज्याधिकारी थे; किन्तु उपरान्त उनमें परस्पर मविश्वास और भमैत्री उत्पन्न होगये, जिसका कटु परिणाम यह हुमा कि वे परस्पर एक दुसरेके शत्रु बनगये और मापसमें राज्यके लिये छीना-झपटी करके लड़ने-झगड़ने लगे। इस भवसरसे पल्लवादि वंशोंके राजाओंने लाभ उठाया, उनका उत्कर्ष हुआ। किन्हीं विद्वानोंका भनुमान है कि पल्लव-वंशके राजा मूल भारतीय न होकर उस विदेशी समुदायमेंसे पल्लवोंकी उत्पत्ति । एक थे, जो मध्य ऐशियासे भाकर भारतमें राज्याधिकारी हुआ था। राइस सा० ने मनुमान किया था कि पल्लव-गण पल्हव अर्थात् 'पर्धियन , ( Arsaoidan Parthians ) लोग थे; किन्तु भारतीय विद्वान उनके इस मतसे सहमत नहीं हैं। श्री रामास्वामी ऐय्यंगर महोदय बताते हैं कि ईस्वी सातवी शताब्दिके मध्य दक्षिण भारतमें पल्लव वंश प्रधान था। ईस्वी चौथी और पांचवी शताब्दिके प्रारम्भ तक उनका उत्कर्ष कालके गर्ममें था। प्रारंभमें इस वंशके राजा काञ्चीके १-मैकु; पृष्ट ५२-५३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] संक्षिप्त जैन इतिहास । शासक' नामसे प्रसिद्ध थे। दक्षिणके संगम-साहित्यमें काञ्चीके शासकोंको 'तिरयन् और तोन्डैमन्' कहा गया है। एवं 'महनानुरु' नामक ग्रन्थसे प्रकट है कि तियर-गण वेङ्गदम् प्रदेशके स्वामी थे। पल्लवोंके समान तिरयरोंका सम्बन्ध भी नागवंशके राजाभोंसे था । उस पर तिरयरों ( Tirayars ) की एक शाखाका नाम · पल्लवतिरयर ' था। अपने प्राधान्यकालमें काञ्चीके यह तिरयर अपने शाखा नाम 'पल्लव ' से ही प्रसिद्ध होगये । इस लिये पल्लवोंको विदेशी अनुमान करना उचित नहीं है । वह तामिल देशके ही निवासी थे। ई. आठवीं शताब्दिमें पल्लव घिगजों के उत्कर्ष-सूर्यको च लुक्यरूपी राहुने ग्रसित कर लिया था। ई० राजनैतिक छट्ठी शताब्दिमें ही चालुक्योंने बादामीको परिस्थिति। पल्लवोंसे छीन कर उसको अपनी राजधानी ____ बना लिया था। सातवीं शताब्दिके भारंभमें उन्होंने वेङ्गीपर भी अधिकार जमा लिया था और वहाँ 'पूर्वी चालुक्य' नामक एक स्वतंत्र राजवंशकी स्थापना की थी । उपरान्त पल्लवोंने एक दफा बादामीको नष्ट किया अवश्य; परन्तु आठवीं शताब्दिमें चालुक्योंने पल्लवोंको इस बुरी तरहसे हराया कि वह न कहींके होरहे। चालुक्योंने पल्लव गजधानी काञ्चीमें विजय-गर्वसे प्रफुल्लित होकर प्रवेश किया। उधर मैसूरके गङ्ग राजाओंने भी पल्लवों पर भाक्रमण करके उनके कुछ प्रदेश पर अधिकार प्राप्त कर लिया था। इस १-स्टसाई जे०; भा० १ पृ० १४२-१४४।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लव और कदम्ब राजवंश। [९ प्रकार पल्लव अपनी प्रतिभा और प्रतिष्ठासे हाथ धोकर येनकेन प्रकारेण अपना मस्तित्व बनाये रहे ।' ऐतिहासिक कालमें सर्व प्रथम उनका वर्णन समुद्रगुप्तके वृत्तांतमें मिलता है, जिसने पल्लवराजा विष्णुगोपको सन् ३५० ई० में पराजित किया था। अपने उत्कर्षके समयमें पल्लवोंके राज्यकी उत्तरी सीमा नर्मदा थी और दक्षिणी पन्नार नदी । दक्षिणमें समुद्रसे समुद्रतक उनका राज्य था। उनमें पहले-पहले सिंह विष्णु नामक राजा प्रसिद्ध हुआ था। उसका यह दावा था कि उसने दक्षिणके तीनों राज्यों के अतिरिक्त लङ्काको भी विनय किया था। उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र महेन्द्रवर्मन् प्रथम हुमा। उसकी ख्याति पहाडोंसे काटी हुई गुफाओंके महेन्द्रवर्मन् । उन अगणित मंदिरोंसे है जो तृचनापली, चिनलेपुट, उत्तरी भाट और दक्षिण अफ्रटमें मिलते हैं। उसने महेन्द्रवाड़ी नामका एक बड़ा नगर बसाया और उसके समीप एक बड़ा तालाब अपने नामपर खुदवाया। इस राजाको विद्या और कलासे अति प्रेम था। इसने 'मत्तविलास प्रहसन्' नामक एक ग्रंथ रचा था, जिसमें भिन्न मतोंका उपहास किया था । कहते हैं कि पल्लव वंशका सबसे नामी राजा नरसिंहवर्मन् था। उसने पुलकेशिनको परास्त करके सन् ६४२ ानत्सांग । ई० में वातापि (बादामी) पर अधिकार प्राप्त किया, जिससे चालुक्योंको भारी क्षति उठानी १-मैकु०; पृष्ठ ५३. २-लामाइ०, पृ. २९६. ३-जैसाई., पृ. ३६. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] संक्षिप्त जैन इतिहास | હૈ पड़ी थी। इस घटना से दो वर्ष पहले चीनी यात्री ह्यूनत्साङ्ग पल्लव राजाकी राजधानी कांचीमें आया था। उसने यहांके निवासियों की वीरता, सत्यप्रियता, विद्यारसिकता और परोपकार भावकी बहुत प्रशंसा की है। उसके समयमें इस नगर में लगभग एकसौ मठ थे, जिनमें दस सहस्रसे अधिक भिक्षु रहते थे । लगभग इतने ही मंदिर जैनोंके थे।' पलबोंकी एक अन्य राजधानी कृष्णा जिलेमें धरणीकोटा नामक नगर था, जिसका प्राचीन नाम घनकचक बतलाया जाता है । त्रिलोचन पल्लवकी यही राजधानी थी। दूसरी-तीसरी शताब्दिमें यहांके किलेको जैनों के समयमें मुक्तेश्वर नामक राजाने बनायाथा | कांचीनगर जैनधर्मका प्राचीन केन्द्रीय स्थान था। चीनी यात्री ह्युनत्सांग के समय में भी यहां जैनोंका प्राबल्य काञ्चीमें जैनधर्म | था । दिगम्बर जैन और उनके मंदिरोंकी संख्या अत्यधिक थी । जैन साहित्य से भी कांचीपुरमें जैनधर्मके प्रधान होने का पता चलता है। यहांका जैन संघ उत्तर भारत के जैनियोंको भी मान्य था । प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री भट्टाक लंकदेवने यहीं राजा हिमसीतलकी सभा में बौद्धों को परास्त किया था । पल्लव वंशके कई राजाओंका सम्पर्क जैनधर्मसे रहा था। नंदिपल्लबके वेदल शिलालेख एवं अर्काट जिलेके अन्तर्गत तिन्दिवनम् तालुके से प्राप्त एक अन्य पल्लव शिलालेख से पल्लवों द्वारा जैनधर्म संरक्षण वार्ताका समर्थन होता है। तामिळ पल्लव राजा और जैनधर्म | १- लाभाई०, पृ० २९० २ - ममे प्राजेस्मा०, पृ० २३. ३- महि०, पृ० ४७४. ४ - जैसा ई० पू० ३० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लव और कादम्ब राजवंश [११ जैनग्रन्ध 'चूलामणि' को तोळमोलि देवरने राजा सेन्दन (६५० ई० ) के राज्यकालमें उनके पिता राजा मारवर्मन् भवेनी चूलमनिकी स्मृतिमें रचा था। सालेम जिलेके धर्मपुरी नामक स्थानवाले लेखसे (नं० ३०७) प्रकट है कि राजा महेन्द्रवर्मनके समयमें श्री मंगलसेठीके पुत्र निधिपन्ना मौर चंदिपन्नाने तगदूरमें एक जिनालय बनवाया था। निधिपनाने राजा महेन्द्रसे मूलशल्ली प्राम लेकर श्री विनयसेनाचार्यके शिष्य श्री कनकसेनजीको मंदिर जीर्णोद्धारके लिये अर्पण किया था। राजा महेन्द्रवर्मन् स्वयं जैनधर्मानुयायी था। किन्तु शैव योगी अप्परने महेन्द्रको शैवमतमें दीक्षित कर लिया था। शैव होने पर महेन्द्रवर्मन्ने दक्षिण अर्काट जिलेके पाटलिपुत्रिम् नामक स्थान के प्रसिद्ध जैनमठको नष्टभ्रष्ट किया था और उसके स्थान पर शैव मठकी स्थापना की थी। इस घटनासे जैनधर्मको काफी धक्का लगा था। जिन ग्रामोंमें पहले जैनोंका अधिकार था उनमें ब्रामणोंको स्वामी बना दिया गया था । किन्तु पल्लव राजाओंके समयमें विद्या एवं कलाकी विशेष उमति हुई थी। महेन्द्रवर्मन् स्वयं कलाकार फ्लव-का। था। उसने — दक्षिणचित्रम् ' नामक चित्र शास्त्रकी रचना की थी। उसके समयके बने हुये दो मंदिर मिलते हैं। (१) मामन्डूरका शैव मंदिर मौर (२) शितणवासलका जैन गुंफा मंदिर। शित्तमवासल पुदकोटै राज्यकी रामपानीसे ९ मीक उत्तर दिशामें सवस्थित दिगम्बर जैनोंका एक १-पूर्व.पू. ३५. २-ममैप्रावस्मा०, पृ०८. ३-ओअ०, पृ. ५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास | प्राचीन केन्द्रस्थान है । यहां पहाड़ीकी चोटी पर कुछ कोठरियाँ मुनियोंके ध्यानके लिये बनी हुई हैं, जिनमें से एक में ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दिका एक ब्राह्मी लेख इस बातका द्योतक है कि उस समय इन कोठारियोंमें जैन मुनिगण रहा करते थे । इस स्थानका मूल प्राकृत नाम ' सिद्धण्णवास' अर्थात् ' सिद्धों का डेरा ' है । इससे अनुमान होता है कि यह कोई निर्वाणक्षेत्र है । किन्हीं महा मुनीश्वरने यहांसे सिद्ध पद प्राप्त किया होगा : इसीलिये यह क्षेत्र ' सिद्धण्णवास' रूपमें प्रसिद्ध हुआ । यहां एक जैन गुहामंहिर है, जिसकी भीतोंपर पूर्व पल्लव राजाओंकी शैलीके चित्र हैं । यह चित्र राजा महेन्द्रवर्मनके ही बनवाये हुये हैं और अत्यन्त सुन्दर हैं । मंदिर के मंडप में संपक आसन से स्थित पुरुष परिमाण अत्यन्त सुगड़ और सुंदर पांच तीर्थंकर मूर्तियां बिराजमान हैं; जिनमें से दो मंडप के दोनों पाश्र्वौमें अवस्थित हैं । 'यहां अब दीवारों और छतपर सिर्फ दो-चार चित्र ही कुछ अच्छी हालत में बचे हैं । इनकी खूबी यह है कि बहुत थोड़ी परन्तु स्थिर और दृढ़ रेखाओंमें अत्यन्त सुन्दर और मूर्त आकृतियां बड़ी उस्तादीके साथ लिख दीगई हैं । छाया आदि डालने का प्रयत्न प्रायः नहीं किया गया । रंग बहुत थोड़े हैं- सिर्फ लाल, पीला, नीला, काला और सफेद । इन्हींको मिलाकर कहीं-कहीं कुछ और हरा, पीला, जामुनी, नारंगी आदि रंग भी बना लिये गये हैं । इतनी सरलता से बनाये गये इन चित्रोंमें भाव आश्चर्यजनक ढंग से स्फुट हुए हैं और माकृतियां सजीवसी जान पड़ती हैं । १२. ] 00110 १- इआ०, सन् १९३०, पृ० ९-१० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लब और कादम्ब राजवंश । [ १३ सारी गुदा कमलों से अलंकृत है। सामने के दोनों खम्भको आपस में गुँथी हुई कमलनालोंकी बेलोंसे सजाया गया है । स्वम्भर नर्तकि योंके चित्र हैं। बरामदेकी छतके मध्यभागमें एक पुष्करजीका चित्र है। हरे कमलपत्रोंकी भूमिपर लाल कमल खिलाये गये हैं; जलमें मछलियां, हंस, जलमुर्गाबी, हाथी, भैंसे आदि जल विहार कर रहे हैं। चित्रके दाहिनी तरफ तीन मनुष्य कृतियां हैं, जिनकी आकृतियां आकर्षक और सुन्दर हैं। दो मनुष्य इकट्ठे जल विहार करते दिखाये हैं; इनका रंग लाल दिया है; तीसरेका रंग सुनहला है और वह इनसे अलग है। इसकी भाकृति बड़ी मनोमोहक और भव्य है । सौधर्मेन्द्र तीर्थंकर भगवानके केवली होनेपर उनको उपदेश देने के लिये ' समवशरण' नामक एक स्वर्गीय मण्डप रचा था | उसके चारों तरफ सात भूमियां होती हैं, जिनमें से गुजरकर ही कोई व्यक्ति उस प्रासादमें तीर्थंकरका उपदेश सुनने पहुंच सकता है । इनमें से दूसरी भूमिका नाम • स्वातिका' है । दिगम्बर जैन मूर्ति-शास्त्र ' श्रीपुराण' नामक ग्रन्थके अनुसार यह स्वातिका भूमि तालाब होती है; जहां पहुंचकर भव्योंको स्नान और जलविहार करने को कहा जाता है । उक्त चित्र इसी खातिका भूमिका है । अन्य बचे हुए चित्रोंमें दो नर्तकियोंके चित्र हैं जो अन्दर घुसते ही सामने के दो स्वम्भों पर बने हैं। एककी दाहिनी भुजा गज हस्त और दूसरीकी दण्ड- हस्त मुद्रा में फैली है। इन चित्रोंमें कलाकारने मानों गहनोंसे लदी पतली कमर और चौड़े नितंबोंवाली, चीते की तरह प्रचण्ड शक्तिवाली और भव्य, स्वर्गीय अप्सराओंोंके और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] संक्षिप्त जैन इतिहास । शिवनटराजनकी कल्पनामें प्रकट होनेवाली नृत्य-ताल और प्रचण्ड स्फूर्तिको एक ही जगह चित्रित कर दिया है।' अन्दरके दाहिने खम्भेपर सम्भवतः राजा महेन्द्रवर्मनका चित्र था, जिसके कुछ निशान बाकी है । इस प्रकार पल्लवकालीन ललित कालका यह मंदिर एक नमूना है और दक्षिणके जैन मंदिरोंमें अपने ढंगका अकेला है। उधर पांड्यदेशमें कलभ्र राजवंशका भाश्रय पाकर जैनधर्म एक समय खूब ही उन्नत हुआ था। ईस्वी कलभ्र । ५-६ वीं शताब्दिमें कलोंका भाक्रमण दक्षिण भारत पर हुमा और उन्होंने चोळ, चेर एवं पांड्य राजाओंको परास्त करके समग्र गमिल देश पर अधिकार जमा लिया था। कहा जाता है कि कलभ्रगण कर्णाटक देशके मूलनिवासी 'कल्लर' जातिके लोग थे । पाण्ड्यराजाओंको जीतनेके कारण उन्होंने 'मारन' और 'नेदुमारन' विरुद धारण किये थे। इनके अतिरिक्त उनके दो विरूद 'कलकत्वन' और मुत्तुरैयन (तीन देशोंके स्वामी) भी थे। 'पेरियपुराणम्' नामक ग्रन्थमें उन्हें कर्णाटक देशका राजा लिखा है। निस्सन्देह उनका राजशासन तीनों ही चेर, चोल, पाठय देशों पर निर्वाध चलता था। जैसे ही वह तामिक देशमें मधिकृत हुये, कलोने जैन धर्मको अपना लिया। उस समय ३-बोभ०, अंक ६ पृष्ठ ७-८. श्री रामचन्दन् महोदयने यह वर्षन लिखा है और उल्लिखित तामिल प्रयके आधारसे तागवको शमवशरणकी द्वितीय भूमि बताया है। संभवतः यह ठीक है, परंतु इस तालाबमें भक्तजन स्नानादि करते थे या नहीं यह विचारणीय है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लव और कादम्ब राजवंश। [१५ वहां जैनोंकी संख्या भी अत्यधिक थी। उनके सहयोगसे प्रभावित होकर कहा जाता है कि कलमोंने शैव धर्माचार्यों को दण्डित किया था। यह समय जैनधर्मके परम उत्कर्षका था। इसी समय प्रसिद्ध तामिलग्रन्थ 'नालदियार' जैनाचार्यों द्वारा रचा गया था। इस ग्रन्थमें दो स्थलों पर ऐसे उल्लेख हैं जिनसे पता चलता है कि कलम्र जैनधर्मानुयायी और तामिल साहित्यके संरक्षक थे। 'नालिदयार' ग्रन्थमें नीतिशास्त्र विषयक चारसौ पद मङ्कित हैं, जिन्हें चारसौ दिगम्बर जैन मुनियोंने रचा था। और माज जिनका प्रचार दक्षिण भारत के प्रत्येक घरमें हुआ मिलता है। कलभ्र राज्याश्रय पाकर जैनधर्म उनके समयमें खूब फूलाफला; परन्तु जब कदुन्गोन (Kadungon ) एवं पक्लव राजाओंने उनको राज्यश्री-विहीन कर दिया तो पांड्यदेशमें जैनोंके अभ्युदयको काठ मार गया। मदुरा जो उस समय तक जैनधर्मका मूल केन्द्रस्थान था, वह ब्राह्मणों के मधिपत्यको प्रगट करने लगा। बात यह हुई कि महेन्द्रवर्मन्की तरह पाण्डयनरेश जिनको कुनमुन्दर मथवा नेदुमारन् पाण्ड्य कहते पाण्डयराज और थे, जैनधर्मसे विमुख हो गये । उनका विवाह जैनधर्म । चोल राजकुमारी रङ्गयरक सियरसे हुआ था, ___ जो शैव मतानुयायी और राजेन्द्र चोलकी बलन थी। शैवरानीने अपने गुरु तिरुज्ञानसम्बन्दरको बुला भेना और उन दोनोंके उद्योगसे पाण्ड्यगज शैव मतमें दीक्षित हो गये। 1-माइंजै०, भा० १ पृ. ५३-५६. २-साइजै०. पृ० ९२. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | ૧ शैव होने पर कुरनसुन्दरने जैनों को बेहद कष्ट दिये । धर्मान्धताकी चरमसीमाको वह पहुंच गया और उसने आठ हजार निरापराध जैनियोंको कोल्हूमें पिलवा कर मरवा डाला, केवल इसलिये कि उन्होंने शैव मतमें दीक्षित होना स्वीकार नहीं किया था । खेद है कि अर्काट जिलेके त्रिवतूर नामक स्थान पर उपस्थित शैव मंदि - रमें इस धर्मान्धतापूर्ण व भीषण रोमांचकारी घटना के चित्र दिवालों पर अङ्कित हैं और अब भी वहांके शिवमहोत्सव में सातवें दिन स्वास तौर पर इस घटना का उत्सव मनाया जाता है । इस नवजागृति के जमाने में धर्मान्धताका यह प्रदर्शन घृणास्पद और दयनीय है । उपरांत चोल राजाओंके अभ्युदयकालमें भी जैन धर्म पनप न सका । राजराज चोल तो जनोंका कट्टर शत्रु था। उसके विरिश्चिपुरम् के दानपत्र से प्रगट है कि उसने एक धार्मिक कर भी जैनियों पर लगाया था । जैनोंके और ब्राह्मर्णोंके खेतोंको उसने अलग-अलग कर दिया, जिसमें जैनोंको हानि उठानी पड़ी; परन्तु इतने पर भी जैन धर्मको यह शैवलोग मिटा न सके । स्वयं राजराजकी बड़ी बहनने तिरुमलयपर 'कुन्दवय' नामक जिनालय बनवाया था | जैनाचार्योंने इस धर्मसंकट के अवसरपर बड़ी दीर्घदर्शिता से काम लिया । उन्होंने दक्षिण के अर्द्धसभ्य कुरुम्ब लोगोंको जैन धर्ममें दीक्षित करके अपना संरक्षक बना लिया । चोल राजा और जैन धर्म | १- अहिइ०, पृष्ठ ४९५. २- साईजै० मा० १ पृ० ६४ - ६८ व अहिं० पृ० ४७५. ३- जैसाइं०, पृ० ४३. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदम्ब-वंश-वृक्ष। मयूरशर्मा ( सन २७५-३०० ई० ) कंमुवर्मा (पन् ३००-३२५ ई.) भगीरथ (सन ३२५-३४० ई.) रघु (सन् ३४०-३६० ई.) काकुस्थ (सन् ३६०-३९० ई.) शान्तिवर्मा ( ३९०-४२०) कृष्णवर्मा प्रथम विष्णुवर्मा मृगेशवर्मा मानधात्रि (४२०-४४५) (४४५-४६०) सिंहवर्मा कृष्णवर्मा दि. (५२५-५६०) मानुवर्मा रविवर्मा (४६०-५००) हरिवमा (१००-५२५) भजवर्मा भोगीवर्मा (५९०-१००) विष्णुवर्मा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमा नदी नक्शा - दक्षिण भारत । पंढरपूर ७. सोलापूर 2. कोल्हापूर बेळगाव गोवा ० मयूर नदी कल्यापा हवा डी "माल्यरवेट विजापूर कुर्ग ० Am नोलंबवाडी. म्हैसूर 0 कृष्णा. सौंदत्त पांलासिका । ● विजयनगर त लु गू कुं त ल वनवासी धारवाड ADVAITANA M नदी लयलम् (केरळ) नदी नर्मदा JAW द्वारासमुद्र श्ववणबेलगोला गंगवाडी | तलकाड कर्नाटक और तामिल आदि देश नगर गोदावरी नदी कीडर Wow willlers ता '० पलघाट हैद्राबाद वरदूल All Amin [[[[{{time into\`[A]]AAIN टोडैनाड कोलर पाड्य VIHISHTA S सालेम मिळ ल अँडा त्रिचनापल्ली चो 16 तजावर० menu H राजमहेंद्री. वे. ङ गी अमरावती ०कांची मद्रास Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लव और कादम्ब राजवंश | [ १७ कुरुम्बगण बड़े ही वीर और धर्मश्रद्धालु थे । उनके मुख्य राजा कमन्दप्रभु कुरुम्ब थे और उनकी राजधानी पुलक थी; जहां उन्होंने कई भव्य जिनालय बनाये थे । जैन धर्मकी रक्षा के लिये कुरुम्बोंने चोलोंसे कई लडाइयां लड़ी थीं । भाखिर अडोन्ड चोलने उन्हें परास्त कर दिया और जैन धर्म राज्याश्रयविहीन हो हतप्रभ होगया । h यद्यपि पल्लव और पाण्ड्य देशोंमें जैन धर्मकी महिमा क्षीण होगई थी, परन्तु पूर्वीय और पश्चिमीय कदम्ब राजवंश | मैसूर एवं उसके आसपास के देशोंमें वह समृद्धिको प्राप्त था । इस समृद्धिका कारण वहां के तत्कालीन राजवंशद्वारा जैन धर्मको आश्रय मिलना था । मैसूरमे कादम्ब और गङ्ग वंशके राजाओंका शासनाधिकार चलता था। इनमें से कदम्ब वंशके राजाओंका अधिकार वर्तमान मैसूर राज्य के शिमोग और चितल्दुर्ग जिलों एवं उत्तर कनारा, धारवार और बेळगांव जिलोंपर था । इन कदम्बोंकी राजधानी बनवासी अथवा वैजयन्ती थी, जिसका उल्लेख यूनानी लेखक टोल्मीने किया है एवं श्री जिनसेनाचार्यने जिसे हरिवंशी राजा ऐलेयके वंशन नृप चरम द्वारा अस्तित्वमें माया बताया है । सारांशतः बनवासी एक प्राचीन नगर था | बनवासी के कदम्बोंके सगोत्री कदम्ब गोमा और हाङ्गलमें भी शासन करते थे; परन्तु वे विशेष बलवान और समृद्धिशाली नहीं थे । बनवासीके कदम्बोंका राज्यकाल सन् २५० 3 " १-आइई०, पृ० २३६. २ - जमीस्रो० भा० २१ पृष्ठ ३१३-३१५. 3- हरि० सर्ग १७ व संजइ०, मा० ३ खण्ड १ पृष्ठ ४७. ૨ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] संक्षिप्त जन इतिहास । ई० से ६०० ई० तक अनुमान किया जाता है । जब कि गोमा मौर हांगलके कदम्बोंने सन् १०२५ से १२७५ ई० तक राज्य किया था। गोआके कदम्बोंकी राजधानी हल्सी (बेलगांव) थी। कदम्बोंकी उत्पत्तिके विषयमें कुछ भी निश्चित नहीं किया जासकता, क्योंकि इस विषयमें प्राचीन कदम्ब वंशकी मान्यतायें अनुपलब्ध हैं। किन्तु यह स्पष्ट उत्पत्ति । है कि कदम्बोंके मादि पुरुष मुक्कण्ण ब्राह्मण वर्णके वीर पुरुष थे । उपरांतके वर्णनोंमें इस वंशकी उत्पत्ति शिव और पारवतीके सम्बन्धसे हुई बताई गई है और एक कथामें उन्हें नन्द राजाओंका उत्तराधिकारी लिखा है। परन्तु यह कथन विश्वसनीय नहीं है। वास्तवमें कदम्म वंशके राजालोग कर्णाटक देशके अधिवासी थे और उनका गृहवृक्ष (guardian tree) 'कदम्ब' था, जिसके कारण वह 'कदम्ब' के नामसे प्रसिद्ध हुये थे। तामिल साहित्यमें कदम्बोंका मुलनाम 'ननन' और ऊन्हें स्वर्णोत्ादक 'कोकानम्' प्रदेशका राजा लिखा है। साथही तामिल ग्रन्थकार उनका उल्लेख ‘कडम्बु' नामसे करते हैं । अतः विद्वानों का अनुमान है कि इन्ही प्राचीन नन्नन कदम्बोंसे बनवासीके कदम्बराजाओं का सम्पर्क था। संभवतः उनकी उत्पत्ति इन्ही नन्नन-कदम्बोमेसे हुई थी। प्रारम्भमें कदम्बवंशके राजागण वेदानुयायी ब्राह्मणों के भक्त १-अमीयो०, भा० २१ पृ. १४-१६. २-जमीसो०, भा० २७ पृ. ३२४-३२. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लव और कादम्ब राजवंश। [१९ MINITIANIMAWWAIIMARITHIKRAMIRINKINNNNNNARNATAKranARAM N: थे। उन्होंने ब्राह्मण धर्मको उन्नत बनानेके लिये भरसक प्रयत्न किये थे। संयुक्त प्रांतीय बरेली जिलेके अहिच्छत्र स्थानसे ब्राह्मणों को बुला कर मुकुण्ण कदम्बने कर्णाटक देशमें मयूरशर्मा । वसाया था। मुकुण्णके उत्तराधिकारी त्रिलोचन, मधुकेश्वर, मल्लिनाथ और चन्द्रवर्मा थे। चंद्रवर्माका उत्तराधिकारी मयूरवर्मा था, जिसे मयूरशर्मा भी कहते थे। वस्तुतः मयूरशर्मासे ही कदम्ब वंशका ठीक इतिहास प्रारम्म होता है। उसके द्वारा ही कदम्ब वंशका अभ्युदय विशेष हुमा था। इसी कारण उसे ही कदम्ब वंशका संस्थापक कहते हैं। मयूरशर्मा स्तनकुन्डुर अग्रहारसे सम्बन्धित एक श्रद्धालु ब्राह्मण था। वह एक दफा अपने गुरु वीरशर्माके साथ पल्लवराजधानी काञ्चीमें विद्याध्ययन करने के लिये गया । वहाँ एक पल्लव सैनिकसे उसकी तकरार होगई; बिससे . चिढ़कर उसने बदला चुकानेकी ठान ली। मयूरशर्माने पल्लवों पर धावा बोल दिया और उनके सीमावर्ती प्रांतोंपर अधिकार जमाकर वह श्रीपर्वत् ( श्रीशैलम् ) पर अड्डा जमाकर बैठ गया । उपरान्त उसने बाणवंशी एवं अन्य राजाओंको भी अपने माधीन किया था। चन्द्रवल्लीके शिक्षालेखसे स्पष्ट है कि मयुरशर्माने त्रैकूट, मभीर, पल्लव, परियात्र, शकस्थान, पुनाट, मन्करि और अन्य राजाओंको परास्त किया था। इस प्रकार अपना एकछत्र राज्य स्थापित करके मयूरशर्माने धूमधामसे राज्याभिषेकोत्सव मनाया था। उसका राज्यका सन् २६०-३००१. बताया जाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] संक्षिप्त जैन इतिहास । AAAAAAMANASNNNNNNNN NAINENT.... (. मयूरवर्माका उत्तराधिकारी उसका पुत्र कंगुवर्मा था। जिसने सन् ३००-३२५ ई० तक राज्य किया कंगवर्मा-भगीरथ था । इसने भी कई एक लड़ाइयां लड़ी थीं। और रघु। उसके पश्चात् उसका पुत्र भगीरथ (३२५ ३४०) राज्याधिकारी हुआ था। इस राजाका शासनकाल संग्रामरहित शांति और समृद्धिपूर्ण था। इसकी ख्याति भी चहुँ ओर थी। किन्तु इसका पुत्र रघु (३४०-३६०) संग्राम और विजयों के लील क्षेत्र में राजसिंहासनारूढ़ हुआ। उसके मुख पर शत्रुओंके अस्त्रप्रहारों के अनेक चिह्न विद्यमान थे। उसने अपनी विजयों द्वारा कदम्ब राज्यका विस्तार इतना बढ़ाया था कि वह अकेला उसका प्रबंध नहीं कर सका था। परिणामतः पलासिकमें उसने अपने भाई काकुस्थको वायसराय नियुक्त किया था । ग्घु अपनी प्रजाका प्यारा था । शत्रु उसके नाम सुनते ही दहलते थे। वह वेदोंका प्रकाण्ड विद्वान् और एक प्रतिभाशाली कवि भी था। रघुके पश्चात् काकुस्थवर्मा (३६०-३९० ई०) राजा हुआ था। कदम्बर राजाओंमें वह महा बलवान कास्थवर्मा। था। अपने भाई ग्घुसे उसे न केवल विस्तृत साम्राज्य ही उत्तराधिकारमें मिला था, बल्कि सुप्रबन्धके लिये योग्य क्षमता भी उसने प्राप्त की थी। वह देखने में सुन्दर और अपने सम्बन्धियोंको मति प्यारा था । वह राज्यशासन करना अपना धर्म और स्वर्ग प्राप्तिका एक कारण समझता था। उसके राज्यकालमें प्रजा समृदिशालिनी थी भौर रुषिकी उन्नति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लव और कदम्ब राजवंश । [२१ हुई थी। काकुस्थकी महानता उसके विवाह सम्बन्धोंसे भी सष्ट है जो गुप्त सम्राट् एवं अन्य बड़े बड़े गजाओंसे हुए थे। उसने कई इमारतें और एक सुन्दर स्थम्म भी बनवाया था; जिसपर काव्यमई संस्कृत-भाषामें एक लेख अङ्कित है। महाराज काकुस्थवर्माके दो पुत्र ( १ ) शांतिवर्मा और ( २ ) कृष्णवर्मा थे। शांतिवर्मा बड़े थे; इसलिये वह पहले युवराजपदपर आसीन रहे और बादमें राजा हुये। उन्होंने सन् ३९० से सन् ४२० ई० तक गज्य किया था। वह समग्र कर्णाटक देशके राजा और तीन मुकुटोंके धारक कहे गये हैं, जिससे प्रस्ट है कि कदम्ब-साम्राज्य तीन भागोंमें विमक्त था एवं उसकी प्रथक-प्रथक तीन राजघानियां (१) बनवासी (२) उच्छशनी (३) और पलासिका थीं। पलासिकामें उसका भतीजा इनकी छत्रछायामें राज्य करता था। शांतिवर्मा के पश्चात् उसका पुत्र मृगेशवर्मा (सन् ४२०-११५) सिंहासनारूढ़ हुमा था। वह एक महा मृगेशवर्मा । पराक्रमी शासक था और उसे संग्राम एवं सन्धि परिचालनमें ही मानन्द माता था। कहते हैं कि वह पल्लवों के लिये बड़वानल मौर गङ्गोंका ध्वंशक था। मृगेशने के कय राजकुमारी प्रभावतीसे विवाह करके अपनी शक्तिको बड़ाया था भौर नवनी कन्या बाकाटक नरेश नरेन्द्रसेनको व्याही थी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] संक्षिप्त जैन इतिहास । AINIONLIMALAMAUNIALINIRAINRITHIKSHAMITICAINAILERNITINATIHAATIOAMRAKHIRAINITIONE मृगेशका पुत्र रविवर्मा अल्पायुमें ही राज्याधिकारी हुआ। इसीलिये राजतंत्रकी बागडोर उसके चाचा रविवर्मा। मानधातिवर्माके भाधीन रही थी। परन्तु मल्पकालमें ज्यों ही रविवर्मा पूर्ण भायुको प्राप्त हुये कि उन्होंने राज्यशासनका भार अपने सुयोग्य कन्धोंपर उठाया और पूरी अर्द्धशताब्दि (४५०-५००) तक सानन्द राज्य किया । बनवासीके कदम्ब राजाओंमें वही अन्तिम प्रभावशाली राजा था। उसका शासनकाल दीर्घ और समृद्धिपूर्ण था। रविवर्माने कई संग्राम लड़े थे और उनमें वह विजयी हुआ था। उसका चाचा विष्णुवर्मा जो पलासिकमें राज्य करता था, उसके खिलाफ होकर पञ्चोंसे ना मिला था; परन्तु रविवर्माने उन सबको परास्त किया था। रविके हाथसे विष्णुवर्मा और कांचीके चन्डदण्ड पल्लव तलवारके घाट उतरे थे। शासन प्रबन्धमें रविके छोटे भाई भानुवर्माने उसका खूब ही हाथ बंटाया था। रवि सन् ५०० ई० में स्वर्गवासी हुआ था। उपरांत रविका पुत्र हरिवर्मा कदम्ब राजसिंहासनपर बैठा । हरिवर्माका यह दावा था कि उसने जो परिवर्मा। भी धन सञ्चय किया है वह न्यायोपार्जित है। अपने पारंभिक जीवन में हरिवर्मा जैन धर्मानुयायी था, परन्तु अपने राज्यकालके सातवें-माठवें वर्षमें वह ब्रामणमतमें दीक्षित होगया था। हरिके पश्चात् महाराज कृष्णवर्मा द्वितीय राजा हुमा; जिसने मश्वमेष यज्ञ रचा था। खेद है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल और कदम्ब राजवंश । । २३ इसी के अंतिम समय में कदम्ब साम्राज्य छिन्न-भिन्न होगया था । इसका पुत्र शोक और कज्जाके मारे साधु ढोकर चला गया था । और पल्लवोंने अपना झण्डा कदम्ब साम्राज्य के भव्य - खंडहर पर ATRUD फहराया था । उपरांत कृष्णवर्मा द्वितीयका उत्तराधिकारी अजवर्मा हुआ ज़रूर, परन्तु चालुक्यराज कीर्तिवर्माने उसे न का बना छोड़ा | अजवर्मा के पुत्र भोगिवर्मा ने अपने मुजविक्रमसे कदम्बोंकी लुप्त हुईं श्रीको पुनः प्राप्त करनेका सदुद्योग किया और उसमें वह किंचित् सफल भी हुआ; परन्तु गन और चालुक्य वंशके राजाओंके समक्ष वह टिक न सका । चालुक्यराज पुलके सिन् द्वितीयने सन् ६१२ ई० में वनवासीपर अधिकार जमाकर कदम्ब शक्तिका मन्त कर दिया । ૧ कदम्ब वंशका पतन । कदम्ब राजघरानेक्का सम्बन्ध काकुस्थ - भन्वय और मानव्यस गोत्र से था । 'स्वामी महासेन' और 'मातृगण ' के अनुध्यानपूर्वक कदम्बराजा अभिषिक्त होते थे। यह स्वामी महासेन संभवतः कदम्ब वंशके कोई कुलगुरु थे । मातृगण से अभिप्राय उन स्वर्गीय माताओंक समूहक्क मालुम होता है, जिनकी संख्या कुछ लोग सात, कुछ आठ और कुछ और इससे भी अधिक मानते हैं । जान पड़ता है कि कदम्ब वंशके राजघराने में इन देवियोंकी कदम्बों की उपाधियां ! १ - जमीसो०, मा० २१ पृष्ठ ३१३-३२४. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | भी बड़ी मान्यता थी । कदम्ब राजगण ' हारिती पुत्र' भी कहलाते थे, जो संभवतः उनके घराने की कोई प्रसिद्ध और पूजनीया महिला थी। सिंह और बानर उनके ध्वनचिह्न थे, जो उनके सिक्कोंपर भी मिलते हैं । कमलका चिह्न भी उनके द्वारा प्रयुक्त हुआ था। उनका अपना अनोखा बाजा था, जिसे 'पेग्मत्ति' कहते थे। उनके विरुद " धर्म - महाराजाधिराज" और " प्रतिकृति - स्वाध्याय - चर्चा- पारा " थे । उन्होंने राजत्वके आदर्शको प्रजाहितके लिये कुछ उठा न रख कर खूब ही निभाया था | अन्याय से धन संचय करनेके वे विरुद्ध थे । प्रजाकी शुभ कामनायें उनके साथ थीं । वनवासी कदम्बकी मुख्य राजधानी थी और बेलगांव जिलेमें पलासिक तथा चितदुर्ग जिलेमें उच्छशृङ्गी कदंबों की राजधानियां उनकी प्रांतीय राजधानियां थीं, जहां उनके वायसराय रहा करते थे । त्रिपर्वत नामक एक और शासन प्रणाली | अन्य राजधानीका भी उल्लेख मिलता है। इन स्थानों पर राजकुलके पुरुष ही वायसराय होते थे। शासन व्यवस्थाकी सुविधा के लिये कदम्बोंने केंद्रीय शक्तिको कई विभागों में बांट दिया था। उनके लेखों में गृहसचिव, सचिव, प्रमुखप्रबन्धक आदिका उल्लेख हुआ मिलता है । साम्राज्यको भी कदम्बोंने • मण्डलों' और ' विषयों में विभाजित कर दिया था, जिसके कारण राज्यका प्रबन्ध करने में सुविधा होगई थी । अनेक ग्रामोंका " १- हि० भा० १४ पृ० २२५... व जमीसो० भा० २२ १० ५६. , २ - जमीसो०, मा० २२ ५० ५६-५७. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat , www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लव और कादम्ब राजवंश [२५ समूह ' विषय ' कहलाता था और कई विषयोंका समुदाय एक • मण्डल ' होता था । एक प्रांतके अन्तर्गत ऐसे कितने ही मण्डल होते थे, जिनपर एक वायसराय शामन करता था। दस मांडलिकोंके ऊपर एक राजकुमार शासन और कर वसुल करने के लिये नियुक्त किया जाता था । प्रजापर ३२ प्रकारका कर लगाया जाता था; परन्तु ग्रामवासी इन सब ही प्रकारके करोंसे मुक्त थे। उनसे फसलकी उपजसे दस प्रतिशत राज्यकर वसूल किया जाता था। भूमिका नाप-तोल लिखा जाता था और नापका परिमाण · निवर्तन' कहलाता था. जो राजाके पैके बराबर होता था । अनाजको तोलनका परिमाण 'स्वण्दुक' कहा जाता था । यदि कोई ग्राम अथवा भूमि किसी धर्म-संस्थाको भेट कर दी जाती थी, तो उसकी घोषणा भासपासके ग्रामोंमें करा दी जाती थी और सरकारी कर्मचारीगण उस ग्राममें जाते भी नहीं थे । कदम्बोंके सिक्के 'पद्मटंक' कहलाते थे, जिनपर पद्म आदि पुष्प तथा सिंह आदि पशुओंके चित्र बने होते थे। कदम्बोंने अपने ही ढंगके सुन्दर मन्दिर और मनहर मूर्तियां बनवाई थीं; जिनके नमूने हल्मीमें ' सप्रमातृक' मूर्ति एवं बादामी आदिके मन्दिर हैं।' कदम्बवशी गजाओंके अभ्युदयकालमें दक्षिण भारतमें प्राचीन नागपूजाके अतिरिक्त ब्राह्मण, जैन और कदम्ब राजा और बौद्ध. यह तीनो ही भार्यधर्म प्रचलित थे। जैन धर्म। जनतामें नागभक्तोंके उपरांत सबसे अधिक १-जमीसो॰, भा॰ २२ पृ. ५६-५९. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । संख्या जैनोंकी ही थी। प्राचीन चैर, पांड्य और पल्लव राजवंशोंके प्रमुख पुरुष जैन धर्मके भक्त थे। उधर पूर्वीय मैसूरमें गवंशके प्रायः सब ही राजाभोंने जैन धर्मको स्वीकार किया और माश्रय दिया था। किन्तु कदम्ब वंशके गजामोंने प्रारम्भमें ब्राह्मण मतको उन्नत बनानेका उद्योग किया। उनमेंसे कई राजाओंने हिंसक मश्वमेघ यज्ञ भी रचे थे; परन्तु उपरांत वह भी जैन धर्मकी दयामय कल्याणकारी शिक्षासे प्रभावित हुये थे। मृगेशसे हरिवर्मातक कदम्ब राजाभोंने जैन धर्मको आश्रय दिया था। मृगेशवर्माका गार्ह स्थिक जीवन समुदार था। उनकी दो रानियां थीं । प्रधान रानी जैन धर्मानुयायी थी, परन्तु दूसरी रानी प्रभावती ब्राह्मणोंकी अनन्य भक्त थी। मृगेश स्वयं जैन धर्मानुयायी थे। उन्होंने अपने राज्यके तीसरे वर्ष जिनेन्द्रके अभिषेक, उपलेपन, पूजन, भन्न संस्कार ( मरम्मत ) और महिमा (प्रभावना) कार्योंके लिये भूमिका दान किया था। उस भूमिमें एक निवर्तन भूमि खालिश पुष्पोंके लिये निर्दिष्ट थी। मृगेशवर्माका एक दूसरा दानपत्र भी मिलता है, जिसमें उन्हें 'धर्ममहाराज श्री विजयशीव मृगेशवर्मा ' कहा है और जो उसके सेनापति नरवरका लिखाया |-After the Naga worship, Jainism claimed the largest number of voteries.-QJus xxII, 61. २-जमीसो॰, भा॰ २२, पृ. ६१. 3-जमीसो०, मा. २१, पृ. ३२१. ४-जेहि०, भा० १४, पृ० २२६-"श्री मृगेश्वरवर्मा आत्मनः राज्यस्य तृतीये वर्षे...वृहत् परलूरे (1) त्रिदशमुकुट परिषचारचरणोभ्यः परमाहदेवेभ्यः संमार्जनोपलेपनाभ्यञ्चनभ मसंस्कार महिमाये...एकं निवर्तनं पुष्पार्थे।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लव और कादम्ब राजवंश । [२७ EXTER N ATAKAR..Karamanane .... Tunxx हुआ है। इस दानपत्रद्वारा उन्होंने कालबङ्ग नामक ग्राम भईत् पूजा मादि पुण्य कार्यों के लिये दान किया था। मृगेशव का पुत्र रविवर्मा भी अपने पिताके समान जैनधर्म भक्त था। उनका एक दानपत्र हरसी ( बेलगांव ) से मिला है और उसमें लिखा है कि:" महागज रविने यह अनुशासन पत्र महानगर पलासिकमें स्थापित किया कि श्री जिनेन्द्रकी प्रभावनाके लिये उस ग्रामकी आमदनी से प्रतिवर्ष कार्तिकी पूर्णिमाको श्री भष्टाह्निकोत्सव, जो लगातार माठ दिनोंतक होता है, मनाया जाया करे; चातुर्मासके दिनोंमें साधुओंकी वैयावृत्य किया जाया करे और विद्वज्जन उस महानताका उपभोग न्यायानुमोदित रूपमें किया करें । विद्वत्मण्डलमें श्री कुमारदत्त प्रधान हैं, जो अनेक शास्त्रों और मुभाषितोंके पारगामी हैं, लोकमें प्रख्यात हैं, सच्चारित्रके आगार हैं, और जिनकी संप्रदाय सम्मान्य है। धर्मात्मा ग्रामवासियों और नागरिकोंको निरन्तर जिनेन्द्र भगवान्की पूजा करना चाहिये । जहां जिनेन्द्रकी पूजा सदैव की जाती है वहां उस देशकी अभिवृद्धि होती है, नगर आधि-व्याधिके भयसे मुक्त रहते हैं और शासकगण शक्तिशाली होते हैं।" रविवर्माका उक्त दानपत्र जैनधर्ममें उनके दृढ़ श्रद्धानको प्रकट करता है । वह स्वयं श्रावकके दैनिक कर्म, जिनपूजा और दानका अभ्यास करते मिलते हैं और अपनी प्रजाको भी इस धर्मका पालन १-हि., मा० १४ पृ. २२७. २-जैसाई. पृष्ठ ४७-४८. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] संक्षिप्त जैन इतिहास । ANNNNN N N . ... .. . .. ... करने के लिये उत्साहित करते हैं । उनके समान धर्मात्मा शासकोंके समयमें जनता धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थोका समुचित पालन करके उनके सुमधुर फलका उपभोग करती थी। रविवर्माका माई भानुवर्मा भी जैनधर्मका परम-भक्त था। उन्होंने भी जिनेन्द्रके भभिषेकके लिये भूमिदान दिया था। जिससे प्रत्येक पूर्णिमाको अभिषेक हुआ करता था। भानुवर्माके इस दानपत्रको उनके कपापात्र प ण्डर नामक भोजकने लिखा था, जो अपने स्वामीके समान ही दृढ़ आईत-भक्त था ।' विवर्माका उत्तगधिकारी हरिवर्मा भी अपने प्रारम्भिक जीवनमें जैनधर्मका श्रद्धालु था; परन्तु अपने अंतिम जीवन वह शैव होगया था। हरिवर्माने अपने चाचा शिवस्थक कहने पर हल्सीका दानपत्र लिखाया था, जिसके द्वारा उसने अच्छशङ्गीमें एक गांव कूर्चक संघके श्री वारिषेणाचार्यको महतपूजाके लिये प्रदान किया था तथा महरिष्टि संघके चन्द्रक्षांत भाचार्यको भी भारद्वाजवंश के सेनापति सिंह के पुत्र मृगेश द्वारा निर्भित महत् मंदिरमे अभिषेक करने के लिये भूमिदान दिया था। सेन्द्रकवंशके नृप भानुशक्तिके कहने पर हरिवर्माने एक और दानपत्र लिखा था, जिसके द्वारा उन्होंने श्रमणाचार्य श्री धर्मनन्दिको महत्पूजाके लिये मारदे नामक ग्राम भेंट किया था। इस प्रकार उपर्युल्लिखित कदम्बवंशी गजाओंके शासनकालमें जैनधर्म अभ्युदयको प्राप्त हुमा १-गैब०, पृ० २७९ व जैसाई०, पृष्ठ ४९. २-गैब०, पृ. २९., प्रो. भाण्डारकरने आचार्यका नाम वारिषेण लिखा है, जबकि प्रो. एस. भार० शर्मा उनका नाम वीरसेनाचार्य लिखते हैं । (जैसाई०, पृ. ५०). -जेसाई पृ. ५०. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लव और कादम्ब राजवंश। [२९ था-परम महिंसाधर्म सर्वत्र प्रसारित हुआ था, धर्मके नामपर पशुओंकी निरर्थक हिंसा होना बन्द होगई थी। सर्वत्र अहिंसा और सत्य धर्मका दिव्य मालोक व्याप्त था। जैनत्वकी मुहर राजा और प्रजाके हृदयों पर लगी हुई थी। कदम्बों के राजकविगण जैनी थे, उनके सचिव और ममात्य जैनी थे; उनके दानपत्र लेखकगण भी जैनी थे और उनके व्यक्तिगत नाम भी जैनी थे। कदम्बोंक साहित्यकी रूपरेखा भी जैन काव्यशैली की थी। कदम्बोंकी राजधानी पलासिकामें जैनोंकी भिन्न संपदायों अर्थात यापनीय, निग्रन्थ, कूर्चक, महराष्टि गौर श्वेतपट संघोंके आचार्य शांतिपूर्वक रह कर धर्मप्रचार करते थे। जैनत्वका यह प्रबल रूप उपरांतके शैव कदम्ब गजाओंको मी प्रभावित करने में सफल हुआ था । ब्राह्मणभक्त होने और अश्वमेघ रचनेपर भी उन्होंने जनोंको दान दिये थे। धर्म महाराज श्री कृष्णवर्मा द्वितीयके प्रिय पुत्र युवराज देववर्माने त्रिपर्वतके ऊपर का कुछ क्षेत्र अर्हत् भगवान के चैत्यालयकी मरम्मत, पूना और महिमाके लिये यापनीय संघको दान किया था। दानपत्रमें देववर्माको · कदम्ब-कुर-केतु'- रणप्रिय- दयामृतमुखास्वादप्तपुण्यगुणेप्सु - देववम्मैकवीर' लिखा है, जिससे उनके १-" Their ( Kadambas' ) poets were Jains; their ministers were Jainas; some of their personal names were Jaina ; the donces of their grants were Jaina-The type of literature as evidenced by the Goa copper-plates was of the Jaina Karya Kind-Prof. B. S. Rao. साइंजे०, भा० २ पृष्ठ ४५. २-जमीयो०, मा० २२ पृ. ६१. ३-जैसाई०, पृ० ५१. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] संक्षिप्त जैन इतिहास । महान् व्यक्तित्वका पता चलता है । सारांशतः कदम्ब वंशके राजाओं द्वारा जैन धर्मका अभ्युदय विशेष हुमा था। कदम्ब-साम्राज्यमें दिगम्बर जैन धर्म ही प्रबल था, यद्यपि उस समय वह कई संघों जैसे यापनीय. जैन संप्रदाय। कूर्चक, अहिरिष्ट आदिमें विभक्त होगया था। परन्तु दिगम्बर जैनोंके साथ ही श्वेताम्बर जैनोंका अस्तित्व भी कदम्ब राज्यमें था। कदम्ब दानपत्रोंमें उनको · श्वेतपट ' लिखा गया है, जब कि दिगम्बर जैनोंका उल्लेख · निन्थ ' नामसे हुआ है ।' मालूम ऐसा होता है कि उस समयतक दिगम्बर जैनी अपने प्राचीन नाम ' निम्रन्थ ' से ही प्रसिद्ध थे। उनके साधु नंगे रहा करते थे, जिनका मनुकरण श्वेतपत्र जैनों के अतिरिक्त शेष सब ही संप्रदायों के जैनी किया करते थे । अहिरिष्ट निर्ग्रन्थ संभवतः कलिङ्ग देशतक फैले हुए थे, क्योंकि बौद्ध ग्रंथ ' दाठा वंश' से प्रगट है कि कलिङ्गका गुहशिव नामक राजा महिरिक-निग्रन्थों का भक्त था। जब गुहशिवके बौद्ध मंत्रीने उसे जैन धर्म के विमुख भर दिया था, तब यह निग्रन्थ पाटलिपुत्रके राजा पांडुके भाश्रयमें जारहे थे।' हमारे विचारसे यह अहिरिकनिर्गन्ध और कदम्ब दानपत्रमें उल्लिखित महिरिष्ट-निर्ग्रन्थ एक ही थे। इन्हींका उल्लेख संस्कृत ग्रंथों में संभवतः महीक नामसे हुआ है। -जैहिक, मा. १४, पृ. २२०. २-दाठायो पृ० १०-१४ व विदिमु. पृ. ५० व १२४. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लव और कादम्ब राजवंश । [ ३१ यापनीय - संघकी उत्पत्ति तीसरी शताब्दिमें हुई कही जाती है । देवसेनाचार्य ने 'दर्शनसार' में लिखा है वर्ष पचत् कि विक्रमराजकी मृत्युके २०५ कल्याणनगर में श्वेतांबर साधु श्रीकलशने यापनीय दिगम्बर जैन संघ । यापनीय संघ की स्थापना की थी।' श्री रत्ननन्दिजी ' भद्रबाहु चरित् ' में इस संघकी उत्पत्तिके विषय में लिखते हैं कि कटक में राजा भूपाक राज्य करते थे, जिनकी प्रिय रानी नृकुलदेवी थीं। रानीने एकदा राजासे उसके गुरुओंको बुलाने के लिए कहा । राजाने बुद्धिसागर मंत्री को भेजकर उन गुरुओंको बुलवाया; किंतु जब वे आये और राजाने देखा कि वे दिगंबर न होकर वस्त्रधारी साधु हैं तो उसके आश्चर्यका ठिकाना न रहा । वह चुपचाप रनवासमें लौट आया । रानीको जब यह बात मालूम हुई तो वह जल्दी से अपने गुरुयोंके पास गई और उन्हें समझा-बुझाकर निर्ग्रन्थ दिगम्बर भेष धारण करा दिया। राजा उनका बाह्य भेष देखकर प्रसन्न हुआ। उन साधुओंकी शेष क्रियायें श्वेताम्बरीब साधुओंके समान रहीं इसीलिये वे लोग 'यापनीय' नाम से प्रख्यात होगये । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यापय संघके साधुओंने दिगम्बर और श्वेताम्बरोंके बीचमें 'मध्यमार्ग' ग्रहण किया था। वे रहते तो थे दिगम्बरोंकी तरह नंगे और दिगम्बर प्रतिमाओं की स्थापना कराते थे, परन्तु स्त्री मुक्ति और केवलीकवलाहार जैसे श्वेताम्बरीय सिद्धांतोको भी मानते थे । इसीलिये उनका अपना स्वाधीन अस्तित्व था । १- बेहि०, मा० १३. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२) संक्षिप्त जैन इतिहास । ज्ञात है शिलालेखीय शाक्षीसे यह ज्ञात है कि यापनीय संके सवाधुओंका कार्यक्षेत्र काईटाक देशके मासपास रहा है। केवल कदम्बवंशके राजाओंसे ही यापनीय संघ भाचार्योंने सम्मान पाया हो, यह बात नहीं है, बल्कि गठौर और चालुक्यवंशोंके राजाओंने भी उनके भाचार्योका मादर किया था। राठौर प्रभूतवर्ष ( ८१२ ई०) ने यापनीय संघके विजयकीर्ति के शिष्य अर्क कीर्तिको दान दिया था। इस दानपत्रमें यापनीय संघको नंदिगण और पुन्नाग-वृक्ष मूल संघसे सम्बन्धित लिखा है। पूर्वीय चालुक्यरान अम्म द्वितीय (९४५ ई०) ने भी यापनीय आचार्य दिवाकरके शिष्य मंदिग्देवको दान दिया था। ईस्वी १४ वीं शताब्दि तक यापनीय संघके अस्तित्वका पता चलता है। उपरांत वह दिगम्बर संघमें ही अन्तर्मुक्त हुआ प्रतीत होता है। कदंब और पल्लव राज्यकाल के अंतर्गत जैन संघमें बहुत-कुछ उथल पुथल हुई प्रतीत होती है। जैन संघमें जैन संघकी दिगम्बर और श्वेतांबर संघभेद हुये सौ-दोस्थिति। सो वर्ष ही व्यतीत हुये थे कि यापनीय संघका जन्म हुआ मिलता है। हमारे खयालसे यापनीय संघकी स्थापना द्वारा उन आचार्योंका भाव पुनः एक दफा जैन संघको मिलाकर एक बना देना था; परन्तु वह भाचार्य अपने इस उद्योगमें सफल नहीं हुये । उल्टे दिगम्बरों और १-जर्नल भाव दी यूनीवर्सिटी ऑव बोम्बे, मा० , संख्या में प्रगट प्रो० उपाध्येका लेख देखिए। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पछव और कादम्ब राजवंश। [३३ श्वेतांबरोंमें अनेक संघ और गच्छ उत्पन्न होगए । उपरान्त यापनीयोंके प्रति जो कट्टरताका बर्ताव दिगंबर किया करते थे, उसमें भी शिथिलता आगई; यही कारण है कि उपरांतके शिलालेखोंमें यापनीय आचार्यों की गणना नन्दिगण मौर पुनाग-वृक्ष-मूलसंघमें की गई है। जैन संघके साधुओंमें जिस प्रकार साधु जीवनकी क्रियाओंको लेकर मतभेद और संघभेद हुये, उस प्रकार उनके भक्त श्रावक परस्पर अनैक्यमें गृसित हुये नहीं मिलते । श्रावकोंका मुख्य कर्तव्य दान देना और देवपूजा करना रहा है। इस समयके शिलालेखोंमें इन दो बातोंकी ही मुख्यता मिलती है । श्रावक धर्मायतनोंके लिये दान देते हुये मिलते हैं तथा जिनेन्द्र पूजाको प्रकर्षता भी वे दिया करते थे। दान, जिनेन्द्र पूजनके अतिरिक्त साधुओंको आहारदान देने के लिये भी किया जाता था और एक ही दातार उदारतापूर्वक सब ही सम्प्रदायों के साधुओंको दान देता था। श्रावकोंमें कट्टरता प्रतीत नहीं होती। उनकी पूजाके लिये जो मूर्तियां निर्मापित की जाती थीं वे प्रायः एक-समान दिगम्बर होती थीं। बेलगाममें यापनीय संघ द्वारा प्रतिष्ठित और स्थापित हुई जिन प्रतिमायें हैं, जिनकी पूजा आज भी दिगम्बरी निसंकोच भावसे कर रहे हैं।' उस समयके श्रावकोको धर्म प्रभावना ( महिमा ) का भी ध्यान था। नया मन्दिर बनवाने के साथ ही वे पुराने मंदिरोंका जीर्णोद्धार करते थे। अन धर्मका प्रकर्ष तबतक इतना अधिक था कि तिरुज्ञान समन्दर और अपर सदृश विधर्मी भाचार्योको १-पूर्व प्रमाण पृष्ट २२८. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास। जैनधर्म और इतर उनसे मोर्चा लेना पड़ा था। उन्होंने अपने संपदाय। ग्रंथोंमें जैनोंका खूब ही उल्लेख किया है। इस प्रकार जैनोंको उस समय अपने घरमें उत्पन्न मतविग्रहको शमन करनेके साथ ही विधर्मी लोगोंसे भी मुकाबिला लेना पड़ता था। इस मावश्यक्ताका अनुभव करके ही मालम होता है, उन्होंने अपना संगठन किया था। 'दिगम्बर दर्शन' नामक ग्रन्थसे प्रगट है कि सन् ४७० ई० में श्री पूज्यपादके शिष्य वज्रनन्दिने मदुरामें 'द्राविड संघ' की स्थापना की थी; जिसमें वे सब ही जैन साधु सम्मिलित हुये थे जो दक्षिण भारतमें जैन धर्मका प्रचार करने में व्यस्त थे ।' ब्राह्मण लोग अपने साहित्य संघमें जैनोंको स्थान नहीं देते थे। इस अपमानको उस समयके विद्वान् जैन साधु सहन नहीं कर सके। उन्होंने अपना अलग 'संघ' स्थापित किया और धर्म एवं साहित्यकी उन्नतिमें संलम होगये । अजैनों पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ा और जैनी अपनी संस्कृतिको सुरक्षित रखने और साहित्यको उन्नत बनाने में सफल हुये। अजैन शास्त्रकारोंने जैनधर्मका अध्ययन करना भावश्यक समझा । सम्बन्दर और अप्पर एक समय तत्कालीन जैनधर्म । स्वयं जैनी थे । जैन धर्मका अध्ययन करके उन्होंने अपने शास्त्रों में उसका खंडन किया २-साइं०, भा० १ पृ. ५२. इन्दनन्दिजीने 'नीतिसार' में द्राविद संपकी गणना पंच जैनाभासों में की है। परन्तु शिलालेखीय पाक्षीसे उसका सम्माननीय होना प्रमाणित है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लव और कादम्ब राजवंश। [१५ है। फिर भी जो कुछ भी उन्होंने लिखा है उससे तत्कालीन जैन धर्मके स्वरूपका पता चलता है । इस समय अर्थात् ई० ७ वीं८ वीं शतान्दि तक जैनधर्मका केन्द्र मदुरा ही था। उसके भासपास भनेमले, मसुमले इत्यादि जो माठ पर्वत थे, उन पर जैन धर्मके भग्रणी साधु लोग रहा करते थे। उन्हींके हाथमें जैन संघका नेतृत्व था। वे जैन साधुगण एकान्तमें रहते थे-जन समुदायसे प्रायः कम मिलते थे। वे प्राकृत भाषा बोलते और नाकके स्वरसे मन्त्रोंका उच्चारण करते थे। वेद और ब्राह्मणों का खंडन करनेमें हमेशा तत्पर रहते हुए वे तेज धूपमें ग्राम-ग्राम विचरते थे। उनके हाथों में मक्सर एक छत्री, एक चटाई और एक मोर पिच्छिका रहती थी। इन साधुओंको शास्त्रार्थ करने का बड़ा चाव था और अन्य मतके भाचार्योको बाद परास्त करने में उन्हें मजा भाता था । वे देशलुञ्चन करते और स्त्रियों के सम्मुख भी नम रहते थे । माहारके पहले वे अपने शरीरोंको स्वच्छ (सान ) नहीं करते थे। वे घोर तपस्या करते थे और माहारमें सोंठ तथा मरुतवृक्ष (?) की पत्तियां अधिक लेते थे। वे शरीरमें भस्म (gallnut powder ) भी रमाते थे। वे यंत्र-मंत्रके अभ्यासमें दक्ष थे और अपने मंत्रोंकी खूब प्रशंसा करते थे ।' जेन साधुओंके इस वर्णनसे उनका प्रभावशाली होना स्पष्ट है। वे ज्ञान-ध्यान और तपश्चरणमें लीन रहने के साथ ही जैनधर्म प्रभावनाके लिए हरसमय दत्तचिस रहते थे। इसका मर्थ यह है कि 'वे महान् पण्डित थे। उनके नेतृत्व जैनधर्मका मभ्युदय हुभा था। १-साइजैक मा० १, पृ. 0-1. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | ( २ ) गङ्ग-राजवंश | दक्षिण भारतमें मन्ध्रराजवंश शक्तिहीन होनेपर ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियोंमें जो राजवंश शक्ति शाली हुये थे, उनमें गङ्ग- राजवंश भी एक प्रमुख राजवंश था । पल्लव, कदम्ब, इक्ष्वाकु आदि राजवंशों के साथ ही इसका भी अभ्युदय हुआ था और वर्तमान मैसूर राज्य में वह शासनाधिकारी था । यद्यपि गङ्ग राजवंशकी उत्पत्तिके विषय में कई किम्बदन्तियाँ प्रचलित हैं परन्तु यह स्पष्ट है कि दक्षिण भारतका वह अत्यन्त प्रतिष्ठित राजकुल था। गङ्गवंशकी अपनी अनुश्रुति इस विषय में यह है कि इक्ष्वाकुवंशी हरिश्चन्द्रके पुत्र भरत थे, जिनकी रानी विजयमहादेवीने एक दिन गंगा स्नान किया और वरदानमें गङ्गदत्त नामक पुत्र पाया । इन्हीं गङ्गदत्त की सन्तति 'गङ्ग' वंशके नामसे प्रसिद्ध हुई। उज्जैन के राजा महीपालने जब गङ्गपर आक्रमण किया तो पद्मनाम गङ्गने अपने दो पुत्रोंदिदिग और माधवको राजचिह्नों सहित दक्षिणकी ओर भेज दिया । उनके चचेरे भाई पहले से ही कलिङ्गमें राज्य कर रहे थे। इन दोनों भाइयोंने एक जैनाचार्य की सहायता से गङ्गराज्यकी स्थापना की । कलिङ्गके गङ्ग राजाओंके शिलालेखों में भी गंगास्नान के वरदानस्वरूप जन्मे हुये गाङ्गेयकी सन्तान 'गङ्ग' राजा कहे गये हैं । गङ्गनृक गङ्ग- राजवंश | १ - दुका० ७१२२५, २३६ व ३५: २- गङ्ग० पृष्ठ ५-६. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग राजवंश। [३७ दुर्वनीत के गुम्मरेड्डिपुरके दानपत्र में गङ्गराजाओंको यदुकुल शिरोमणि कृष्णमहारा जसे सम्बन्धित बताया है। स्व० जायसवाल जीने गङ्गकुलको मगधके कण्ववंशी राजाओंकी सन्तान भनुमान किया था; क्योंकि अंतिम घण्वराजा आन्ध्र नृपको पकड़कर दक्षिण लेगये थे और गङ्गोंका गोत्र भी कण्वयन है। एक अन्य विद्वान् अनुमान करते हैं कि वे कोदेशमें राज्य ___ करनेवाले राजाओं के वंशज हैं। 'कोअदेश कोडदेशके राजा। राजाक्कल' में इन राजाओंके नाम निम्न प्रकार लिखे हैं:बीरराय चक्रवर्ती-गोविंदराय-कृष्णराय-कालवल्लभ-गोविंदराय-कन्नर ( कुमार ) देव-तिरुविक्रम । गङ्गवंशके पहले राजाका नाम कोङ्गुणिवर्मन् था और उपरांत कई गङ्गराजाओंके वैसे ही नाम थे जैसे कि कोडदेशके उपरोक्त राजामोंके थे। उपर्युल्लिखित कालवल्लभ, गोविन्द और कन्नर राजाभोंके राजमन्त्री नागनन्दि नामक जैनी थे। ऐसे ही कारणोंसे कोदेशके प्राचीन राजवंशसे गङ्गराजवंशका सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। किन्तु यह स्पष्ट है कि उनका सम्पर्क इक्ष्वाकुवंशसे था। सन् २२५ ई. से सन् ३४५ ई. तक इक्ष्वाकु वंशके राजाओंने आंध्र देशमें कृष्ण नदीसे उत्तर दिशामें स्थित देशपर राज्य किया था। श्री कृष्णरावका अनुमान है कि १-पूर्व प्रमाण । २-पूर्व प्रमाण। 3-जमीयो०, भाग २६, पृ. २४७-२५४. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] संक्षित जैन इतिहास । REAMINARIYANAINAAMANARTHAN इन्हीं इक्ष्वाकु राजाओंकी सन्ततिमें गड राज्यके संस्थापक भ्रातृयुगल थे । उधर यूनानी लेखक लिनीने कलिङ्गके गङ्गोंका उल्लेख 'गरिडै कलिङ्गे' (Gangeridae Kalingae) नामसे किया है। गङ्ग शिल लेखों और यूनानी लेखकोंके वर्णनसे यह भी मनुमान होता है कि गङ्गोंके आदि पुरुष गङ्गा नदीके पासवाले प्रदेशमें बसते थे । वहांसे उपरांत वे कलिङ्ग और दक्षिण भारतको चले गए थे। सारांशतः गङ्गोंका सम्बन्ध इक्ष्वाकु छत्रियों और गङ्गा नदीसे स्पष्ट है। अच्छा, तो ईसाकी प्रारम्भिक शताब्दियों में इक्ष्वाकु-क्षत्रियोंके दो राजकुमार पेरूर नामक स्थानपर माये । दिदिग-माधव व यह दोनो राजकुमार भाई-भाई थे और सिंहनंदी आचार्य । इनके नाम दिदिग और माधव थे। पेरूरमें, जो उपरांत वहांपर गा राज्यकी स्थापना होने के कारण गह-पेरूर' नामसे प्रसिद्ध होगया, उन दोनों भाइयोंको श्री सिंहनन्दि नामक जैनाचार्य मिले। उन्होंने जैनाचार्यकी बन्दना की और उन्हें अपना गुरु स्वीकार किया। सिंहनन्दाचार्यने उन्हें समुचित शिक्षा प्रदान की और पद्मावतीदेवीसे उनके लिये एक वरदान प्राप्त किया। उन्होंने उन राजकुमारोंको एक तलवार भी भेट की भौर उनका राज्य स्थापित करा देनेका वचन दिया । गुरु महाराजके इस माश्वासनसे उन दोनो भाइयोंको पतीव पसमता १-गा, पृ. ९. २-प्रोसीडिंगस भाठवीं आल इंडिया भोरियंटल कास, मसूर, पृ० ५७२-५८२. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। [३९ हुई और माधवने जयकारेके साथ वह तलवार हाथ में ली और अपना पौरुष प्रगट करने के लिये उसके एक बारसे एक शिलाके दो टुकड़े कर डाले । सिंहनन्दिस्वामीने यह एक शुभ शकुन समझा और 'कनिकर कलिकामो' का एक मुकुट बनाकर उनके शीशपर रख दिया तथा अपनी मोपिच्छिका ध्वजरूपमें उन्हें भेट की। साथ ही आचार्य महाराजने उन भाइयों को प्रतिज्ञा कराके मादेश दिया कि “ यदि तुम अपनी प्रतिज्ञा मङ्ग करोगे, यदि तुम जैन शासनके प्रतिकूल जाओगे, यदि तुम पर-स्त्री-लम्पटी होगे, यदि तुम मद्य-मांस भक्षण करोंगे, यदि तुम दान नहीं करोंगे, और यदि तुम रणाङ्गणसे पीठ दिखाकर भागोगे तो निश्चय तुम्हारा कुल नाशको प्राप्त होगा। " इस मादेशको दोनों भाइयोंने शिरोधार्य किया । उस समय मैसूर ( जो तब गणवाडीके नामसे प्रसिद्ध था ) ये जैनियोंकी मधिक संख्या थी और उनके गुरु भी श्री सिंहनन्दि भाचार्य थे। गुरु आज्ञा मानकर जनताने दिदिग और माधवको भपना राजा स्वीकार किया । इस प्रकार श्री सिंहनंदि आचार्यकी सहायतासे गङ्ग राज्यका जन्म हुआ और इस राज्य में अधिकृत प्रदेश · गनवाड़ी ९६००० ' के नामसे प्रख्यात हुमा ।' उस समय गङ्गवाडीकी सीमायें इस प्रकार थीं-उत्तरमें उसका विस्तार मरन्डले ( Marandale ) तक था, गङ्ग राज्य। पूर्व दिशामें वह टोन्डैमंडलम् तक फैला हुमा ____था, पश्चिममें चेर राज्यका निकटवर्ती समुद्र १-गह, पृ. ५-७, इका० व जैशिसं० भूमिका पृ. ७१-७२. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] संक्षिप्त जन इतिहास। था और दक्षिणमें कोङ्देश था । सारांशतः माधुनिक मैसूरका अधिकांश भाग गङ्गवाडीमें अंतभुक्त था और मैसूर में जो आज कल गङ्गडिकार ( गङ्गवाडिकार ) नामक किसानोंकी भारी जन संख्या है वे गङ्गनरेशोंकी प्रजाके ही वंशज हैं। गङ्गराजाओंकी सबसे पहली राजधानी 'कुवलाल' व 'कोलार' थी, जो पूर्वी मैसूरमें पालार नदी के तटपर है। पीछे राजधानी कावेरीके तट पर 'तलकाड' को हटा लीगई जिसे संस्कृत भाषामें तलवनपुर कहा गया है। सातवीं शताब्दिमें मन्कुण्ड ( चन्नपाटनसे पश्चिममें ) राजगृह रक्खा गया और आठवीं शताब्दिमे श्री पुरुष नामक गङ्गनरेशने अपनी राजधानी बङ्गलोरके समीप मान्यपुर भी नियुक्त की थी। गङ्गोंका राजचिह्न 'मदगजेन्द्र लाञ्छन' (मत्त हाथी) और उनकी राजध्वजा 'पिञ्छध्वज' थी, जो फूलोंसे अंकित थी। दक्षिणके राजवंशोंमें वह प्रमुख जैन धर्मानुयायी गजवंश ५।' गङ्गोंकी राजवंशावली, इतिहास और उनकी तिथियों उनके प्राप्त शासनलेखोंसे ही संकलित किये गये हैं, जिसका संक्षिप्त-सार यहां पाठकोंके ज्ञान वर्द्धनार्थ उपस्थित किया जाता हैयह स्मरण रहे कि कलिङ्गके गङ्गोंसे भिन्नता प्रदर्शित करने के लिये मैसूरके गङ्गराजा 'पश्चिमी गङ्गवंशके दिदिग कोङ्गुणिवर्म । नरेश' कहे गये हैं। इन पश्चिमी गङ्गों के आदि नरेश दिदिग थे. जिनका दूसरा नाम कोणिवर्म अथवा कोन्कनिवर्मन भी था। दिदिगके इस नामको १-गङ्ग०, पृ. ८ व जैशि सं० पृ. ७ (भूमिका) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। [४१ उपरान्तके गङ्गराजाओंने विरूदरूपमें धारण किया था। यह ऊपर लिखा जा चुका है कि गङ्गगज्यके संस्थापक यही महापुरुष थे । दिदिगने मैसुरमें बाणावंशी राजाओंको परास्त किया और कोङ्कनतट पर अवस्थित माडलि पर अधिकार जमाया था। इस स्थानपर अपने गुरुके उपदेशसे उन्होंने एक जिन चैत्यालय निर्मापित कराया था।' मा सिंहके कुडलूर दानपत्रसे प्रकट है कि 'कोणिवर्मा (दिदिग ) ने श्री अर्हद्भट्टारकके मतके अनुप्रहसे महान शक्ति और श्री सिंहनन्दाचार्यकी कृपासे भुजविक्रम और पौरुष प्राप्त किये थे। इनके छोटे भाई माधव इनको राज्य संचालनमें सहायता देते थे । कहा जाता है कि दिदिगने अधिक समयतक राज्य किया था। दिदिगके पश्चात् उनका पुत्र किरिय (लघु) माधव राज्या धिकारी हुआ ! उनका उद्देश्य प्रजाको सुखी किरिय माधव । बनाना था। निस्सन्देह गङ्ग राजनीतिमें राजत्वका आदर्श सम्यक् रूपेण प्रजाका पालन करना था । ( सम्यक्-प्रजा-पालन-मात्राधिगतराज्य-प्रयोजनस्य ) माधव एक योद्धा होनेके साथ ही कुशल विद्वान थे। वह नीतिशास्त्र, उपनिषद, समाजशास्त्र आदि शास्त्रोंके पंडित थे। कवियों और पंडितोंका सम्मान वह स्वभावतः किया करते थे । उन्होंने — दत्तक सूत्र' नामक एक ग्रन्थ भी लिखा था ।र १-गङ्ग. पृ० २५-२६. २-जैसाइं० पृ० ५४. राइस सा० इनका गज्यकाल द्वितीय शताब्दि बतलाते हैं। एक दानपत्रमें उसका समय सन् १.३ ६० लिखा है। मैकु. पृ. ३२. २-गा. पृ० २१. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास | माधव और उनके पश्चात् दक्षिण भारतकी राजनैतिक परिस्थिति ने ऐसा रूप ग्रहण किया कि जिसमें राजनैतिक स्थिति । गङ्ग नरेशका ऐक्य सम्बन्ध पल्लवोंसे स्थापित होगया । पहले तो पल्लवने गङ्ग राज्यपर अधिकार जमाना चाहा; परन्तु जब कदम्ब राजाओंने उनसे विरोध धारण किया तो उनके निग्रह के लिये पलुवोंने गोंसे मैत्री कर ली । गङ्ग राज्यका बल इस संघिसे बढ़ गया और भागे चलकर वह अपना राज्यं सुदृढ़ बना सके । यह इस समयकी राजनीतिकी एक खास घटना है । १ ४२ ] माधव के उपरांत उनका पुत्र हरिवर्मा लगभग सन् ४३६ ई० में सिंहासनारूढ़ हुआ और सन् ४७५ ई० तक संभवतः उसका राज्य रहा । हरिवर्मा | पल्लवराज सिंहवर्म द्वितीयने उनका राजतिलक किया था। कहा जाता है कि हरिवर्माने युद्धमें हाथियोंसे काम किया था और धनुषका सफल प्रयोग करके अपार सम्पत्ति एकत्र की थी । इन्होंने ही कावेरी तटपर तलकाडमें राजधानी स्थापित की थी । इनकी सभा में ब्राह्मणोंने बौद्धोंको परास्त किया था। ब्राह्मणोंको 1 इन्होंने दान दिये थे । तगडूर के दानपत्र से प्रगट है कि इस राजाने एक किसानको अप्योगाल नामक गांव इसलिये भेंट किया था कि उसने हेमावतीकी लड़ाई में अच्छी बहादुरी दिखाई थी । वीरोंका सम्मान करना वह जानता था । 3 १-गम० १० २६-२०. २- बङ्ग० पृ० २९. ३- मेकु०, १०४३. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। । ४३ EMEN............... M .Mak हरिवर्माके उत्तराधिकारी विष्णुगोप हुये, जिन्होंने जैनमतको तिलाञ्जलि देकर वैष्णवमत धारण किया था। विष्णुगोप। उनके वैष्णव होने पर जो पांच राजचिह्न इन्द्रने गङ्गोंको दिये थे वह लुप्त होगये । दानपत्रोंमें इन्हें 'शक्रतुल्य-पराक्रम, नारायण-चरणानुध्याता, गुरुगोब्राह्मण पूजक' इत्यादि कहा है, जिससे इनकी धार्मिकता स्पष्ट होती है। राज्यसंचालनमें वह ब्रहस्पति तुल्य कहे गये हैं। विष्णुगोपका नाती और पृथ्वीगङ्गका पुत्र तदङ्गल माधव उनके बाद राजा हुआ। यह अपने पौरुष और तदङ्गल माधव । भुज विक्रमके लिये प्रसिद्ध था। वह एक नामी पहलवान भी था। वह व्यम्बकदेवका उपासक था और ब्रामणोंको उसने दान दिए थे। यद्यपि वह स्वयं शैव था परन्तु उसने जैन मन्दिरों और बौद्ध विहारोंको भी दान दिया था। उसके राज्यकालमें गणराज्यका उत्कर्ष हुमा था । कदम्बराज कृष्णवर्मन् द्वितीयकी बहन माधवको ब्याही थी, जिनकी कोखसे प्रसिद्ध गङ्गराना मविनीतका जन्म हुआ था । माधवने मी अपने वीर योद्धामोंका सम्मान किया था। अविनीतका राज्यतिकक उसकी माकी गोदमें ही होगया था। मालुम होता है कि उसके पिताने दीर्घकाल. अविनीत। तक राज्य किया था और वह उनके स्वर्गवासी हो जानेपर जन्मा था। कहा १-गा• पृ. १. २-मैकु., पृ. ३४. 3-14. पृ० ३१-१२. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] संक्षिप्त जैन इतिहास । जाता है कि एक दिन अविनीत कावेरी तटपर आये तो वहां उन्होंने सुना कि कोई उन्हें 'सतजीवी' कहकर पुकार रहा है । नदी पूरे वेगसे बह रही थी। अविनीत उसमें कूद पड़े और पार तैर गये । उनका ब्याह पुन्नाटके राजा स्कन्दवर्मनकी कन्यासे हुआ था। शासन लेखोंसे प्रगट है कि अविनीत की शिक्षा दीक्षा एक जैनकी भांति हुई थी। जैन विद्वान विजयकीर्ति उनके गुरु थे। अपने राज्यशासनके पहले वर्षमें उन्होंने उरनू। और पेरूरके जिन मन्दिरोंको दान दिया था। वैसे ब्राह्मणों को भी उन्होंने दान दिये थे। शासन लेखोंमें भविनीत शौर्य के अवतार-हाथियोंको वश करनेमें मद्वितीय और एक अनूठे घुड़सवार एवं धनुर्धर कहे गए हैं। वह देशकी रक्षा करन्में संलग्न और वर्णाश्रम धर्मको सूरक्षित बनाए रखने में दत्तचित्त थे । यद्यपि उन्हें हरका उपासक कहा गया है, परन्तु उनका झुकाव जैन धर्मकी ओर अधिक था । अपने राज्यके प्रारम्भ और अंतमें उन्होंने जैनोंको खूब दान दिये थे-पुन्नडकी जैन वस्तियोंपर वह विशेष रूपेण सदय हुए थे। भविनीतका पुत्र दुविनीत उनके बाद गना हुमा। प्रारंभिक गङ्ग राजाओंमें वह एक मुख्य राजा था। दुनिीत। उसके राज्यकालमें गङ्गराष्ट्रमें उल्लेखनीय __ परिवर्तन हुये थे। पुराने रिति रिवाज और राजनीतिमें उल्लेखनीय सुधार हुये थे-लोग समुदार होगए थे । मृत्यु समय भविनीतने अपने गुरु विजयकीर्तिकी सम्मतिपूर्वक अपने लघु १-गग०, पृ. ३३.२-मैकु., पृ० १५. ३-गह पृष्ठ ३४. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। [४५ पुत्रको राजा घोषित किया था। दुर्विनीतको यह सहन नहीं हुआपरिणाम स्वरूप भाइयोंमें गृहयुद्ध छिड़ा। दुर्विनीतकी सहायता चालुक्य गजकुमार विजयादित्यने की, जो दक्षिणमें राज्य संस्थापनकी चिन्तामें घूम रहा था। उसके माईके सहायक कडवेट्टि और राष्ट्रकूट वंशोंके राजा हुये । विजयादित्यकी सहायतासे दुर्विनीत ही राज्याघिकारी हुमा। उसका विवाह विजयादित्यकी कन्यासे हुया था । दुर्विनीतको राजगद्दी पा बैठा कर विजयादित्य विजय-गर्वसे आगे बढ़ा और कुन्तल देश पर उसने अधिकार जमाया । त्रिलोचन पल्लवको यह असह्य हुमा । उन दोनों का घमासान युद्ध छिड़ा, जिसमें विनयादित्य काम काया । किन्तु दुर्विनीकी सहायतासे विजयादित्य के पुत्र जयसिंह वल्लभने त्रिलोचनसे बदला चुकाया । कुछ तो च'लुक्योंकी सहायता के लिये और कुछ कोहुनाद प्रदेशको पल्लवोंसे पुनः वापस लेनेकी भावनासे दुर्विनीत बराबर पल्लवोंसे लड़ता रहा; परन्तु चालुक्योंमें गृहयुद्ध छिड़ जानेके कारण वह अपने इस मनोरथको सिद्ध न कर सका। तो भी उसने पल्लवोंसे अंधरी, अल्लतुरु, पोरकरे, पेन्नगरे एवं कई अन्य स्थान छिन लिए थे। उसने भाने नानाकी राजधानी पुन्नाडको भी जीत लिया था। दुर्विनीत एक विजयी वीर योद्धा तो थे ही, परन्तु वह स्वयं एक विद्वान और विद्वानोंके संरक्षक थे। उनकी उदारता भेदभाव नहीं जानती थी। जैन, ब्राह्मण मादि सभी संप्रदायोपर वह सदय १-गङ्ग• पृष्ठ ३५-३९. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | हुए थे। उन्हें ' अविनीत- स्थिर - प्रज्वळ ' 'अनीत' और ' भरिनृप दुर्विनीत ' कहा गया है । वह कृष्णके समान वृष्णि वंशके रत्न बताये गए हैं । उनमें अतुल बल था, अद्भुत शौर्य था, अप्रतिम प्रभुता थी- अतिम विनय थी, अपार विद्या और असीम उदारता थी। उनका चरित्र युधिष्ठिर तुल्य था । उनमें राज्य संचालन के लिये तीनो शक्तियां अर्थात् प्रभुशक्ति, मंत्रशक्ति और उत्साहशक्ति पर्याप्त विद्यमान थीं । यद्यपि वह वैष्णव कहे गये हैं, परन्तु उनकी उदार हृदयता सब धर्मों के प्रति समान थी । " एक शासन लेख के आधार से राइस सा० बताते हैं कि ' शब्दावतार 'के रचयिता प्रसिद्ध जैन वैयाकरण श्री पूज्यपादस्वामी उनके शिक्षा गुरु थे । दुर्विनीतने अपने गुरुके पदचिह्नों पर चलनेका उद्योग किया था । परिणामतः उन्हें भी साहित्य से प्रेम होगया । कवि भारविके प्रसिद्ध काव्य ' किरातार्जुनीय ' के १५ सर्वोपर उन्होंने एक टीका रची । ' कवि राजमार्ग' में उनकी गणना प्रसिद्ध कन्नड कवियोंमें की गई है । " भवन्ती सुन्दरी - कथासार " की उत्थानिकासे प्रगट है कि कवि मारवि दुर्विनीत के राजदरबार में पहुंचे थे और कुछ समयतक उनके महमान रहे थे। दुर्विनीतके किन्हीं शिलालेखोंमें उन्हें स्वयं ' शब्दावतार नामक व्याकरणका कर्त्ता लिखा है । उन्होंने पैशाची प्राकृत भाषामें रचे हुए 'बृहत् कथा नामक प्रन्थका संस्कृत भाषान्तर रचा था। दुर्विनीत जैसे ही एक सफल ग्रन्थकार थे वैसे ही वह एक सफल शासक थे । प्रजाति के लिये 9 " १-गङ्ग०, पृ० ४०-४१. २ - मेकु०, पृ०:३५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाजवंश। [४७ उन्होंने अपनी सम्पत्तिका सदुपयोग किया था। वह परास्त हुये शत्रुका भी सम्मान करते थे। इसीलिये वह सबको प्यारे थे । दक्षिण भारतके राजाओंने वह महान् थे।' मुष्कर (मोकर) दुर्विनीतका पुत्र था- उनके बाद वही राज्या धिकारी हुआ । उसे कान्तिविनीत भी कहते मुष्कर। थे। उसके दो माई भौर थे, परन्तु वह उससे छोटे थे। उसका विवाह सिंधुराजकी कन्यासे हुमा था । वेलारीके निकट उसने 'मोक्कर वस्ती' नामक जैन मन्दिर बनवाया था, जिससे प्रगट है कि गङ्गराज उस दिशामें बढ़ गया था । मुष्करके समयसे गङ्गराजाका राजधर्म होनेका गौरव पुनः जैनधर्मको प्राप्त हुआ था। सिन्धु राजकुमारीकी कोखसे जन्मे मुष्करके पुत्र श्री विक्रम उनके पश्चात् राज्याविकारी हुये; परन्तु श्री विक्रम। उनके विषयमें कुछ विशेष हाल विदित नहीं होता । हां, यह स्पष्ट है कि अपने पिताकी मांति वह भी एक विद्वान थे। राननीतिका मध्ययन उनका उल्लेखनीव विषय था । वैसे विद्याकी चौदह शाखाओंमें वह निपुण कहे गए हैं। उनके दो पुत्र मूविक्रम और शिवमार नामक थे, जो उनके पश्चात क्रमशः राज्याधिकारी हुये थे। १-गङ्ग, पृ० ४३-४५. २-०, पृ० ४५६ मकु०, पृ० ३७. उौकु. पृ. ३७ मा पृ.४१. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८) संक्षिप्त जैन इतिहास । EXANATANAMAHIMANITARIKANERATURINARENTNEPARANASIRAMINEK X SEENETARI कारिकल चोलके प्रसिद्ध वंशकी राजकुमारी भूविक्रमकी माता थी। भूविक्रम एक महान् योद्धा और दस भूविक्रम। घुड़सवार थे। उनका शरीर सुडौल और सुन्दर था; यद्यपि उनका विस्तृत वक्षस्थल शत्रुओंके अस्त्र प्रहारोंसे चिह्नित होरहा था । युद्धोंमें निज पराक्रम दर्शाकर विजयी होनेके उपलक्षमे वह · श्रीवल्लभ' और 'दुग्ग' विरुदोंसे समलंकृत थे। सातवीं शताब्दिमें जब कि रङ्ग राजा अपना राज्य पूर्व और दक्षिण दिशामोंमें बढ़ा रहे थे, तब कदम्बोंने गङ्ग राज्यके एक भागपर अधिकार जमा लिया। चालुक्यराज पुलिकेसिन द्वितीय भूविक्रमके समकालीन और कदम्बोंके शत्रु थे। भूविक्रमने उनसे संघि करके अपने शत्रुओंसे बदला चुकाया। विकन्दके महान युद्ध में उन्होंने पल्लवसेनाको हराकर उनके राज्यपर मधिकार जमाया। उनका एक करद राजा बाणवंशी सचीन्द्र नामक था, जो महावलिबाण विक्रमादित्य गोविन्दके नामसे प्रसिद्ध और जैनधर्मानुयायी था। भूविक्रमने उन्हें भूमि भेंट की थी। उन्होंने मानकुण्डमें राजगृह नियत किया था।' भूविक्रम के पश्चात उनका छोटा भाई शिवमार राजसिंहासन पर बैठा और दीर्घ कालतक उसने राज्य शिवमार। किया । पल्लवोंने अपना बदला चुकाने के लिये इनके शासनकालमें गङ्गराज्य पर माक्रमण किया था। किन्तु पल्लव सफकमनोरथ नहीं हुये; बरिक १-मैकु. पृ० ३७ व गा• पृ. ४६-४८. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com गङ्ग-वंश-वृक्ष | इक्ष्वाकु ( सूर्यवंशी ) धनंजय | J अयोध्या के राजा हरिश्चन्द्र 1 पद्मनाभ गंगवश संस्थापक माधव प्रथम ( कोंगु त्र ( सन् १०३ अथवा ३४० - ४०० ई० [ नोट: - इस वंशवृक्षमें पहले के राजाओं का समय ३० सा० ने आधुनिक मान्यतासे प्राचीन बतलाया था, इसलिये दोनो उल्लेख किये गये है । ] ददिग माधव द्वितीय ( किरियमाधव ) ( ४००-४३५ ई० १ ) हरिवर्म्म ( ४३६ ई० ? अथवा २८७–२६६ ई० ) विष्णुगोप · तदङ्गगल माधव ( ३५७-२०० ई० अथवा ४५०-५०० ई० १ ) अविनीत ( ४३०-४८२ ई० अथवा ५२० - ५४० ई० ? ) 1 दुर्विनीत ( ४८२ - ५१० अथवा ५४०-६०० ई० ? 1 मुष्कर ( ६००५- ६६० ई० १ ) श्रीविक्रम (४६०-६६५ ई० ? ) भूविक्रम श्रीवल्लम (६०० अथवा ६००-६०० ई० ) नवकाम ) ? ) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपुरुष ( ७२६-७८८ १०) राजषम सिनादि __ _ नृपतुङ्ग जयतंग (शिवमार द्वि. के समकालीन ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat शिवमार द्वि. विजयादित्य दामार (७८८-८१२) राजमाट सत्यवाक्य (८१७-८५३) मारसिंह ( ८५७) नीतिमार्ग प्रथम (८५३-८६९) पृथिवीपति ( ८५३-८८०) ऐग्यगंग प्रथम प्रथिवीपति द्वि० (८८०-९२५) (गजमल्ल द्वि० के समकालीन) राजमल्ल द्वि० बुटुग (८७०-१००) ऐश्याप्प नीतिमार्ग द्वि. (८८०-१३५) -..-..--------- नगसिंह राजमल्ल तृतीय बुटुग द्वि० २०-२२) (१२२-९३७) (९७७-९६०) www.umaragyanbhandar.com मालदेव (राठौर कृष्ण ___मारसिंह (.६१-९७१) तृतीयकी कन्या च्याही) कन्या (गठौर इन्द्र की मना गजम चतुर्थ (९७७-९८५) रकम( १८५-1०२४) कन्या (टोर इन्द्रको याही जो सन ९८४ ई.भ स्वर्गवासी (ए) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश | [ ४९ उल्टे शिवमारके द्वारा वह परास्त किये गये और उन्हें राजकर देनेके लिये वह बाध्य हुये । हाँ, चालुक्यराज विनयादित्य की सेना ने गङ्गको परास्त कर दिया था । चालुक्यराजा गङ्गोंको अपना फरद समझते थे, परन्तु गङ्गोंने कभी उनको अपना सम्राट् स्वीकार नहीं किया । चालुक्य उन्हें हमेशा बड़े सम्मान और मादरकी दृष्टिसे देखते थे । गङ्गों का उल्लेख उन्होंने 'मौल' नामसे किया है । शिवमारका दूसरा नाम अवनी महेन्द्र था । उसे 'नवकाम' और 'शिष्टप्रिय' भी कहते थे । उसका पुत्र एरगङ्ग था, परन्तु वह उसके जीवन में ही स्वर्गवासी होगया था। दो पल्लव राजकुमार शिवमारके संरक्षण में रहते थे | इ शिवमारके पश्चात् उसका पोता श्रीपुरुष ग्ङ्ग राजसिंहासन पर श्रीपुरुष | सन् ७२६ ई० के लगभग आसीन हुआ । गङ्ग राजाओंमें वह सर्वश्रेष्ठ राजा था । उसके शासनकाल में गङ्ग राष्ट्रकी ऐसी श्रीवृद्धि हुई कि वह 'श्री राज्य' के नामसे प्रसिद्ध होगया । युवराज अवस्था में श्रीपुरुषने मुत्तग्स नामसे कैरकुंड ५००, एलेनगरनाड ७०, अचन्यनाड ३०० और पो. कुंड १२ ( कोकर जिला ) प्रदेशों पर राज्य किया था | उसने बाणवंशी राजाओंसे लड़ाइयां लड़ी थीं और उन्हें अपना लोहा मानने के लिये बाध्य किया था । उसके शासनकालमेंट्ट (राठौर) राजा शक्तिशाली होरहे थे और उन्होंने गङ्गराजा पर भी आक्रमण किये थे । उघर चलुक्योंने भी प्ल १- गङ्ग० १० ५०. २ - कु० पृ० ३७. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] संक्षिप्त जैन इतिहास । और पाण्ड्य देशों पर धावा बोला था। चालुक्योंसे बदला चुकानेके लिये कोङ्देशके राजा नन्दिवर्मन्ने पाण्डयों और गङ्गोंसे संधि कर की और तीनोंने मिलकर चालुक्यों पर आक्रमण किया। सन् ७५७ ई० को वेम्बै (Vembai) के युद्ध चालुक्यराज कीर्तिवर्मन् द्वितीयकी सेना बुरीतरह परास्त हुई। इस युद्धका चालुक्यों पर स्थायी असर पड़ा और वह जल्दी पनप न पाये । चालुक्योंसे निवटकर कोङ्गु, पांड्य मादि राजाओंको अपना २ स्वार्थ साधनेकी धुन समाई । इसी बीचमें पल्लवोंने पाण्डयोंसे युद्ध छेड़ दिया और उघर राठौर भी पल्लवोंसे भा जूझे। नन्दिवर्मन ने गणराज्य पर आक्रमण कर दिया; किन्तु श्रीपुरुषपर इन भाक्रमणोंका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा । वह अपनी स्थितिको सुदृढ़ बनाये रहा । उसका सबसे बड़ा युद्ध पल्लवोंसे हुआ था। श्रीपुरुषका पुत्र सियगल्ल केसुमन्नुनाडुका शासक और सेनापति था। बिर्डी नामक स्थान पर हुये युद्ध में सियगल्लने पल्लवोंको बुरी तरह हराया था । श्रीपुरुषने वीर कदुवेट्टि (पल्लव) को तलवारके घाट उतारकर उसका विरुद पेरमनडी' धारण किया था । उपरांत यह विरुद गङ्ग राजाओं की अपनी खास चीज़ होगया था। इस विजयसे श्रीपुरुषकी प्रसिद्ध विशेष हुई थी और उसे 'भीमकोप' उपाधि मिली थी। वह महान् वीर था। विनयलक्ष्मी उसकी चेरी होम्ही थी। श्री पुरुषको अपने राज्यकालके अन्तिम समयमें राठौर १-गंग०१० ५१-५५. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। [५१ ANNNNNNNNNNNNNNNNNNNNNN राजाओंसे भी मुकाबिला लेना पड़ा था । द। आठवीं शताब्दिके मध्यवर्ती समयमें वे चालुक्योंको परास्त करके दक्षिणके अधिकारी होगए थे; जैसे कि पाठक मागे पढ़ेंगे। राठौर ( अथवा राष्ट्रकूट) राजाओंके यह युद्ध भी राज्य विस्तारकी आकांक्षाको लिये हुये थे। इन युद्धोंकी भाशङ्कासे ही संभवतः श्रीपुरुषने अपनी राजधानी मनकुण्डसे हटाकर मान्यपुरमें स्थापित की थी। श्रीपुरुषका सबसे भयानक युद्ध राठौर राजा कृष्ण प्रथम अथवा कन्नरस बल्लहसे हुआ था, जिसमें कई गङ्ग-योद्धा काम भाये थे। पिन्चनुर और वोगेयूके यूद्धोंमें त्रिछत्रधारी वीर मुरुकोडे भन्नियर और पण्डित-शार्दुल श्रीरेवमन वीर गतिको प्राप्त हुये थे। कगेमोगीपुरके भयंकर युद्धमें श्रीपुरुषके स्वयं सेनापति मुरुगरेनाडुके सियगल्ल रणचंडीकी बलि चढ़ गये थे। सियगल्ल एक महान योद्धा थे, जिन्होंने पल्लवोंसे खूब ही कडाइयां लड़ी थीं और जो संग्रामभूमिमें रामतुल्य एवं शौर्य में पुरंधर कहे जाते थे । इन युद्धोंके परिणाम स्वरूप कृष्ण प्रथम (राठौर ) ने गंगवाडीपर किंचित् कालके लिए भधिकार जमा लिया था; किन्तु वृद्ध योद्धा श्रीपुरुष इस अपमानको सहन नहीं कर सके। उन्होंने शक्ति संचय करके राठौरोंपर आक्रमण किया और उन्हें 'गंगवाड़ीसे निकालकर बाहर कर दिया; बलिक उनके राज्य के बेलारी प्रदेशके पूर्वी भागपर भी अधिकार जमा लिया।' वहां परमगुलकी रानी और पक्काधिराजकी पोती कंडच्छीने एक जिनालय बनवाया नांग पृ. १-५८. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | था । श्रीपुरुषने उसके लिये दान दिया । परमगुल निर्गुण्ड के राजा थे । यद्यपि श्रीपुरुषका अधिकांश जीवन युद्धोंमें ही व्यतीत हुआ था और वह स्वयं एक महान योद्धा और विजेता था; परन्तु इतना होते हुये भी वह क्रूर और अत्याचारी नहीं था । उन्होंने श्रीपुरुषका महान् व्यक्तित्व | हाथियों के युद्ध विषयपर ' गजशास्त्र ' नामक एक ग्रंथ रचा था । वह स्वयं विद्वान् था और विद्वानोंका आदर करना जानता था | कवियोंकी रचनायें और महात्माओंके उपदेशों को वह बड़े चाव से सुनता था । उसकी उदारता के कारण अच्छे २ कवियों और विद्वानों का समूह श्रीपुरुषकी राजधानीमें एकत्रित होगया था | कविगण उनकी प्रशंसा 'प्रजापति ' कहकर करते थे । उनके राजमहल में निःय संत समागम और दानपुण्य हुआ करता था। यद्यपि वह जैन धर्म के श्रद्धानी थे; परन्तु ब्राह्मणों का भी समुचित आदर करते थे । जैनोंके साथ ब्राह्मणोंको भी उन्होंने दान दिया था । उनके अनेक विरुदोंमें उल्लेखनीय यह थे : 'पृथिवीकोङ्कणी'"कोङ्कणीमुत्तरस" - "पेरमनडी श्रीवल्लभ" और 'रणभञ्जन" । अपने अंतिम जीवन में उन्होंने राजकीय उपाधि "कोङ्गनि - राजाधिराज - परमेश्वर श्रीपुरुष नामक धारण की थी। . श्रीपुरुषकी दो रानियाँ विनेयकिन इम्मड और विजयमहादेबी ० पृ० ३९. २- गंग, पृष्ठ ५८-५९. २ - मैकु० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश । [५३ __नामक चालुक्य राजकुमारियाँ थीं। उनका श्रीपुरुषके पुत्र । सर्वज्येष्ठ पुत्र शिवमार नामक था, जो अपने पिताके मृत्यु समय कडम्बूर और कुनगरनाडु नामक प्रांतोंका शासक था। विजयमहादेवीका पुत्र विजयादित्य कोरेगोडनाडु और मसंडिनाडु प्रांतोंपर शासन करता था; जहां उसके उत्तराधिकारी बहुत दिनोंतक राज्य करते रहे थे। एक अन्य पुत्र दुग्गमार नामक था, जो कोवलाकनाडु, बेलतुरनाडु, पुलवकिनाडु और मुनउ प्रदेशोंका शासक था। सिवगेल्ल संभवतः उनके सर्वकघु पुत्र थे और यही उनके सेनापति थे। इन्होंने पल्लवों और राठौरोंसे अपने पिताके लिये बड़ी लड़ाइयां लड़ी थीं। अंतमें वह वीरगतिको प्राप्त हुये थे। उनकी पुण्यस्मृति एक शासनलेख मङ्कित कराया था। इस प्रकार श्रीपुरुषका महान् राज्य अन्तको प्राप्त हुआ था।' उनके पश्चात् उनका ज्येष्ठ पुत्र शिवमार राज्यसिंहासन पर सन् ७८८ ई० में बैठा था। राजसिंहासन शिवमार। पर बैठते ही शिवमारको अपने छोटे भाई दुग्गमारसे झगड़ना पड़ा था, जो खुल्लमखुल्ला वागी होगया था। शिवमारके करद नोलम्बराज सिंगपोट अपना दलबल लेकर दुग्गमारसे जा भिड़े और उसे परास्त कर दिया । किन्तु राज्यारम्भ हुआ यह ममंगल अन्त तक अमंगल सूचक ही रहा। शिवमारके शासनकालमें गङ्गोंका भाग्य ही पलट गया। नौवत यहां तक पहुंची कि गङ्ग वंशके अन्त होनेकी माशङ्का उप १-पूर्व. पृ. ५९. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] संक्षिप्त जैन इतिहास । ALMORNIN NNNNNNNNNNN................AN स्थित हुई थी। बात यह हुई कि राठौर राजा कृष्ण प्रथमने पूर्वी चालुक्योंको परास्त करके उनके राज्य पर अधिकार जमा लिया था। शिवमारको राठौर राजा ध्रुव निरूपमने गिरफ्तार करके अपने यहां कैदखाने में रक्खा था, क्योंकि उसने ध्रुवके विरुद्ध उसके भाई गोविंदकी सहायता की थी। गणवाड़ी पर राज्य करने के लिये उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र खम्बको नियुक्त किया। गङ्ग प्रजाका इस परिवर्तनसे दिल दहल गया था। ध्रुव निरूपमकी आन्तरिक इच्छा थी कि उसके पश्चात् उसका लघु पुत्र गोविंद राज्यका अधिकारी राजनैतिक हो। इसी मावसे उसने खम्बको गणवाडी परिस्थिति। पर राज्य करने भेज दिया था। खम्बने रणावलोक स्वभ्वैय नामसे अपने पिताके जीवनभर गंगवाड़ी पर राज्य किया, परन्तु ज्यों ही उनकी मृत्यु हुई और सन् ८९४ ई०में उसका छोटा भाई गोविंद राजसिंहासनपर बैठा कि वह उसके विरुद्ध होकर स्वयं राजा बननेका प्रयास करने लगा। गोविंदने इस समय शिवमारको इस नीयतसे बन्धनमुक्त कर दिया था कि वह खभ्वसे जा लड़ेगा; परन्तु शिवमारने ऐसा नहीं किया। उसने राजत्वसूचक उपाधियां धारण की और खम्बसे संघि करली। शिवमारने राठौरों, चालुक्यों और हैहय राजाओंकी संयुक्त सेना पर माक्रमण किया। मुडगुन्ड्रमें घमासान युद्ध हुमा, परन्तु शिवमार शत्रुकी मजेय शक्तिके सम्मुख टिक न सका। राठौरोंने एकवार फिर उसे बन्दी बना लिया। गोविंद एक वीर १-पूर्व० पृ. ६०-६१. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। [५५ योद्धा था। भाखिर उसने भाईके विद्रोहको शमन किया और खम्बके पश्चाताप प्रकट करने पर उसे ही गंगवाडीका शासक नियत कर दिया । स्वम्बके उपरांत ठविराजने गंगवाड़ी पर कुछ समय तक शासन किया था। किंतु शिवमारके भाग्यने फिर पलटा खाया। गोविंदको पूर्वीय चालुक्योंसे मोर्चा लेना था; इसलिये उसने शिवमारको मुक्त करके उसे गंगवाड़ीका राज्याधिकार प्रदान कर दिया, इसतरह एक वार फिर गंगका राज्य जमा। गोविंदने अपना सौहार्द्र प्रकट करनेके लिये पल्लव घिराज नंदिवर्मन् द्वितीयके साथ स्वयं अपने हाथोंसे शिवमारको राजमुकुट पहनाया था । राजा होने पर शिवमार राठौर सेनाके साथ पूरे बारह वर्ष अर्थात् सन् ८०८ ई० तक पूर्वीय चालुक्य राज नरेन्द्र मंगराज विजयादित्य द्वितीयसे लड़ता रहा था। कहते हैं कि चालुक्योंसे उसने १०८ युद्ध किये थे। उपरांत दक्षिणके राजाओंमें स्वात्माभिमान जागृत हुआ और उन्होंने चालुक्यों और राठौरोंसे स्वाधीन होने के लिये परस्पर संगठन किया। गंग, केरल, चोल, पाण्ड्य और काञ्चीके राजाओंने मिलकर गोविन्दके विरुद्ध भत्र ग्रहण किये । गोविंद भी सजघन कर श्रीमवन नामक स्थान पर मा डटा और दक्षिणात्योंकी संयुक्त सेनासे इस वीरतासे बड़ा कि उसके छक्के छुड़ा दिये, दक्षिणियोंकी बुरी हार हुई । इस महायुद्ध में गंगवंश और सेनाके भनेक पुरुष काम मागए थे। शिवमारका अंतिम समय अंधकारमय होगया था। शिवमार एक महान योद्धा था-युद्धक्षेत्रमें वह विकराल रूप १-गंग०, पृ. ६१-६४ ब० मेकु पृ. ४१-४२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास | इसीलिये उसे 'भीम जीवन । घारण कर लेता था, शिवमारका गार्हस्थिक कोप' कहा गया है। किंतु राज्यसंचालन में वह एक दयालु और उदार शासक था । कुम्मडवाड नामक स्थान पर उसने एक जैन मन्दिर बनवाया था और उसके लिए दान दिया था । श्रवणबेलगोलके छोटे पर्वत पर भी उसने एक जैन मंदिर निर्मापित कराया था । ब्राह्मणों को भी उसने दान दिया था। जैन धर्म के लिये तो वह आधारस्तम्भ ही थे ! यद्य पे भाग्य के झूरे में उन्होंने कई झोके खाये थे, परन्तु फिर भी उनका व्यक्तित्व महान् था | खास बात तो यह थी कि वह एक अतीव योग्य और शिक्षित शासक थे । शरीर भी उनका सुंदर, कामदेव के समान था। उनकी बुद्धि तीक्ष्ण, उनकी स्मृति सुदृढ़ और उनका ज्ञान परिष्कृत था । वह कोई भी विद्या शीघ्र ही सीख लेते थे । उनकी इस अलौकिक प्रतिभाने उनके समकालीन राजाओंको अचम्भे में डाल दिया था । उन्हें ललितकला से भी न था । केरेगोडु नामक स्थान से उत्तर दिशा में उन्होंने किल्नी नदीका अतीव सुंदर और दर्शनीय पुल बनाया था । वह स्वयं एक प्रतिमाशाली कवि थे । न्याय, सिद्धांत, व्याकरण आदि विद्याओं में भी वह निपुण थे । नाटक शास्त्र और नाटयशालाका उन्हें पूरा परिज्ञान था । कन्नड़ भाषा में उन्होंने हाथियोंके विषयको लेकर एक अनूठा पद्यग्रन्थ 'गजशतक' नामक लिखा था । 'सेतुबन्ध' नामक एक अन्य काव्य भी उन्होंने रचा था। पातञ्जलि योग शास्त्रका उन्होंने विशेष अध्ययन किया था । ५६ ] १- गंग० पृ० ६५-६७. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग राजवंश। [५७ राठौर राजा गोविंदने गंगवाडीका राज्य शिवमारके पुत्र मारसिंह और उसके भाई विजयादित्यके युवराज मारसिंह। मध्य भाषा २ बांट दिया था। शिवमारके बन्दी होने पर मारसिंहने लोकत्रिनेत्र उपाधि धारण करके गंगवाड़ी पर शासन किया था। राठौर राजाओंके माधीन रहकर मारसिंहने युवराजके रूपमें गङ्गमण्डल पर शासन किया था। मालूम होता है कि उन्होंने गङ्गवंशकी एक स्वाधीन शास्त्रा स्थापित की थी। शिवमारका एक अन्य पुत्र पृथिवीपति नामक था। उसने अमोघवर्ष के भयसे भगे हुये मनुष्योंको शरण दी थी और पांड्यराजा वरगुणको श्रीपुर म्वियम्के मैदानमें परास्त किया था। किंतु उपरांत इसके विषयमें कुछ ज्ञात नहीं होता। शायद वह और विजयादित्य दोनों ही शिवमारके जीवन में ही स्वर्गवासी होगए थे। मारसिंहके समयमें गङ्ग राज्य दो भागोंमें विभक्त होगया था। एक मागपर मारसिंह और उसके गङ्ग राज्यके दो उत्तराधिकारी राज्य करते रहे थे और दूसरे भाग। पर विजयादित्यका पुत्र राजमल्ल सत्यवाक्य शासनाधिकारी हुमा था। राजमल्ल सन् ८१७ ई० को राजगद्दीपर बैठा, जब कि मारसिंह कोकर आदि उत्तर-पूर्वीय प्रांतोंपर शासन कर रहा था । मारसिंहने सन् ८५३ ई० तक राज्य किया था। १-पूर्व• पृ० ६८. २-मैकृ० पृ० ४२. ३-गङ्ग० पृ०६९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास | मारसिंहका उत्तराधिकारी उसका भाई दिन्दिग हुआ था, जिसका अपर नाम पृथिवीपति था । वह दिन्दिग | जैन धर्मका महान् संरक्षक था । उसने श्रवणबेलगोला में कटवत्र पर्वतपर जैनाचार्य ५८ ] HO अरिष्टनेमिका निर्वाण ( ? समाधि ) अपनी रानी कम्पिला सहित देखा था । उसकी पुत्री कुन्दव्वैका विवाह बाणवंशी राजा विद्याधर विक्रमादित्य जयमेरुके साथ हुआ था । उसने अमोघवर्ष राठौर से त्रास पाये हुये नागदन्त और जोरिंग नामक राजकुमारोंको शरण दी थी। उनकी मानरक्षा के लिये दिन्दिगने कई युद्ध राठौरों से कड़े थे । वैम्बलगुरिके युद्ध में वह जखमी हुये थे; किन्तु वीर दिन्दिगने अपने जखममें से एक हड्डीका टुकड़ा काटकर गङ्गामें प्रवाहित कराया था । उसके समकालीन अन्य मूल शाखा में गङ्ग राजा राजमल्ल सत्यवाक्य और बुटुग थे । उनके साथ वह भी पल्लव - पाण्ड्य - युद्ध में भाग देता रहा था । अपराजित पल्लवसे दिन्दिगने मित्रता कर ली थी और उनके साथ वह श्री पुरम्बियम्के महायुद्ध में वरगुण पांड्य से सन् ८८० ई० में बहादुरी के साथ लड़ा था । उदयेन्दिरम् के लेख से प्रगट है कि वरगुणको परास्त करके अपराजितके नामको दिन्दिग पृथिवीपतिने अमर बना दिया था और अपना जीवन उत्सर्ग करके यह वीर स्वर्गगतिको प्राप्त हुआ थे। 1 दिन्दिगके पश्चात् गङ्गकी इस शाखामे पृथिवीपति द्वितीय नामक राजाने राज्य किया था । उसने १-गह ० पृ० ७०-७१. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग राजवंश। [५९ पृथिवीपति द्वितीय । चोल-पल्लव, युद्ध में भाग लिया था। चोलराज पारान्तक प्रथम इनके मित्र थे। पारान्तकने बाण राज्यका अंत करके उनके देशका शासनाधिकार पृथिवीपतिको प्रदान किया था। साथ ही उनको 'नाणाधिराज' और 'हस्तिमल्ल' विरुदोंसे अलंकृत किया था। उपरांत पृथिवीपति राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीयका सामन्त होगया था। किंतु जब इनके समकालीन मूल गङ्गराज नीतिमार्ग द्वितीयने राष्ट्रकूटोंका अधिकार मानना भस्वीकार किया तो यह भी स्वाधीनताकी घोषणा कर बैठे। परिणमतः वनवासीके राठौर वायसरायने उन पर माक्रमण किया और उन्हें युद्ध में परास्त कर दिया। संभवतः पृथिवीपति पुनः राठौरोंके सामन्त हो गये। ननिय गङ्ग उनके बाद राजा हुये, परन्तु वह एक युद्ध में काम माये और उनके साथ गङ्गोंकी यह शाखा समाप्त होगई। गङ्गवंशकी मूल शाखामें शिवमारके पश्चात् विजयादित्य के पुत्र राजमल्ल राज्याधिकारी हुये । उनके राज्यराजमल्ल । सिंहासनारोहणके समय गणराज्यका विस्तार पहले जितना नहीं रहा था; क्योंकि शिवमारको हरा कर राठौरोंने गनवाड़ीके एक भाग पर अपना अधिकार जमा लिया था। जैसे हीरामल्ल गद्दीपर बैठे कि उनका युद्ध बाण विद्याधरसे छिड़ गया, जिसमें उन्हें गणवाडी ६००० से हाथ धोने पडे । उधर राजमल्लके सामन्तगण भी उनके विरुद्ध होगये और राठौर १-गङ्ग० पृ० ७२.७३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] संक्षिप्त जैन इतिहास । राजा ममोघवर्षसे भी उन्हें लड़ना पड़ा। राठौर अमोघवर्षकी यह इच्छा थी कि रङ्गवाड़ीको जीतकर वह अपने साम्राज्यमें मिला ले। गणवाडीका जितना भाग राष्ट्रकूट (राठौर) साम्राज्यमें आगया था, उस पर नोलम्ब राजा सिंहपोतके पुत्र-पौत्र राज्य करते थे; जो एक समय स्वयं गङ्गोंके ही करद थे; परन्तु अब राष्ट्रकूट-सत्ताको जिन्होंने स्वीकार कर लिया था। इस पर स्थितिमें राजमल्लको प्राकृत यह चिन्ता हुई कि किस तरह वह अपने खोये हुये प्रांतोंको पुनः प्राप्त कर लें । अपने इस मनोरथको सिद्ध करने के लिये राजमल्ल के लिये यह भावश्यक था कि वह अपने पड़ोसियों और पुराने सामन्तोंसे संधि कर ले । पहले ही उन्होंने नोलम्बाधिराजसे मैत्री स्थापित की, जो उस समय राष्ट्रकूटोंकी ओरसे गणवाडी ६००० पर शासन कर रहे थे। राजमल्लने सिंहपोतकी पोती और नोलम्बाधिराजकी छोटी बहनसे विवाह कर लिया और स्वयं अपनी पुत्री जगव्वे, जो नीतिमार्गकी छोटी बहन थी, नोलम्बाधिराज पोललचोरको व्याह दी। इस विवाह सम्बन्धके उपरान्त नोलम्ब राजा एकबार फिर गङ्गराजाभोंके सामन्त होगये । इधर राजमल्लने राष्ट्रकुट सामन्तोंको अपने में मिला लिया और उधर राष्ट्रकूट सम्राट् अमोघवर्षको स्वयं राजनैतिक अपने घरमें ही भनेक विग्रहोंको शमन परीस्थिति। करनेके लिये मजबूर होना पड़ा-सामंत ही नहीं, उनके सम्बन्धियों और मंत्रियोंने भी उन्हें १-गङ्ग० पृष्ठ ७४-०५. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। [६१ धोखा दिया। हठात् अमोघवर्षको अपनी इस भयंकर गृह-स्थितिको सुधारना आवश्यक होगया-वह राज्यविस्तारकी आकांक्षाको भूल गये । उन्होंने दक्षिण में इस समय जो लड़ाइयां लडीं, वह हठात् अपनी मान रक्षाके लिये लडी-गणवाडी या अन्य प्रांतको हड़प जानेकी नीयतसे नहीं। फिर भी अमोघवर्ष रानमल्ल के स्वाधीन होने की घोषणासे तिलमिला उठे। उन्होंने शीघ्र ही वनवासी १२००० मादिके प्रांतिय शासक चेलकेतनवंशके सामन्त बङ्केप अथवा बङ्केपरसको उनपर आक्रमण करके गणवाडीको नष्ट भ्रष्ट करने के लिये भेज दिया । बङ्केपने जाते ही गङ्गोंके बड़े भारी और खूब ही सुरक्षित दुर्ग कैदल ( तुम्कुरके निकट ) पर अधिकार जमा लिया। बल्कि उसने गङ्गोंको खदेडकर कावेरी तटतक पहुंचा दिया। बङ्कसके शौर्यको देखते हुये यही अनुमान होता था कि वह सारी गणवाड़ीको विजय कर लेगा। किन्तु राष्ट्रकूटोंकी गृह अशांतिने इस समय ऐसा भयंकर रूप धारण किया कि हठात् अमोघवर्षको विजयी बङ्केसको वापस बुला लेना पड़ा। राजमल्लने इस अवसरसे लाम उठाया और उन्होंने उस सारे प्रदेशपर अधिकार जमा लिया, जिसे राष्ट्रकूटों (गठौरों) ने रङ्ग राजा शिवमारसे छीन लिया था। इस घटनाका उल्लेख एक शिलालेखमें है कि जिस प्रकार विष्णुने वाराह अवतार धारण करके पृथ्वीका उद्धार किया था, उसी प्रकार राजमल्लने गङ्गाडीका उद्धार राष्ट्रकूटोंसे किया !' राजमल्ल एक आदर्श शासक थे । शिलालेखोंमें उनके शौर्य, बुद्धि, दान मादि गुणोंका वखान हुभा मिलता है। उन्होंने ' सत्यवाक्य ' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | उपाधि धारण की थी, जिसे उपरांत गङ्ग वंशके सभी राजाओंने धारण किया था । AX राजमल्लका पुत्र नीतिमार्ग उसके बाद राजसिंहासनपर बैठा । उसका नाम सम्मानसूचक होनेके कारण उसके उत्तराधिकारियोंने उसे विरुद-रूप में नीतिमार्ग | धारण किया था । उसका मूल नाम एरेयगङ्ग - था और किन्हीं शिलालेखों में उन्हें रण - विक्रमादित्य भी कहा है । वह भी सन् ८१५ और ८७८ ई० के मध्य शासन करनेवाले - राष्ट्रकूट सम्राट् अमोघवर्षके समकालीन थे । अमोघवर्षने एकवार फिर गङ्गवाड़ीको विजय करनेका उद्योग किया था, परन्तु उसमें वह असफल रहे । नीतिमार्गने अपने पिताकी नीतिका अनुसरण करके गङ्ग राज्यका पूर्व गौरव अक्षुष्ण रक्खा था । राजगद्दीपर बैठते ही नीतिमार्गने बाणवंश के राजाओंसे युद्ध छेड़ा और उसमें वह सफल हुये । उपरांत अमोघवर्षकी सुदृढ़ सेनाको उन्होंने सन् ८६८ ई० में - राजारमाडूके मैदान में बुरी तरहसे परास्त किया था । इस पराजयने अमोघवर्षके हृदयको ही पलट दिया- उन्होंने गोंसे विद्रोहके स्थान पर मैत्री स्थापित कर की। अपनी सुकुमार पुत्री चन्द्रव्वलव्वेका व्याद उन्होंने गङ्ग युवराज बुटुगके साथ कर दिया । तथा दूसरी संखा नामक पुत्री उन्होंने पल्लवराजा नन्दिवर्मन् तृतीयको व्याह दी। नीतिमार्ग भी अमोघवर्ष के समान जैन धर्मानुयायी थे मौर प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनसेन के समसामयिक थे । वह एक महान् शासक, १- गङ्ग• ७६-७. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। [६३ mmIRIENN N NN ........ .. ..... " राजप्रबंधक, दानशील और साहित्योद्धारक राजा थे ।' पल्लवराजा नोलम्बाधिराज उसके माधीन गड ६००० पर शासन करते थे और बाण-युद्धमें सहायक हुए थे। मन्ततः नीतिमार्ग सन ८७० ई० में स्वर्गवासी हुये थे। उन्होंने सल्लेखनावत धारण किया था। नीतिमार्ग प्रजाको अतीव प्यारा था-उनके एक भृत्यने स्वामीवात्सल्पसे प्रेरित हो उनके साथ ही प्राण विसर्जन किये थे। राजमल्ल सत्यवाक्य (द्वितीय) नीतिमार्गका पुत्र था और वही उनके पश्चात् राजा हुभा। शासनसूत्र राजमल्ल द्वीतिय । संभालते ही राजालको वेङ्गिके चालुक्योंसे मोरचा लेना पड़ा। चालुक्य राष्ट्रकूटोंके भी शत्रु थे और गङ्गोंसे राष्ट्रकूटोंकी मैत्री हो ही गई थी। मतः गङ्गों और राष्ट्रकूटों-दोनों ने ही मिलकर चालुक्योंका मुकाबिला किया। किंतु एक ओर तो इन्हें चालुक्य सुङ्क विजयादित्य तृतीयसे लड़ना था और दूसरी ओर नोलम्बाघिरान महेन्द्रको दवाना था, जो गङ्गवाड़ी ६००० पर शासन करता था और अब स्वाधीन होना चाहता था। राजमल्ल और युवराज बुटुग इस दो रे माक्रमणसे कुछ उलझनमें फसे जरूर परन्तु मन्तमें राठौरोंकी सहायतासे वह सफल-प्रयास हुये। उघर कोङ्गु देशपर अधिकार जमाने की लालसा पल्लवोंकी थी, जिसके कारण उन्हें पांड्याजसे लड़ना पड़ा। इस पल्लव-पांड्य युद्धमें भी गङ्गोंकी बन माई-कोङ्गु । सियोंको बुटुगने कई वार परास्त किया था। १-•• ७८-८०.२-मैकु. पृ. ४४. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] संक्षिप्त जैन इतिहास। RAININN N N N. ................................... .......... राजमल्लके गौरवशाली राज्यमें उसके भाई बुठुगका गहरह हाथ था। बुटुग युवराज था मौर कोनाडु युवराज बुटुग। तथा पोन्नाडु पर शासन करता था। उसने भनेक युद्धोंमें अपना शौर्य प्रदर्शित किया था। पल्लवोंको उसने परास्त किया था। चोलराज अजेय राजराजको उसने हराया था। गङ्गोंके हाथियोंको कोङ्देशवासी बांधने नहीं देते थे। बुटुगने उन्हें पांचवार इस घीढताका मजठ चखाया और अगणित घोड़ोंको पकड़ लिया ! हिरियर और मुरूरके युद्धोंमें उन्होंने नोलम्बराज महेन्द्रको परास्त किया। चालुक्य गुणक विजयादित्य तृतीयसे भी वह दीर्घकाल तक युद्ध करता रहा था। रेमिय और गुन्गुरके युद्धोंमें बुटुग और राजमलने अपने भुजविक्रमका अपूर्व कौशल दिखाकर विजयादित्यको परास्त किया था। इस प्रकार दोनों भाइयों के शौर्यने गङ्ग राज्यके प्रतापको सजीक बना दिया था । बुटुगका मपर नाम गुणरत्तरंग था। पाण्ड्यराज श्रीमारने उसे अवश्य परास्त किया था, परन्तु इस पराजयका बदला लेकर ही वीर बुटुगा हृदय शान्त हुमा था। बुटुगकी जीवनलीका उसके भाई के राज्यकारमें ही समाप्त होगई थी और उसका पुत्र ऐरेगंग युवराजपदपा भासीन हुआ था। उधर राजमल्लकी भी वृद्धावस्था थी-इस लिये उन्होंने अपने जीवन में ही (सन् ८८६ ई०) एरेयप्पको राजा घोषित कर दिया था। राज्यमारको हकका और व्यवस्थित रखनेके लिए राजमल्लने कोङ्गलनाडु ८०००, नुगुनाडु और नवले मादि प्रान्तोंका शासनाधिकार ऐरेयप्पके माधीन करदिया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग राजवंश। AAKANKINNAR.NANINNAMOKESENSENS. ..........NA R MANN.. . . ...... . था तथा उसकी माताको कुनगलकी शासन व्यवस्था करने का मार सौंपा था। राजमल्लने ब्राह्मण और जैनोंको दान दिये थे। उन्होंने पजामें धर्म और सेवामाव बढ़ाने की नीयतसे राज-पुरस्कार नियत किये थे। जैसे पेरमनडी पट्ट बांधना-खेतों का लगान हमेशाके लिये नियत कर देना इत्यादि । केरेगोड़ी रंगपुरके दानपत्रों में उन्हें सद्गुणोंका भण्डार और गङ्गकुलका चंद्रमा लिखा है। कोम्बले नामक स्थानपर राजमल्लका देहांत हुमा था। कई मादमियोंने राजशोकमें अपनेको उनकी चितापर जला दिया था ! उनके पश्चात् एरेयप नीतिमार्ग द्वितीयके नामसे सन् ८०७ ई०के लगभग राजसिंहासन पर बैठे। उन्हें नीतिमार्ग द्वितीय। सबसे पहले कृष्ण द्वि०के सामन्त बकेस चल्लवेतन वंशके लोकदेयरससे युद्ध करना पड़ा था। गलन्जनूर नामक स्थान पर घमासान युद्ध हुमा था । शिलालेखोंसे स्पष्ट है कि कृष्णराजका अधिकार समग्र गणवाड़ी पर होगया था और गङ्गोंकी पुरानी राजधानी मण्णेमें रहकर प्रचंड दंडनायक सम्पय समूचे दक्षिण पर शासन करता था। इसका अर्थ यह है कि यद्यपि नीतिमार्ग और राजमल्लने स्वाधीन होने के भरसक प्रयत्न किये थे, परन्तु ममोघवर्षके मैत्रीपूर्ण व्यवहारमें फंस कर गंगराज पुनः राष्ट्रकूटोंके करद होगये थे। एरेको दुसरा मोरचा नोलम्बाधिराज पोलकचोर और उनकी रानी गङ्गराजकुमारी जयव्येके पुत्र महेन्द्रसे लेना पड़ा था। सन् ८७८ ई० में वह स्वाधीन होगया १-गङ्ग• पृष्ठ ८१-८७. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास । MIRRINKINI TIONOMANIMATIONINGINNINMINITINAKAMANTRINATIOKAMANAMAne था और गङ्गोंका शासन मानने के लिये तैयार न था । महेन्द्रने बाणराज्यको नष्ट करके 'त्रिभुवनधीर' और 'महाबलिकुल-विध्वंशनं' विरूद धारण किये थे । हठात् गङ्गों के लिये महेन्द्रको समराङ्गणमें ललकारना भनिवार्य होगया था। तुम्बेदि और बेङ्गलुरू नामक स्थानों पर भयानक युद्ध हुये थे, जिनमें एरेयप्पके वीर योद्धा नगतर और घरसेन अपूर्व कौशलसे लड़ते हुये वीरगतिको प्राप्त हुये थे। इस घटनासे कुपित होकर पेन्जेरुके भीषण युद्धमें नीतिमार्गने महेन्द्रको तलबारके घाट उतार कर 'महेन्द्रान्तक' विरुद धारण किया था। इस युद्ध के बाद ही नीतिमार्गने सुरूर, नदुगनि, मिदिगे, सुलिसैलेन्द्र, तिप्पेरु, पेन्डोरु इत्यादि दुर्गोको अपने माधीन कर लिया था। इसीसमय चोल पारान्तकने पल्लवराज्य पर अपना मधिकार जमा लिया था और बाणों के देशको जीत कर उसे गङ्गराज पृथिवीपति द्वितीयको भेंट कर दिया था, जैसे कि पहले लिखा जा चुका है। एरेयप्प नीतिमार्ग अपने पिताके समान ही एक महान् योद्धा थे। कुडलरके दानपत्रमें उन्हें एक महान् योद्धा, युद्धक्षेत्रमें निर्मय विचरण करनेवाला, संगीत वाद्य और नाट्य कलाओंमें द्वितीय भरत, व्याकरण मोर गजनीतिमें विशारद, और अपनी प्रजा तथ नोलम्ब, बाण, सगर मादि अपने सामन्तोंके परम हितेषी लिखा है। उनकी कोमरवेदाङ्ग' और 'कामद' उपाधियां थीं । चालय राजकुमार निनगलिकी पुत्री जावेसे उनका विवाह हुमा था। उन्होंने ब्राह्मणों तथा मुडहल्ली और तोरेमवुके जैन मंदिरोंको दान दिया था। उनको राज्य संरक्षण और शासन व्यवस्थाके कार्य में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग- राजवंश | [ ६७ उनके उल्लेखनीय मंत्रियोंने विशेष सहायता दी थी । नागवर्म, नरसिंह, गोविन्दर, घरसेन और एचय्य उनके मंत्रियोंके नाम थे, जो राजनीति में बृहस्पति और मान्धाताके तुल्य कहे गये हैं । नीतिमार्गके तीन पुत्र थे, अर्थात् ( १ ) नरसिंहदेव, (२) राजमल्ल, (३) और बुटुग । नरसिंहदेव राजनीति, हस्तिविद्या, और धनुर्विद्या में निपुण थे । उनका ज्ञान नाट्यशास्त्र, व्याकरण, आयुर्वेद, अलङ्कार और संगीतशास्त्र पे भी अद्वितीय था । वह अपने शौर्य के लिये प्रसिद्ध थे और ' सत्यवाक्य ' एवं ' वीरवेदेन ' उपाधियों से अलंकृत थे । किन्तु उन्होंने अल्पकाल ही राज्य किया । ' नरसिंह के उपरांत उनका छोटा भाई राजमल्ल तृतीय गङ्ग राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ, जिसने राजमल्ल तृतीय । ' सत्यवाक्य', 'नचेयगङ्ग' और 'नीतिमार्ग' उपाधियां धारण की थीं। राजमल्लको राष्ट्रकूटोंके साथ नोलम्ब राजकुमार अयप्प और उन्नेयसे लड़ना पड़ा । दूसरी ओर चालुक्यराज भीम द्वितीयसे लोहा ले रहे थे । इन लड़ाइयोंका मूल कारण इन राजाओंकी राज्यलिप्सा और महत्वाकांक्षा ही था । सन् ९३४ ई० में भीमसे लड़ते हुये भयप्प तो वीर गतिको प्राप्त हुये थे; परन्तु उनके पुत्र मन्नेय, जो गङ्ग राजकुमारी पोल्लब्बेकी कोख से जन्मे थे, वह स्वाधीन रूपमें राज्यशासन करने में सफल हुए थे । मन्नेयने वीरतापूर्वक चालुक्यों, राष्ट्रकूटों और गनोंका मुकाबिला किया था; बल्कि उन्होंने गनवाड़ी १-मम०, पृष्ठ ८८-१०. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] संक्षिप्त जैन इतिहास। MONKANIKATANAMANNAINMENNNNNNNNNNNAIRAMINS: NARENSANNINANKATENNAININNAMANG पर आक्रमण किया था । कोट्टमंगल नामक स्थानपर भयंकर युद्ध हुआ था, जिसमें गङ्ग सेनाके भनियगौंड आदि वीर योद्धा काम माये थे । अन्तमें भन्नेपने इस शर्तपर भात्मसमर्पण किया था कि उसे और उसकी सेनाको अभय कर दिया जाय । राजमल जक नोलम्बोंसे उलझ रहा था तब उसका छोटा माई बुटुग, राष्ट्रकूट राजा कन्नरकी सहायतासे समग्र गणवाडीपर अधिकार जमा रहा था। इस मुद्रुवाले लेखसे स्पष्ट है कि कन्नरने राजमल्लकी जीवन लीला समाप्त करके बुटुगको गजा बनाया था। राजमल्लका व्याह राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष द्वि० की कन्या रेवकसे हुआ था। इतिहासमें बुटुग 'गानारायण'-' गङ्ग गाङ्गेय' और 'ननिय गङ्ग' के नामोंसे प्रसिद्ध था। बुटुगके राज्य बुटुग। कालमें गङ्ग राज्यमें काफी उलटफेर हुआ था। युवराज अवस्थामें बुटुगने अपने भाई राजमल्लसे गङ्गराजाका अधिकार छीन लिया था, यह पहले लिखा जाचुका है । उसे राजा बनाने में राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष तृतीयने पुरा भाग लिया था। इस समय राष्ट्रकूट और गङ्ग राजाओं का पारस्परिक सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण था। बुटुग मौर अमोघवर्ष में परस्पर सन्धि होगई थी, जिससे वे एक दूसरेके सहायक हुए थे । बलिक समोघवर्षने अपनी कन्या रेवक बुटुगको व्याह कर इस संधिको और भी दृढ़ बना दिया था। दहेजमें बुटुगको गणराज्यके अतिरिक्त विलिगेरे ३००, बेल्बोल ३००, किसुवड ७० और वगेनडु ७०४ 1-गा०, पृष्ठ ९१-८२. २-मैकु०, पृ. ४५. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग राजवंश। [६९ N N NNXN . .... ... नामक प्रान्त भी प्राप्त हुए थे। अमोघवर्षके जीवनकालमें ही इस दम्पतिके मरुल देव नामक पुत्रका जन्म हुआ था । बुठुगने वीस वर्षके दीर्घकाल में राज्यशासनका अनुभव प्राप्त किया था। दशवीं शताब्दिके प्रारम्भिक कालमें उसे अपनी पूरी शक्ति राज्यमें शान्ति और व्यवस्था स्थापित करनेमें लगा देनी पड़ी थी। उपरांत उसने नीतिपूर्वक राज्य किया था। अमोघवर्षकी मृत्यु होनेपर बुटुगने उसके पुत्र कृष्ण तृतीयको राज्याधिकार प्राप्त करानेमें सहायता प्रदान की थी। कृष्णने जब चोलराजा रानादित्य मुवड़ीचोल पर भाकमण किया तो बुटुगने बराबर उसका साथ दिया । और वे उसमें विनयी हुए । सन् ९४९ ई० में चोल युवराज राजादित्यने एकवार फिर अपना अधिकार जमानेका उद्योग किया था। ___टक्कोलम नामक स्थानपर दोनों सेनाओंमें भीषण युद्ध हुआ था, जिसमें रानादित्य वीरगतिको प्राप्त हुमा था। इस युद्ध में बुटुग और उसकी सेनाके धनुर्घरोंने धनुर्विद्याका अपूर्व परिचय दिया था। इस युद्धके परिणामस्वरूप बुटुग और कृष्णने टोंडेमंडलम् पर अधिकार जमा लिया था और चोल देशमै भागे बढ़कर काञ्ची, तंजोर और नलकोटेके किलोंका घेरा डाला था। इस आक्रमणमें बुटुगकी सहायता वलमीके राना मनकारने की थी। मनलारकी उपाधि 'विशाल श्वतध्वजके मधिराज' थी, जिन्होंने चोल संग्राममें भगणित मनुष्योंको तलवारके घाट उतार कर 'शूद्रक' और 'सगर त्रिनेत्र' विरुद धारण किये थे। इस संग्राममें यही दो वीर थे और उन्होंने ही मिलकर hree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०] संक्षिप्त जैन इतिहास । राजादित्यकी जीवनलीला समाप्त की थी। कृष्णराज उनके शौर्यको देखकर भति प्रसन्न हुए और उन्होंने मनलारसे कोई वर मांगनेके लिये कहा। वीर मनलारने एक सच्चे वीरकी भांति अपने स्वामीसे थोड़ीसी मुमि इसलिये ली कि उसपर वह अपने बहादुर कुत्तेका स्मारक बना दें जो एक जंगली सूअरसे लड़ता हुआ मरा था। ___इस संग्रामसे लौट कर कृष्णराजकी छावनी मेपति ( उत्तर मर्काट ) नामक स्थान पर डाली गई थी। वैयक्तिक चरित्र । कृष्णराजने इस छावनी में ही अपने सामंतोंकी भेटें स्वीकार की थीं तथा अपने सरदारोंमें प्रांतोंका बंटवारा किया था। कृष्णराज जब इस कार्यमें व्यस्त थे तब बुटुक चित्रकूट गढ़को जीतकर उसपर अपना झण्डा फहरा रहे थे । भागे बढ़कर बुटुगने सप्त-मालव देशको भी विजय किया और उसका नाम 'मालव-गङ्ग' रक्खा था। दिलीप नोलम्बको भी उन्होंने परास्त किया था। सारांशतः इस प्रकार अपनी दिग्विजय द्वारा बुटुगने गा-राज्यका विस्तार और गौरव बढ़ाया था। यद्यपि उन्होंने राष्ट्रकूटोंकी सत्ता स्वीकार की थी, परन्तु फिर भी बुटुग अपनेको महाराजाधिराज लिखते थे। अपने पूर्वजोंके पगचिह्नोंपर चलकर बुटुगने बड़ी उदारतापूर्वक शासन किया था । यद्यपि यह जैन धर्मके परम भक्त थे और जैन मंदिरोंके लिये उन्होंने दान दिये थे, फिर भी ब्राह्मणोंका उन्होंने भादर किया और उन्हें दान भी दिया था। बुटुग राजधर्म मौर भात्मधर्मके भेदको जानते थे। वह जैन सिद्धांतके प्रकाण्ड पण्डित थे भौर परवादियोंसे शास्त्रार्थ भी किया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। [७१ करते थे। परवादी-हाथियों का खंडन करने में उन्हें मजा माता था। कुडलूर के दानपत्रसे प्रकट है कि एक बौद्धवादीसे वाद करके उन्होंने उसके एकांत मतकी धजियां उड़ा दी थीं। वह बड़े ही धर्मात्मा थे और जब उनकी विदुषी बहन पम्बब्बेका समाधिमरण सन् ९७१ ई० में तीस वर्षकी दीर्घ तपस्या करनेके बाद हुआ, तो उनके दिकको इस वियोगसे गहरी ठेस पहुंची; परन्तु वह विचक्षण नेत्र थे-वस्तुस्थितिको जानकर भपने कर्तव्यका पालन करने लगे। राष्ट्रकूट रानी रेखकसे बुटुगके एक पुत्री भी हुई थी; जिसका नाम संभवतः कुन्दन सोमिदेवी था । बुटुगने उसका विवाह कृष्णराजके पुत्र अमोघवर्ष चतुर्थके साथ कर दिया था। इस राजकुमारीसे ही राष्ट्रकूट वंशके मन्तिम राजा इन्द्रराजका जन्म हुआ था । बुटुगके पुत्र मरुरूदेव पनुसेय गङ्गको कृष्णराज तृतीयकी पुत्री ब्याही थीं। मरुलको · मदनावतार' नामक छत्र भी कृष्णराजसे प्राप्त हुआ था । मरुल अपने पिताकी भांति ही जिनेन्द्रभक्त था। लेखोंमें उन्हें । जिनपद-भ्रमर' लिखा है। मरुलके विरुद 'गङ्ग मार्तण्ड '-'गङ्ग क्रायुध'-'कमद' 'कलियुग भीम' और 'कीर्तिमनोभव' थे; जिनसे उनके शौर्य और विक्रमका वस्वान स्वयं होता है । उनकी माता रानी रेवक निम्मडिकी उपाधि 'चाग. वेदाङ्गी' थी। मालम होता है कि मरुलने अधिक समयतक राज्य नहीं किया था। उनके पश्चात् उनके सौतेले भाई मारसिंह राज्याधिकारी हुए थे।' १-1, पृ. ९४-९५; मै कु., पृ० ४५-४६;व बसाइं०, पृष्ठ ५५. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] संक्षिप्त जैन इतिहास। हेव्वल्ल शिलालेखसे स्पष्ट है कि बुटुगची दुसरी रानीका नाम कल्लभर अथवा कल्लबरीस था। मारसिंहका मारसिंह द्वितीय। जन्म इन्हींकी कोखसे हुमा था। उनका पूरा नाम सत्यवाक्य कोणिवर्मा परमानडी मारसिंह था । उक्त लेखमें मारसिंह के भनेक विरुदोंका उल्लेख है, जिनमें से कुछ इस प्रकार थे : "चलद-उत्तरङ्ग"-"धर्मावतार""जगदेकबीर"_"गङ्गर सिंह" "गङ्गवज्र" "r कंदर्प" "नोलंबकुलान्त:"-"गङ्गचूड़ामणि'-"विद्याघर" और " मुत्तियगङ्ग"। मारसिंहके इन विरुदोंसे उनका महान् व्यक्तित्व स्वयमेव झलकता है । गङ्गवाड़ीमें उस समय उन जैसा महान् पुरुष शायद ही जन्मा था । कूडलूरके दानपत्रोंमें मासिंह का विशद चरित्र वर्णित है । उससे प्रकट है कि बाल्यावस्थासे ही मार सिंह अपने शारीरिक बल और सैनिक शौर्यके लिये प्रसिद्ध थे। बचपनसे ही वह गुरुओंकी विनय और शिक्षकोंका मादर करना जानते थे। अपनी नम्रता, अपने समुदार चरित्र और अपनी विद्याके लिये वह प्रख्यात थे। यद्यपि उनका समूचा शासन काल संग्रामों और आक्रमणोंसे भरपूर रहा था; परन्तु फिर भी वह जनताका हित और भात्मकल्याण करना नहीं भूले थे। मारसिंहने भी मानी सैनिक नीति वही रक्खी थी, जो उनके पिताकी थी। राष्ट्रकूट राजामोंसे उन्होंने पूर्ववत् मैत्रीपूर्ण व्यवहार रक्खा था । वह कृष्णतृतीयके सामन्तरूपमें रहे थे। कृष्णराज जब अश्वपतिको जीतने के लिये जारहे थे तब उन्होंने मारसिंहका राज्याभिषेक करके उन्हें गणवाडीका शासक घोषित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश | [ ७३ किया था । जिस समय गुजरात के गुर्जर राजाओंने कलचूरियों पर आक्रमण किया था, तो उस समय उनकी रक्षा करने के लिये कृष्णराजने मारसिंहको भेजा था। मारसिंहने गुजरात पर आक्रमण किया और अन्हिलवाडके राजा मूलराज तथा राष्ट्रकूटोंके बागी हुये करद सियक परमारको परास्त किया था । इस विजयोपलक्ष में मारसिंह 'गुर्जराधिराज' नाम से विख्यात हुये थे । इस युद्धमें उनके सहायक सूद्रकय्य और गोग्गियम्म नामक योद्धा थे, जिन्होंने वीरतापूर्वक कालंजर और चित्रकूटके किलोंकी रक्षा करके "उज्जैनी भुजङ्ग" उपाधि प्राप्त की थी। मारसिंहने अपने इन सरदारोंको कदम्बलिंगे १००० प्रान्त पर शासन करनेके लिये श्रवणबेळगोल के कूगे ब्रह्मदेव स्तम्भ ( शक भी मारसिंह के प्रताप का दिग्दर्शन होता है । नियुक्त किया था । ८९६) लेख से सं० इस लेख में कथन है कि "मारसिंहने राष्ट्रकूट नरेश कृष्णराज तृतीय के लिये गुर्जर देशको विजय किया; कृष्णराजके विपक्षी अल्लाका मद चूर किया; विन्ध्य पर्वतकी तली में रहनेवाले किरातोंके समुद्दोंशे जीता; मान्यखेटमें नृग कृष्णराजकी सेनाकी रक्षा की; इन्द्रराज चतुर्थका अभिषेक कराया; पाताळ मल्लके कनिष्ठ भ्राता बज्जलको पराजित किया; बनवासी नरेशकी धन सम्पत्तिका अपहरण किया; माहूर वंशका मस्तक झुकाया; नोलम्ब कुलके नरेशों का सर्वनाश किया; काडुवट्ट जिस दुर्गको जहीं जीत सका था उस उच्चङ्गि दुर्गको स्वाधीन किया; शवराधिपति नगका संहार किया; १- गङ्ग ० पृष्ठ ९९-१०१. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | चौड़ नरेश राजादित्यको जीता; तापी-तट, मान्यखेट, गोनूर, उच्चङ्गि, बनवासि व पामसेके युद्ध जीते; चेर, चोड़, पाण्ड्य और पल्लव नरेशोंको परास्त किया व जैन धर्मका प्रतिपालन किया और अनेक जिन मंदिर बनवाये । अन्तमें उन्होंने राज्यका परित्याग कर अजितसेन भट्टारकके समीर तीन दिवसतक सल्लेखना व्रतका पालन कर बङ्कापुरमें देहोत्सर्ग किया । इस लेख में वे गङ्ग-चूड़ामणि, नोकम्बान्तक, गुत्तिय - गन, मण्डलिक त्रिनेत्र, गङ्ग विद्याधर, गङ्ग कंदर्प, गन वज्र, गन सिंह, सत्यवाक्य कोङ्गणिवर्म-धर्म महाराजाघिराज मादि अनेक पदवियोंसे विभूषित किये गये हैं । इन उल्लेखोंसे मारसिंहका भद्भुत शौर्य और राष्ट्रकूट राजाओंके प्रति उनके मगाध प्रेम और श्रद्धाका पता चलता है । १ दक्षिण में राष्ट्रकूटोंका प्रताप मारसिंहका ही ऋणी था । मभाग्यवश सन् ९६६ ई० में कृष्ण तृतीयका स्वर्गवास होगया, जिसके कारण राष्ट्रकूट साम्राज्यपर अधिकार प्राप्त करने के लिये घरेलू युद्ध छिड़ गया । छोटे-छोटे सामन्त स्वाधीन होनेके लिये आपस में लड़ने लगे । मारसिंहकी सहायता से राष्ट्रकूट राजा कक्क द्वितीयने ज्यों-त्यों करके आठ वर्षतक राज्य किया । उनके स्थानपर मारसिंहने अपने दामाद इन्द्रको राष्ट्रकूट सिंहासनपर प्रबल विरोधमें बैठाया; परन्तु वह राष्ट्रकूटोंके ढलते हुये प्रताप-सूर्यको मस्त होनेसे रोक न सके । चालुक्योंने राष्ट्रकूट साम्राज्य को छिन्नभिन्न कर दिया । राष्ट्रकूट साम्राज्य के पतनका असर मारसिंहपर भी पड़ा; परन्तु वह 1-fad, 28 25. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग - राजवंश | [ ७५ अपना राज्य सुदृढ़ बनाये रखने में सफल हुये । इस समय गङ्गोंके करद नोलम्ब राजाओंने स्वाधीन होनेके लिये प्रयत्न किया था; मारसिंहने एक बड़ी सेना उनके विरुद्ध भेजी और नोलम्ब कुळका ही अन्त कर डाला | नोलम्बवाडीकी प्रजाको मारसिंहने अपनी भाज्ञाकारिणी बनाकर उसे सुख शांतिपूर्ण राज्यका अनुभव कराया । . नोम्बोको परास्त करके मारसिंह सन् ९७२ ई० में लौटकर बँकापुर माये । इस समय उनके राज्यका विस्तार महानदी कृष्णा तक फैला हुआ था । जिसके अंतर्गत नौलम्बवाडी ३२०००, गङ्गवाडी ९६०००, बनवासी १२०००, शान्त लिगे १००० आदि प्रांत गर्भित थे । आखिर सन् ९७४ में अपना अंत समय निकट जानकर मारसिंहने श्री अजितसेनाचार्यके निकट सल्लेखना व्रत ग्रहण करके अपनी गौरवशालिनी ऐहिक लीला समाप्त की । कुडलूर के दानपत्रोंमें लिखा है कि 'मार सिंहको पराया मला करनेमें आनंद आता था; वह परधन और महान् व्यक्तित्व | परस्त्रीके त्यागी थे; सज्जनोंकी अपकीर्ति सुनने के लिये वह बहरे थे; साधुओं मौर ब्राह्मणों को दान देनेके लिये वह सदा तत्पर रहते थे; एवं शरणागतको वह अभय बनाते थे ।' दया- धर्म और साहित्य से उन्हें. गहरा अनुराग था । पशुओंकी रक्षा करनेका भी उन्हें ध्यान था । वैयाकरण यदि गंगल भट्ट एवं अन्य विद्वानोंको दान देकर उन्होंने १–गङ्ग०, पृ० १०१-१०७. २- मैकु० पृ० ४७. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] संक्षिप्त जैन इतिहास । ANANKINANKIN N ARE.....NANXNNNNNNNY अपने विद्या प्रेमका परिचय दिया था । वह स्वभावतः विनम्र, दयालु, सत्यप्रेमी, श्रद्ध लु और धर्मात्मा थे। साधुओं और कवियोंके संसर्गमें रहना उन्हें प्रिय था । वह स्वयं व्याकरण, न्याय, सिद्धांत, साहित्य, राजनीति और हाथियोंकी रणविद्याके पारगामी विद्वान थे। सुप्रख्यात् विद्वानों और कवियों का आदर-सत्कार करना उनका साधारण कार्य था। दूर-दूर देशोंसे भाकर कविगण उनके दरबारमें उनका यशगान करते थे। मासिंह महर्निश रणाङ्गणमें व्यस्त रहने पर भी उन कवियों की मधुर और ललित काव्य-वाणीको सुनने के लिये समय निकाल लेते थे। वह सचमुच 'दानचूड़ामणि' थे। नागवर्म और केशिराज सदृश कवियों ने उनकी प्रतिभाको स्वीकार किया है। कुडलूर दानपत्रके लेखककी दृष्टिमें मासिंह मानवजातिके एक महान् नेता, एक न्यायवान् और निष्पक्ष शासक, एक वीर और जन्मजात योद्धा, एक न्याय विस्तारक, मौर साहित्य संरक्षक महापुरुष थे; जिसके कारण उनकी गणना गणवाडीके महान् शासकोंमें की जानी चाहिये । इस दानपत्रसे यह भी प्रगट है कि मारसिंह जिनेन्द्र भगवानके चरणकमलोंमें एक भौरेके समान लीन थे; जिनेन्द्र भगवान के नित्य होते हुये मभिषेक जलसे उन्होंने अपने पाप-मलको धो डाला था और गुरुओं की वह निरंतर विनय किया करते थे। संखवस्ती लक्ष्मेश्वर (घारवाड़) के लेखमें मारसिंहकी उपमा एक रत्न-कलशसे दी है, जिससे निरन्तर जिनेन्द्र भगवानका अभिषेक किया जाता हो। इन उल्लेखोंसे मारसिंहकी जैन धर्ममें गाढ़ श्रद्धा प्रतीत होती है। उन्होंने अपने ऐहिक कार्यों एवं धार्मिक कृत्योंसे जैन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्गा राजवंश। [७७ धर्मकी इस उक्तिको चरितार्थ कर दिखाया था कि • जे कम्मे सुगते धम्मे सुरा' अर्थात् जो कर्मवीर हैं वही धर्मवीर होते हैं।' राष्ट्रकूट साम्रज्यके पतन एवं मारसिंहकी मृत्युको देखकर उससे लाभ उठाने के लिये वे सब ही राजा राजमल्ल (राजविद्रो- चौकन्ने होगये जिनको मासिंहने अपने हीका शमन । ) अधीन किया था और जो अपनी स्वाधीनता प्राप्त करने के लिये छटपटा रहे थे। उनमें से कई एक प्रगट रूपमें गङ्गाजामों के विरोधी रन गये । मासिंहके दोनों पुत्रों-राजमल्ल मौर कपाङ्गके जीवन भी संकट में माफँसे । किन्तु गङ्ग राजकुमारों के इस संकटापन्न समय पर उनकी प्रजा और उनके सरदारोंने उनकी सहायता जी-जानसे की। दोनों भाई एक सुरक्षित स्थान पर भेज दिये गये। स्वामि वात्सल्य का भाव उस समय गणवाडीमें सर्वोपरि था। रकसगङ्ग के संरक्षक बोयिगकी कन्या सायिये उसी भावसे प्रेरी हुई माने पति के साथ रणङ्गणमें पहुँची और वीरगतिको प्राप्त हुई। ऐसे और भी उदाहरण हैं और इन्हीं के कारण गङ्गाज्यका प्रताप अक्षुण्ण रहा। इस समय गङ्गराजा मोके विरुद्ध हुये शासकोंमें दो विशेष उल्लेखनीय हैं (१) पञ्चदेव और (२) मुडु राचय्य । महासामन्त पञ्चलदेव पुलिगेरे-बेल्वोल मादि तीस ग्रामों का शासक था। उसने मारसिंहके मरते ही अपनेको स्वाधीन घोषित कर दिया । और वह सन् ९७४ से ९७५ तक स्वाधीनरूपसे राज्य करने में सफल हुमा। किन्तु चालुक्य तैल और १-मैकु०, पृष्ठ ४७: गह पृष्ठ १०७-१०८ व जैसा ई०, पृ०५६. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८] संक्षिप्त जैन इतिहास । mNVESTIONINEENNNNNNNNNNNNNNNNNNNNNNN गङ्ग सेनापति चामुंडरायने शीघ्र ही पञ्चलको समराङ्गणमें ललकारा और उसे अपनी करनीका फल चखाया। सन् ९७५ में वह लड़ाईमें काम माया । गङ्गोका दूसरा शत्रु मुडुराचय्य था । चामुंडरायका भाई नागवर्मा उसकी भक्त ठिकाने लानेके लिये उसके मुताबिलेमें गया, परन्तु दुर्भाग्यवश वह राचय्यके हाथसे अपने अमूल्य प्राण खो बैठा । चामुंडरायके लिये यह घटना असह्य थी। वह झटसे राचय्यके सम्मुख आये और बगेयुरके युद्धमें उसकी जीवनलीलाका अन्त किया ! चामुंडरायके शौर्यका मातङ्क चहुंओर छागया, जिससे विरोघियोंकी हिम्मत पस्त होगई। गङ्गराज्यके ऊपरसे माफत के बादल साफ होगये । चामुंडरायकी इस अपूर्व सेवाके उपलक्षमें वह 'परशुराम' की उपाघिसे अलंकृत किये गये । निस्सन्देह चामुंडराय एक महान वीर थे और यदि वह चाहते तो स्वयं गङ्गवाड़ी के राजा बन बैठते; परन्तु उनका नैतिक चरित्र भादर्श और अनुपम था। उनके रोमरोममें त्याग और सेवाभाव भरा हुमा था, जिससे प्रेरित होकर उन्होंने गङ्गराज्यकी नींव दृढ़ कर दी और उसके गौरवको पूर्ववत स्थायी रक्खा । इन अपूर्व सेवाओं के कारण ही उन्हें गङ्गराजाओंका सेनापति और मंत्रीपद प्राप्त हुभा था। उन्होंने वह शांतिमय वातावरण उपस्थित किया था कि जिसमें राजमल्लका राजतिलक किया जा सके। १-गा., पृ. १०९-११. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश | [ ७९ ... इस प्रकार चामुंडरायकी साहाय्यसे मारसिंह के पश्चात् उनके पुत्र राजमल्ल चतुर्थ राज्याधिकारी हुये उनके सेनापति और महामंत्री श्री चावुंड चामुंडराय । रायजी रहे । गङ्गकुलके हितके किये, गन्न राज्य विस्तार के वास्ते और राज्यव्यवस्थाको समुन्नत बनाने के हेतु चामुंडराय निरंतर उद्योगशील रहते थे । यद्यपि उनके अतुल 1 अधिकार थे, पर तो भी उन्होंने कभी उग्रव्यवहार नहीं कियाबल्कि हरसमय संयमसे ही काम लिया । उनका एक मात्र ध्येय राजत्वकी सेवा करना था और उसे उन्होंने खूब ही निभाया 1 वह ब्रह्मक्षत्रकुलके रत्न थे । उनके पिता महाबलय्य और पितामह गोविंदमय्य थे; जिन्होंने मारसिंहकी उल्लेखनीय सेवा की थी । अपने पिता के समान ही चामुंडरायने भी मारसिंह के साथ युद्धों में निजशौर्यका परिचय दिया था । नोरम्बपल्लवों से जो युद्ध हुआ था, उसमें चामुंडरायने विशेष रूपसे भुजविक्रमका कौशल दर्शाया था चामुंडरायके पिता गङ्ग राजधानी तलकाड में बहुधा रहते थे इसलिये यह अनुमान किया जासक्ता है कि उनका जन्म और बाल्यजीवन I 1-"Chamundaraya who stamped cut sedition and establish - ed Order became the minister and general of Rajamalla IV. Though he was armed with unlimited powers, he behaved with great moderation; and with a singleness of aim which has no parallel in the history of Ganga dynasty, he devoted himself to the service of the State. His whole career might be summed up in the word " Devotion. " - M. V. Krishna Rao. गंग० पृष्ठ १११. २- गङ्ग०, पृष्ठ १११. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] संक्षिप्त जैन इतिहास | वहां ही बीता होगा । चामुंडरायके जीवन कार्यका समय मारसिंह, राजमल्ल और रक्कमगङ्ग इन तीन गंग राजाओं के राज्यकाल के समतुल्य रहा है, इसलिये यह भी कहा जासक्ता है कि मारसिंह के राज्यारोहण के पहले ही चामुंडरायका जन्म हुआ था । मारसिंहक‍ साथ तो वह युद्धों में जाकर भाग लेते थे । अतः इस समय उनका युवा होना निश्चित है । चामुंडरायकी माता काललदेवी जैनधर्म की दृढ श्रद्ध'लु थीं। उनकी अटूट जिनभक्तिका प्रतिबिम्ब उनके सुपुत्र चामुण्डराय दिव्य चरित्रमें देखनेको मिलता है ।' 'गोमट्टसार' से प्रगट है कि अजितसेन स्वामी चामुंडरायजी के दीक्षागुरु थे । आचार्य आर्यसेन से उन्होंने सिद्धान्त, विद्या और कलाकी शिक्षा प्राप्त की थी । बाचार्य महाराजके अनेक गुण गण उन्होंने धारण कर लिये थे । उपरान्त श्री नेमिचन्द्राचार्य के निकट रहकर उन्होंने अपना आध्यात्मिक ज्ञान उन्नत बनाया था । 3 श्री नेमिचन्द्राचार्यजी स्वयं कहते हैं कि उनकी वचनरूपी किरणोंसे गुणरूपी रत्नों-कर शोभित च मुंडरायका यश जगतमें विस्तरित हो ! महाज्ञानी उपोरत्न ऋषियोंकी संगतिमें जन्म से रहकर चामुंडराय एक आदर्श श्रावक और अनुपम नागरिक प्रमाणित हुये थे । युवावस्था में जिस रमणी-रत्न से उनका विवाह हुआ था, उसका नाम अजितादेवी था; परन्तु उन्होंने किस कुलको अपने जन्म से १ - वीर, वर्ष ७ चामुंडराय अंक पृष्ठ २ जस्स गुरु जयड बो राम्रो । 3- 'अजज सेण्ट ४- गोमहवार गाथा ९६७. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat २ - ' सो अजिय सेनणाहो गुणगणा समूह संधारि ।' www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग राजवंश । [ ८१ सौभाग्यशाली बनाया था, यह ज्ञात नहीं । शायद कन्नड़ साहित्य में उनका गार्हस्थिक जीवन विशेष रीतिमे लिखा गया हो । कुछ भी हो, इसमें संशय नहीं कि उस समय गङ्गवाड़ी देशमें चामुंडराय के समतुल्य कोई दूसरा महापुरुष नहीं था। वह महीशू' (Mysore ) देश के भाग्यविधाता थे । उनकी इन विशेषताओं को लक्ष्य करके डी विद्वानोंने उन्हें 'ब्रह्मक्षत्र - कुल मानु'-' ब्रह्मक्षत्र - कुळ- मणि' मादि विशेषणोंसे स्मरण किया है। शासनाधिकारके महत्तर पदपर पहुंचकर भी उन्होंने नैतिक-नीनिका कभी उल्लंघन नहीं किया । उनके निकट सदा ही "परदारेषु मातृवत्" और परद्रव्येषु लोष्ठवत्" की उक्ति महत्वशाली रही थी । ऐसे गुणों क कारण वह " शौचामरण" कहे गये हैं। अपनी सत्यनिष्ठा के लिये वह इस कलिकाल में 'सत्व-युधि - ' कहलाते थे। वैसे उनके वैयक्तिक नाम च वुंडराम, राम और गोम्मट्टदेव थे । च वुंडराय नाम उनक माता-पिताने रखखा था । श्रवणबेळगोळ में बिंध्यगिरि पर्वत पर श्री बाहुबली स्व.मीकी विश क मूर्ति निर्माण करानेके कारण वह 'राम' नामसे प्रसिद्ध हुये थे । कन्नड भाषामें 'गोमट्ट' शब्दका भावार्थ 'कामदेव' सूचक है । चावुडरावने कामदेव बाहुबलिकी मूर्ति स्थापना करके यह नाम उपार्जन किया प्रतीत होता है। संस्कृत भाषाके जैन ग्रन्थोंमें उनका उल्लेख चामुंडराब नामसे हुआ है। उनके पूर्वभव सम्बन्ध में कहा गया है कि 'कृतयुग' में वह संमुख के समान थे, त्रेतायुग में रामके सदृश हुने और कलियुग में बीर - मार्तण्ड हैं। इन उल्लखोंसे उनका महान् व्यक्तित्व सहज अनुभवगम्य है । १- 'ब्रह्मक्षत्र कुभेदयाचळ शिरोभूषामविर्मानुमान् ।' · Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास | किंतु खास बात उनके चारित्रमें राजल और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यका पालन करना है । वह अपने सेनापति । राजा और देशकी मानरक्षा, समृद्धि और कीर्ति के लिये अपने को उत्सर्ग किये हुये थे । अहिंसा - तत्व के निष्कर्षको चीन कर उन्होंने अलौकिक वीरवृत्ति धारण की थी । वह राजमंत्री ही नहीं गङ्ग राजाओं के सेनापति भी थे। अनेकवार उन्होंने गङ्ग- सैन्यको रणाङ्गणमें वीरोचित मार्ग सुझाया था। उन्हीं के रण - विक्रम और बाहुबल से गङ्ग राष्ट्र फका फूका था । कहा गया है कि खेड़गकी लड़ाई में वज्रदेवको ड्रगकर चामुंडराय ने 'समरधुरन्धर' की उपाधि धारण की थी । नोलम्बरणमें गोनू के मैदान में उन्होंने जो रण-शौर्य प्रगट किया, उसके कारण वह 'वी' - मार्तण्ड' कहलाये | उच्छङ्गिके किलेको जीत कर वह 'रण ४२ ] : रन सिंह ' होगये और बागेलूरके किलेमें त्रिभुवनवीर आदिको - कालके गाले में पहुंचा कर उन्होंने गोविंदराजको उसका अधिकारी बनाया। इस वीरताके उपलक्षमें वह 'वैरीकुल- कालदण्ड' नामसे प्रसिद्ध हुये । नृपकामके दुर्गको जीतकर वह 'भुजविक्रम' कहलाये । नागर्म द्वेषको दण्डित करके वह 'छलदङ्ग - गङ्ग' पदवी से विभूषित हुये । गङ्ग भट मुडुराचय्यको तलवार के घाट उतारने के उपलक्ष में 'समर - परशुगम' और 'प्रतिपक्ष - राक्षस' उपाधियोंको उन्होंने धारण किया । भटवीरके किलेको नष्ट करके वह 'भटमारि' नामसे प्रख्यात हुये थे । वह वीरोचित गुणोंको धारण करने में शक्य थे एवं सुभटोंमें महान् वीर थे, इसलिये वह क्रमशः 'गुणवम् काय' और 'सुभट चूडामणि' कहलाते थे । निस्सन्देह वह 'वीर - शिरोमणि' थे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat - www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ; गङ्ग राजवंश। [८३ चामुंडराय एक वीर योद्धा और दक्ष सेनापति होने के साथ ही वह एक कुशल राजमंत्री और राज्यव्यराजमंत्री। वस्थापक भी थे। राजमंत्री पदसे उन्होंने गल-राज-प्रणालीके अनुरूप देशका शासन सुचारु रूपसे किया। उनके मन्त्रित्वकालमें देशमें विद्या, कला, शिल्प और व्यापारकी मच्छी उन्नति मुई थी। गमवाडीकी प्रजाकी मभिवृद्धि होना, चामुंडरायके शासनकी सफलताका प्रमाण है। इस कालके बने हुये सुंदर मंदिर, मनोहर मूर्तियां, विशाल सरोवर और उन्नत राजप्रासाद आज भी दर्शकोंके मनको मोह लेते हैं। यह इमारतें गङ्गराष्ट्रको तत्कालीन समृद्धिशालीनताकी द्योतक हैं । और वह चामुंड. रायको एक सफल राजमंत्री घोषित करती हैं। साथ ही गंग राष्ट्रकी उस समय अपने पड़ोसी राजाओंके प्रति जो नीति थी, उससे चामुंडरायकी गहन राजनीतिका पता चलता है। उस समयकी सुख-शांतिपूर्ण राज व्यवस्थाका ही यह परिणाम ___था कि गङ्गवाडीमें ललितकलाके साथ-साथ साहित्योन्नति । साहित्यकी उन्नति भी विशेष हुई थी। गणवाड़ीमें पन्नड़ साहित्यकी प्रधानता थी। ग्ङ्ग राजामों और चामुंडरायने तत्कालीन कवियोंको माश्रय देकर उनका उत्साह बढ़ाया था। इन कवियोमें उल्लेखनीय मादिपम्प, पोन्न, रन मोर नागवर्म हैं । मादिपम्प और पोनका समय चामुं. डरायजीसे पहलेका है। उन्होंने गमराजा एरेयप्पके संरक्षणमें साहित्य रचा था। किंतु रख और नागवर्मःच मुंडरायके समकालीन थे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१] संक्षिप्त जैन इतिहास । चामुंडरायने उन्हें अपना संरक्षण प्रदान किया था। रण्ण वैश्यजातिके नर-रत्न और उच्च कोटिके कवि थे। चौलुक्यराज तैलप मादिसे भी उन्होंने सम्मान प्राप्त किया था। उनके रचे हुये ग्रंथों में 'मनितपुराण' और 'साहस-भीम-विजय' उल्लेखनीय है । नागवर्मका 'छन्दोम्बुद्धि' नामक माङ्कार ग्रंथ प्रख्यात है। उन्होंने महाकवि बाणके 'कादम्बरी' काव्यका अनुवाद किया था। कन्नड साहित्यके साथ उनके समयमें संस्कृत मौर प्राकृत साहित्य भी समुन्नत हुये थे। भाचार्यप्रवर श्री मजितसेन, श्री नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती, श्री माधवसेन विद्य-प्रभृति उद्धट विद्वानोंने अपनी छ मूल्य रच. नाओंसे इन भाषामोंके साहित्यको उन्नत बनाया था। चामुंडराय स्वयं कनड़ी, संकृत और प्राकतके एक अच्छे विद्वान् मोर कवि थे। अपने जीवनकी कवि। शांतिमय घड़ियां उन्होंने साहित्यानुशीकन और कविजनकी सत्संगतिमें विताई थीं। वह न्याय, व्याकरण, गणित, मायुर्वेद और साहित्यके धुरंधर विद्वान् थे। उन्ह प्रकृतिको देन थी जिससे वह शीघ्र ही अनूठी कविता रचते थे। उनके रचे हुये ग्रन्थोंमें इस समय केवल 'चारित्रसार ' मौर 'त्रिषष्ठि-लक्षण-पुराण' नामक ग्रन्थ मिलते हैं। पहला भाचार विषयक ग्रन्थ संस्कृत भाषामें है और श्री माणिकचंद्र दि० जैन ग्रंथमाला बम्बईमें छपचुका है। दूसरा कन्नड़ भाषामें एक प्रामाणिक पुराण प्रन्थ है । इसे 'चावंडराय पुराण' भी कहते हैं। कहा जाता है कि चामुंडरायने श्री नेमिचन्द्राचार्यके प्रसिद्ध सिद्धान्त अन्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्गाजवंश। [८५ 'गोम्मटसार' पर एक कनड़ी टीका रची थी। निस्संदेह चामुंडराय जिस प्रकार एक महान योद्धा और रानमंत्री थे, उसी प्रकार साहित्य और चैन सिद्धांतके मर्मज्ञ एक उच्च कोटि के कवि थे।। " चाकुंडराय पुराण" से प्रगट है कि वह एक श्रद्धालु जैन थे और उनके धर्मगुरु श्री अजितसेनाचार्य धार्षिक जीवन । थे। चावंडरायके पुत्र जिनदेवन् भी उन भाचार्य के शिष्य थे और उन्होंने श्रवण. बेलगोलपर एक नन मंदिर बनवाया था। शक्तिसम्पन्न होनेपर भी चाकुंडरायने गरीवोंको नहीं भुलाया । वह जनहितके कार्योंको बराबर करते रहे। वह धर्मात्मा, विद्वान् और दानशील थे। खास बात उनके जीवनकी यह थी कि वह प्रगतिशील विद्वान थे । परम्परागत रीतिरिवाजोंके प्रतिकूल भी उन्होंने धर्मवृद्धिके हेतु कदम बढ़ाया था। उनका धार्मिक दृष्टिकोण विशद और समुदार था। यही कारण है कि उन्होंने गोम्मट्टदेवकी विशालकाय देवमूर्तिकी स्थापना करके दर्शन-पूजन करने का अवसर प्रत्येक भक्तको प्रदान किया था। अपनी दर्शन-विशुद्धिको उत्तरोत्तर निर्मल बन ते हुये वह दान और पूनारूप श्रावक धर्मको पालन करनेमें तल्लीन रहते थे। अपनी इस धार्मिकताके कारण ही वह " सम्यक्तर-रत्नाकर" कहलाते थे । जैन धर्मके वह महान संरक्षक थे। धर्मप्रभावनाके लिये उन्होंने अनेक कार्य किये थे । अनेक जिन प्रतिमाओं और जिन मंदिरोंकी उन्होंने प्रतिष्ठा कराई थी, जिनकी शिलाकला मद्वितीय है । शास्त्रोंका प्रचार और उद्धार कराकर एवं पाठशालायें और नन मठ स्थापित कराके ज्ञानका उद्योग किया था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | साधुजनोंके प्रचुर विहार से परवादियोंका मद चूर हुआ था । श्रवणबेलगोल में उन्होंने अद्भुत मंदिर और मूर्तियां निर्माण कराई थीं । सन् ९८१ में उन्होंने ५७ फीट ऊंची विशालकाय गोम्मट्ट मूर्ति विंध्यगिरि पर्वतपर स्थापित कर ई थी । यह मूर्ति शिल्लकलाका एक अनूठा नमूना है और भाज उसकी गणना संसारकी आश्चर्यमय वस्तुओंमें की जाती है । उस मूर्ति की रक्षा के लिये चामुंडरायने कई ग्राम भेंट किये थे । श्रवणबेळगोळ ग्रामको भी उन्होंने बसाया था और वहांवर जैन मठ स्थापित करके श्री नेमिचन्द्रस्वामीको मठाधीश नियुक्त किया था । " गोम्मट्टसार " में श्री नेमिचन्द्राचार्यजी ने श्रवणबेळगोळ में जिन मंदिर आदि निर्मित करानेके लिये चामुंडरायकी प्रशंसा की है। राजमल्लने उनके धार्मिक कार्योंसे प्रसन्न होकर उन्हें ' राय ' पदसे अलंकृत किया था । रकस - गंग। राजमल्लने अपने योग्यतम राजमंत्री और सेनापत्ति श्री चामुंडराय के पथ प्रदर्शन में गङ्ग राज्यके प्रतापको स्थायी बनाये रखा । उपरांत उनकी मृत्यु होनेपर उनका भाई रक्कम - गङ्ग राजा हुआ, जो युवावस्था में पेड्डोरेके तटवर्ती प्रांतपर शासन करता था । राजमल्लकी सेनामें वह एक सेनापति भी रहे थे और उनका अपरनाम 'अण्णनवन्त' था । रक्स गङ्गके राज्यकालके कतिपय प्रारंभिक वर्ष शांतिमय थे और उस समयको उन्होंने धार्मिक कार्योंको करने, मुख्यत: जैन धर्मको उद्योतित करनेमें व्यतीत किया था । इससमय १ - वीर वर्ष ७ चामुंडराय अंक पृष्ठ ३-८ व गंग० पृ० १११ - ११४' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग राजवंश । [ 6 जैन धर्म राजाश्रय विहीन होकर अन्य मतावलम्बियों का कोपभाजन बन रहा था । रक्कस गङ्गके संरक्षणमें वह एकवार पुनः चमक उठा । उन्होंने अपनी राजधानीमें भी एक जिनमन्दिर निर्माण कराया, बेलू' में एक विशाल सरोवर पक्का कराया और कई स्थानों के मन्दिरोंको दान दिया। नोकम्बल्ल राजा उनके करद थे । रक्कम गङ्गके कोई संतान नहीं थी, इसीलिये उन्होंने अपने छोटे भाई के एक लड़के और एक लड़कीको गोद लिया था । लड़के का नाम राजविद्याधर था । संभवतः वह जल्दी स्वर्गवासी होगया था । इसी कारण राजाको उनकी बहिनकी रक्षा विशेष रूप से करनी पड़ी थी और उसे ही राज्याधिकारी बनाने का भी प्रबन्ध किया था। रकस गङ्गने छन्दोम्बुधिके रचियता कवि नागवर्मको आश्रम दिया था । नागवर्मने अपने ग्रन्थमें उनका विशेष उल्लेख किया है। उन्होंने सन् ९८५ से १०२४ ई० तक राज्य किया था । प्रारम्भमें वह स्वाधीन रहे थे; परन्तु जब चोलोंका जोर बढ़ा और इधर चामुंडराय स्वर्गवासी होगये, तो वह चोलोंकी छत्रछाया में शासन करते रहे थे । चामुंडरायके जीतेजी ग्रङ्ग राज्यकी ओर कोई आंख भी न उठा सका था और उसका गौरव पूर्ववत् बना रहा था । किन्तु सन् ९९० के बाद गङ्ग राजाको चोल और चालुक्य सदृश प्रबल शत्रुभोंसे मोरचा लेना पड़ा था; क्योंकि दोनों ही शासक नोलम्बवाड़ी और गङ्गवाड़ीको हड़प कर जाना चाहते थे । चोलोंने पल्लोंको हराकर दक्षिणवर्ती गङ्ग राज्यके प्रांतोपर अधिकार जमाना शुरू किया था। उधर पूर्वी चालुक्य राज्यमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] संक्षिप्त जैन इतिहास । ANKINNNNNNNNNNNNNNAWATIMAINKINNRSANSANNINRNIRNOR घुसकर बेङ्गिको चोलोंने अपना खास स्थान बना लिया था। राजराजने अपनी कन्या पूर्वी चालुक्य राजा विमलादित्यको व्याह दी थी। फिर उन्होंने पश्चिमी चालुक्योंपर माक्रमण किया। इस माक्रमणके झपट्टेमें गणवाड़ी भी भागई। गङ्ग और राष्ट्रकूट राजा पूर्वीय चालुक्योंके सहायक थे और मनन्तः दोनों ही अपने राजत्वसे हाथ धो बैठे ! सन् १०. ४ में राजेन्द्र चोकने तलकाको जीतकर गङ्ग राज्यका अन्त कर दिया। गङ्ग राज्यको उन्होंने अपने सरदारोंके माधीन अनेक प्रांतों में बांट दिया। किन्तु इतने पर गढ़वंश इतिहाससे बिल्कुल मिटा नहीं। उनके वंशजोंका मस्सित्व तलकाडका पतन पतन । होने के बाद भी मिलता है। पश्चिमीय चालुक्य राजा सोमेश्वर प्रथम ( १०४२१०६२)का विवाह एक गङ्ग राजकुमारीसे ही हुआ था। जिनकी कोखसे सोमेश्व। द्वितीय (१०६८-१०७६) और उनके प्रख्यात् भाई विक्रमाङ्क (१०७६-११२६)का जन्म हुमा था। चोलोंके मधिकारमें गंग वंशज कोलर प्रांतमें शासन करते रहे थे और उपरांत वही होयसल राजाओंके विश्वासपात्र राजपदाधिकारी बने थे। विष्णुवर्द्धन होयसलके सेनापति गङ्गराज भी इसी गङ्गवंशके पुरुष. रत्न थे। उन्होंने सन् १११७ ई० में तलकाड़ पर माक्रमण करके चोलोंके इदियन्न अथवा अदिइन्न नामक सामन्तको परास्त किया था और तलकाड पर होयसकोंका अधिकार जमाया था। इसी प्रकार १-गंग पृ. ११४-११८। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग राजवंश । [८९ मन्य गङ्ग राजकुमार भी उन्नतिको प्राप्त हुए, जो च'लुक्यों और होयसलोंकी शरणमें जारहे थे। उन्हीं लोगोंकी संतान माज राज्यश्री विहीन होकर मैसूरमें गङ्गवाड़िकर नामक लोग हैं। गल साम्राज्य में राजत्वका भादर्श ही राजाओंका पथ पर्शक रहा। गङ्गराजा जानते थे कि प्रजाका राजत्वका आदर्श। अपने राजा और मंत्रियों में विश्वास होना ही सफल शासनका चिह्न है । राजा और प्रजा मिलकर ही जनहितका बड़े से बड़ा कार्य कर सकते हैं। मतः रानाका यह कर्तव्य है कि पजाका सर्वोभद्र हित साधे। किरियमाघव, भविनीत दुर्विनीत, श्रीपुरुष मादि गङ्गराजाभोंने सदा ही अपनी प्रजाको प्रसन्न रखने का ध्यान रखखा । वह मनु सदृश मादर्श राज व्यवस्थापकके पदचिह्नों पर चलते थे। दूसरोंका हित साधना ही उनका संचित धन था। अपने शासितोंकी प्रसन्नतामें ही वे अपनी प्रसन्नता जानते थे। वे नीतिशास्त्रके नियमानुकूल ही रानवके आदर्शका पालन करते थे। जैनेतर मतोंमें दीक्षित हुए गा राजाओं नसे विष्णु-गोप मादिने वर्णाश्रम धर्मकी रक्षाका पूरा ध्यान रखा था। उनका प्रभाव उनके उत्तराधिकारियों पर भी पड़ा था। नीतिमार्गके लिये कहा गया है कि वह नीतिसारके अनुसार शासन करनेवाला सर्वश्रेष्ठ राजा थे। गंग राजाओंके राज्यकालमें पुरोहितोंका संगठन नहीं के बराबर था और उनका प्रभाव भी न कुछ था। गंगराजा हमेशा स्वाधीन रीतिसे राजधर्मानुकूल शासन करते थे-साम्प्रदायिकताकी पट्टरतामें वह नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९.] संक्षिप्त जैन इतिहास । बहे थे। यद्यपि जैनाचार्यों के पथप्रदर्शनको वह महत्व देते थे। प्रारं. ममें ही दिदिग और माधवने श्री सिंहनन्दाचार्यके उपदेशको शिरोधार्य किया था। उपरांत विजयकीर्ति और पूज्यपादके सत्परामर्शसे क्रमशः भविनीत और दुर्विनीतने लाभ उठाया था एवं श्री तोरणाचार्य और उनके शिष्य पुष्पनन्दि राजा शिवमारके गुरु थे। इन भाचार्यो का धर्मो देश शासनोंके जीवनोंको समुन्नत और समुदार बनाने में कार्यकारी हुआ था । * राजत्वके भादर्शको महत्व देनेवाले गङ्ग राजामों के प्रति उच्छृङ्खलताकी भाशङ्का करना भाकाश नियंत्रण । कुसुमवत् था। वह स्वाधीन होते हुये भी उच्छङ्कल नहीं थे। प्राचीन राजकीय नियमोंकी प्रतिपालना करना और कराना ही उनका धर्म था। उसपर उनके राज्यमें भनेक सामन्तों का सद्भाव था। कदाचित् कोई राजा अन्यायकी ओर पग बढ़ाता तो यह सामन्तगण सब मिलकर उसका प्रतिकार कर सकते थे। साथ ही राजमंत्रियों का मस्तित्व भी राजाकी शक्तिको परिमित बनाने में कार्यकारी था। राजस्वका उत्तराधिकार वंश परम्परागत था। ज्येष्ठ पुत्र ही पिताके पश्चात् राजा होता था; परन्तु यदि राजसंतानमें कोई और पुत्र अथवा भाई योग्यतम प्रमाणित होता था तो वही राजा बनाया जाता था । राज्याभिषेकके पहले मंत्रिमण्डल और राजपके प्रमुख पुरुषोंकी स्वीकारता प्राप्त करना भी भावश्यक्त थे।। * गंग० पृ. ११८-१२४. १-गंग० पृ. १२५-१२६. . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। [९१ राजाके साथ रानीका अधिकार गङ्गराज्यमें सम्माननीय था। दरवारों में रानी बराबर राजाके साथ मर्दासन रानीका महत्व। ग्रहण किया करती थी। इतना ही नहीं उसे राजसंचालन में भाग लेने का भी अधिकार प्राप्त था। वह गजाको समानता, न्याय और दयामय शासन करने में सहायक होती थी। श्रीपुरुष. बुटुग और पेरमडी राजाओं के लिये कहा गया है कि उनकी रानियां राजा और युवराज के साथ शासन करती थी। किन्हीं भवसरोंपर रानियों को स्वतंत्र रूपमें किसी स्वास प्रांतका शासनाधिकार प्रदान किया जाता था । रानियों के राजचिह्न संभवतः श्वेतसंख, श्वेतछत्र, स्वर्ण-दण्ड, और चमर होते थे। रानी राजाके सार्वजनिक कार्योंमें भाग लेती, मंदिरोंकी व्यवस्था करती, नये मन्दिर और तालाब बनवाती और धर्मकार्यो दानकी व्यवस्था करती थीं। वह राजाके साथ छावनियोंमें जाकर रहती भी थीं। राजाका अपना शानदार दरबार हुमा करता था, जिसमें राजा-रानी, राजगुरु, चौरीहक, सामन्तराजदरवार। सरदार, राजकर्मचारीगण और अन्य प्रमुख व्यक्ति बैठकर शोभा बढ़ाते थे। दरबारमें बैठकर ही राना न्याय करता था और कवियों एवं विद्वानों की रचनायें और वार्तायें सुनकर उनको पारितोषक प्रदान करता था। धार्मिक वादविवाद भी इन दरबारोंमें हुआ करते थे, जिनमें कभी कभी राजा भी भाग लिया करता था।' १-पूर्व पृष्ठ १२९-१३०. २-पूर्व पृ. १३०. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । यूं तो राजा ही सर्वाधिकारी था, परन्तु राज्यका सारा काम अकेले ही कर लेना उसके लिये शक्य नहीं राजमंत्रीगण । था। इसलिये ही वह विविध कार्यों के लिये राजमंत्री नियुक्त करता था और कार्याधिक्यके अनुसार ही उनकी संख्या भी कमती ज्यादा होती थी। बहुधा यह पद वंशपरम्परागत ही होता था। चामुंडरायके पिता और पितामह बुटुग मौरमारसिंहके राजमंत्री थे । राजमंत्रियों में दंडनायक (सेनापति), सर्वाधिकारी (प्रधान-मंत्री), मन्नेवेरगड्डे ( राजकीय.... हिरियभंडारी, युवराज, संधिविग्रही और महापधान होते थे, जो राज्य और न्यायकी व्यवस्था ही केवल भाग लेते हों, यह बात नहीं, बल्कि वह राजाके साथ दौरों और लड़ाहयों पर भी जाया करते थे। मंत्रियोंके अतिरिक्त महाप्रश्यित, महामार्यक अथवा अतःपुराध्यक्ष, अंतःपश्यित, निधिकार (कोषाध्यक्ष), राजपालक, पडियार, हदियार, सज्जेक, हदपद भादि राजर्मचारी होते थे। राजाके निजी और गुप्त कर्मचारी भी रहा करते थे। राजा, मंत्री और राजकर्मचारी राजनीतिमें दक्ष होते थे और तदनुसार कार्य करते थे। प्रान्तीय शासनकी व्यवस्था गजराज्यमें विविध राजकीय विभागों और विभाग-गत उच्च एवं लघु प्रांतीय शासन कर्मचारियों की नियुक्ति द्वारा होती थी। व्यवस्था । राज्यव्यवस्थाके लिये सारा गणराज्य कई प्रांतोंमें बांट दिया गया था। जो नाडु, विषय, वेन्ट्य और खम्पन नामक अन्तर्भागोंमें विभक्त था। प्रांत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। मुख्यतः जाडी ९६०००, वनवासी १२०००, पुन्नड १००००, केरेकुंड ३००, इलेनगरनाडु ७०, भवन्यनाडु ३०, और पोनेकुंड ११ थे। शिलालेखोंसे प्रष्ट है कि प्रांतोंके नामों के आगे जो संख्या दी गई है वह प्रत्येक प्रान्तसे उपलब्ध भामदनीकी द्योतक है। प्रत्येक प्रान्तका शासन एक वायसरायके भाधीन होता था, जो प्रयः राजवंशसे ही नियुक्त किया जाता था । रानमंत्रिगण भी कभी-कभी प्रांतीय शासक नियुक्त किये जाते थे। यद्यपि प्रांतीय सरकारें अपना स्वाधीन अस्तित्व रखती थी; परन्तु वह थी केन्द्रीय साकारके ही भाधीन । प्रांतीय शासककी भरनी सेना थी। वह दान भी देता था और अपने राजक्षेत्र में मामाना शसन वरता था। शासक प्रायः दंडनायक कहलाते थे। जो मंत्री सामंतोपर शासन करता था वह 'महा सामन्ताधिाति' कहलाता था। इन प्रांतीय शासकों का मुरूप कर्तव्य राजकर वसुल काना मोर न्यायकी व्यवस्था देना था। राज की माज्ञा विना वह राजकर न बढ़ा सकता था और न घटा ही। हेगडे अथवा राजाध्यक्ष हेग्गडे नामक कर्मचारीके माधीन प्रत्येक जिलेका शासनकार्य था। प्रभू या गौंड़ नामक कर्मचारी गांवकी व्यवस्थाका उत्तरदायी होता था। राजकर मुख्यतः फसककी उपजका छट्टा भाग होता था। फसलकी खतौनी बड़े भच्छे ढंगसे रखखी जाती थी, जिससे प्रत्येक किसानको मालम होजाता था कि उसे क्या राजकर देना है। मावश्यक्ता पड़नेपा मंत्रिमंडलकी सलाहसे राजा एक चौथाई राजकर भी वसूल करता था। खेतोंके बंजर पड़े रहने या फसल खराब होनेपर माफी और छूट भी राजा दिया करता था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४] संक्षिप्त जैन इतिहास । किसानोंके अतिरिक्त व्यापार मादिपर भी कर कगा करते थे। गङ्गोंने नाप और तोलके लिये अलग-अलग व्यवस्था नियत कर दी थी, उसी के अनुसार भूमिका नाप और नाजकी तौल हुमा करती थी। गङ्ग राज्यमें हग, कोडेवन, कसु और हेर द्रहम नामक सिक्कोंका चलन था, जो सोने के होते थे। उनपर एक ओर हाथी और दूसरी ओर किसी फूलका चिह्न बना होता था। गङ्ग राज्यव्यवस्था में ग्रामका स्थान मुख्य था। ग्रामका महत्व और इस कारण उसकी पवित्रताकी छाप ग्रामव्यवस्था। लोगोंके हृदयों पर ऐसी लगी हुई थी कि युद्धोंके बीचमें भी ग्राम अक्षुण्ण बने रहते थे। ग्रामोंकी व्यवस्था अपनी निराली थी। प्रत्येक ग्राममें एक मुखिया और एक गणक ( Accountant ) रहता था; जिनके पद वंशपरम्परागत नियत होते थे । प्रत्येक ग्रामकी एक सभा होती थी, जिसका मधिवेशन गांवके मन्दिरके मण्डपोंमें हुआ करता था। भधिवेशनके अवसरपर सरकारी अफसर भी मौजूद रहते थे धर्मादा जायदाद और मन्दिर भादि पवित्र स्थानोंका प्रबन्ध भी उसके आधीन था। उसके द्वारा राज्यकर वसूल किये जाते थे और ग्रामकी भावश्यक्ताओं जैसे सिंलाई मादिका प्रबन्ध किया जाता था। विवादस्थ विषयों का निर्णय स्वयं राजा मथवा उसकी ओरसे नियुक्त 'धर्म-करनिक' नामक कर्मचारी किया करते थे। मन्दिरोंके पुजारी निन्हें राजाकी मोरसे भूमिदान मिला होता था, जनतामें सम्मानकी दृष्टिसे देखे १-गंग० पृष्ठ १३९-१५० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग- राजवंश | [ ९५ जाते थे और वे 'स्थानापति' कहलाते थे । ग्राम-कर्मचारी मुख्यतः मुखिया (गौड़), सेनवोव, मनिगार और ग्रामलेखक होते थे । मुखियाका फाम लगान वसूल करना और डाकुओंसे ग्रामकी रक्षा करना होता था । उसे एक पुलिस मजिस्ट्रेट जैसे अधिकार भी प्राप्त होते थे । उसका पद वंशपरम्परीण होता था, जिसको वह चाहता तो किसीको बेच भी सकता था । उनके पतियोंकी मृत्युके उपरांत विषवाओं को भी वह पद मिलता था । • ग्रामके बाद नगरोंका स्थान था । नगर वहीं बसाये जाते थे कि जिस स्थानपर काफी जंगल और पानी नगरोंका प्रबन्ध । एवं भोजनकी सामग्री प्रचुर मात्रामें उपलब्ब होती थी । वे बहुधा पहाड़ोंके निकट ही हुआ करते थे, जिनके चारों ओर खाई और चहारदिवारी बनी होती थी । नगर सभा वहांका प्रबन्ध करती थी । सड़कों, कुओं और तालाबों का बनवाना, जनोपकारक बगीचों और पलों के बागोंका लगवाना तथा धर्मशाला, मन्दिर और कमलसरोवरोंको सिरजना नगरके आधीन था । नगरोंमें जन संख्या के अनुसार दोसे साततक ' फुरस '-' मठ '' अग्नद्दार' और 'घटिका' होत थे, जिनके कारण विद्यार्थी दूरदूरसे ज्ञानोपार्जन करने के लिये नगरोंने आकर रहते थे । नगर में आजीविकाकी अपेक्षा भठारह प्रकारकी जातियों अथवा श्रेणियोंके लोग रहा करते थे और उन्हीं के प्रतिनिधि नगरसभा अथवा परिषद में जाकर नगरका प्रबन्ध किया करते थे । परिषद में 1 १- गंग० १५०-१५२. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६] संक्षिप्त जैन इतिहास । वणिक मादि श्रेणियों के प्रतिनिधियों के अतिरिक्त प्रधान, सेनबोग और मनिगा भी हुमा करते थे। प्रधान पहनस्वामी' ही हुमा करते थे। परिषद घरोंपर, और तेलियों, कुम्हारों, घोषियों, गजों, दुका. नदारों भादि पर कर लगाता था। भायात और निर्यात कर भी परिषद वसूल करता था। ब्रह्मण इन घरोंसे मुक्त थे । 'नागरिक' मथवा 'तोतीगर' नामक कर्मचारी द्वारा शांति और व्यवस्थाका प्रबन्ध होता था। राजा नगरपरिषदके निर्णयों को बड़े सम्मानकी दृष्टि से देखता था। ग्ङ्गोंकी सैनिक व्यवस्था सामन्तोंकी ऋणी थी। यद्यपि राजाकी अग्नी सेना हुआ करती थी, परन्तु युद्ध के सैनिक व्यवस्था। समय सामन्तगण और प्रांतीय शासकगण अपनी-अपनी सेना लेकर गजाकी सहायताके लिये भाते थे। वैसे गजा चाहता था उसने मनुष्यों को सेनामें भरती कर लेता था । स्थायी सेना मुख्यतः तीन भागोंमें विभक्त थी मर्थात् (१) पैदलसेना, (२) घुड़सवार, (३) और हाथियों की सेना। उच्च सैनिक शिक्षाके स्थानपर सैनिकोंमें राजाके प्रति अटूट भक्ति और उत्साहका बाहुल्य था। यद्यपि शिलालेखोंमें चतुङ्गसेनाका उल्लेख है, परन्तु रथसेनाका विशेष उपयोग होता नहीं मिलता। यदि रथ युद्ध के लिये काममें लिया जाता था तो बहुत कम । सेनाके उच्च राजकर्मचारीगण 'दंडनायक'-'महाप्रचंड दण्डनायक'-'महासामन्ताधिपति' और ' सेनाधिपति हिरियहेडुवक ' १-गंग. १५८-१६२. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। [९७ कहलाते थे । सामान्य सेनापति दण्डाधि' कहलाते थे । घुड़सेनाके स्वामी मवाध्यक्ष' अथवा ' तुरुग-साहजी' नामसे पुकारे जाते थे । इनके अतिरिक्त सेनामें भोकर मंडलीक, वैद्य और महा व्यवहारी ( कमसरियट) भी होते थे । सेनामें बहुधा डाकुओंको भरती कर लिया जाता था, जो धनुर्विद्या बड़े चतुर होते थे। हाथियोंकी सेना मुख्य समझी जाती थी । सैनिक चमड़े का कोट और फौलादका बख्तर तथा टोर पहनते थे। ढाल-तलवार, धनुष, बाण, बाछी, भाला मादि उनके शस्त्र होते थे। उनके पास एक प्रकारकी बंदूकें (Fire arms) भी होती थीं। युद्ध के समय गजा प्रजापर एक विशेष प्रकारका कर भी लगाता था। मानवोंकी निरर्थक हिंसा अधिक न हो, इसलिये मन्त्रिगण बहुधा जलयुद्ध-मल्लयुद्ध मादि सामान्य रूपमें जय-पराजयके निर्णायक उपार्योकी व्यवस्था देते थे। यदि शत्रु मुंहमें तृण दबाता तो समझ जाता था कि उसने पराजय स्वीकार करली है। गंग सेनाकी एक खास बात यह थी कि कुछ सैनिक इस प्रकारकी प्रतिज्ञा करते थे कि वे रणक्षेत्रमें राजाके साथ प्राण देदेंगे और यदि जीते बचे तो राजाकी मृत्यु पर उनके साथ अपनेको जला देंगे ! राजभक्तिकी यह पराकाष्ठा थी!' गङ्ग राज्यमें न्यायकी व्यवस्था राजाके ही माघीन थी। राजा निष्पक्ष होकर न्याय करता था। यदि अपन्याय-व्यवस्था। राधी स्वयं राजाका निकट सम्बन्धी होता था तो भी दण्डसे वञ्चित नहीं किया जाता था। १-गंग० पृ. १६२-७०। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | न्यायमें राजाका हाथ महादण्डनायक के अतिरिक्त धर्माध्यक्ष और राजाध्यक्ष नामक कर्मचारी भी बटाते थे । यदि किसी व्यक्तिको पुत्र नहीं होता था तो उसकी मृत्युके पश्च त् उसके धन-दौलतकी मालिक उसकी विधवा पत्नी और पुत्रियां भी होती थीं; यह बात गङ्ग न्यायमें खास थी । दासपुत्रोंको भी उत्तराधिकार प्राप्त था । पहले 'कुल' में किसी झगड़ेको तय किया जाता था । उसकी अपील व्यापारिक वेन्द्र श्रेणी' में होती थी और उसकी भी अपील 'पूग' नामक सार्वजनिक सभा जिसमें सभी नागरिक सम्मिलित होते थे, हो सकती थी। अंतिम निर्णय राजाके माधीन थी। न्याय व्यवस्था में राजाको अधिक कठोर बनने की आवश्यक्ता नहीं थी । जैनधर्मके प्रचारके कारण गङ्गवाड़ीके निवासियोंमें दया करुणा, सत्य, नैतिक दृढ़ता आदि गुणका बाहुल्य था, जिसकी वजह से अपराधों की संख्या बहुत कम होती थी । अपराधियोंको बहुधा जुम्मानेका दण्ड दिया जाता था । प्राणीवधका अपराधी अवश्य फांसीकी सजा पाता था । र गंगवाड़ीके निवासियोंमें अनेक प्रकारके मतमतांतरों की मान्यता थी। बहुधा लोग नागपूजा के अभ्यासी थे । धार्मिक स्थिति । वह भूत-प्रेत और वृक्षोंकी भी पूजा करते और बौद्ध-तीनों धर्म थे । ब्राह्मण, जैन १- गंग० ५० १७१-१७३। 2- As Jainism, the dominent religion of Gangavadi laid the strongest emphasis on moral rectitude and sanctity of animal life and promoted high truthfulness and honesty among the people, crime seems to have been rare. — M. V. Krishna Rao, M. A., B. T. ) गङ्ग पृष्ठ १७७ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ENSIV . . गङ्ग राजवंश। ९९ लोगोंमें प्रचलित थे। ब्राह्मणलोग पहले शैव धर्मके ही अनुयायी थे। कुछ लोग 'शक्ति के भी पुजारी थे। उपरांत वैष्णवधर्मका भी प्रचार होगया था। जैनधर्मने अपना महत्वशाली स्थान प्राचीनकालसे जनतामें कर रक्खा था। दक्षिणका जैनधर्म वही प्राचीन धर्म था जिसका उपदेश अंतिम तीर्थकर भगवान महावीरने दिया था; क्योंकि भद्रबाहुस्वामीके समयमें जैन संघ भविभक्त था और उसी भविभक्त संघके अधिकांश भाचार्य और साधु दक्षिण भारतमें माये थे। वह लोग अपनेको 'मूलसंघ'का बतलाते थे। निस्सन्देह श्वेतांबर जैनी वहां मिलते भी नहीं हैं । मंदिरोंमें दिगम्बर प्रतिमायें ही स्थापित की जाती थीं और उनको ही लोग पूजते थे । ईस्वी प्रारम्भिक शतांब्दियों तक बौद्ध धर्म भी दक्षिणमें प्रचलित रहा; परन्तु अपने शून्यवाद और क्रियाकांडके सर्वथा अभावके कारण वह वहां ब्राह्मणों और जैनों के सम्मुख टिक न सका। गंग वंशके राजा मुख्यतः जैनधर्मके ही भक्त थे; परन्तु धार्मिक विषयोंमें उनकी राजनैतिक रीति-नीति गंगराजा और समुदार थी। वे जैनोंके साथ ब्राह्मणों और जैनधर्म। बौद्धोंका भी भादर-सत्कार करते थे और किसी किसी रानाने उनको दान भी दिया था। किंतु जैनधर्म पर गंगराजा विशेष रूपमें सदय हुये थे। हम लिख चुके हैं कि गंग वंशके मादि पुरुष माधव और दिदिग जैनाचार्य सिंहनंदिके शिष्य थे, जिन्होंने उन्हें जैनधर्ममें दीक्षित -गंग०, पृ० १७९-१९० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००] संक्षिप्त जैन इतिहास । किया था। 'यथा राजा तथा प्रजाः' की उक्ति उस समय कार्यकारी हुई। गंगवाड़ीमें जैनधर्मकी जड़ गहरी बैठ गई, उसका खूब ही प्रचार हुमा। जिनेन्द्रकी छत्रछायामें ही गंगवंशी शासकोंने राज्य किया। यद्यपि विष्णुगोपने वैष्णवमत गृहण कर लिया था; परन्तु फिर भी जैनधर्मका सितारा ऊंचा बना रहा। श्री विक्रमके समयसे गगवंशके राजामोंने जैनधर्मका पालन खुब दृढताके साथ किया। उधर राष्ट्र कूटोंका साहाय्य और संक्षण भी जैनधर्मको प्राप्त हुआ था। इन कारणोंसे जैनधर्मका इससमय विशेष अभ्युदय हुआ था। कई गगवंशी राजा जैसे नीतिमार्ग, बुटुग और मासिंह केवल जैन सिद्धांत के धुरंधर विद्वान थे, इतना ही नहीं बल्कि माने महान् धर्मकों के लिये भी वह प्रसिद्ध थे, जिन्होंने मन्दिरों, वस्तियों, मठों, मानस्तंभों, पुलों, सालाबों मादिको निर्माण कराया और उनके लिये भूमिदान भी दिया। चामुंडरायने 'चामुंडराय वस्ती' और विशाल गोम्मटमूर्ति श्रवणबेलगोल में निर्मापित कराये। और तो और, माखिरी अंधकारमय अवसर पर भी रक्कमगंग और नीतिमार्ग तृतीयने जैनधर्म प्रचार और प्रमावके लिये प्रशंसनीय उद्योग किया था। उन्होंने तककाडमें एक भव्य मन्दिर निर्माण कराया तथा और भी बहुतसे धार्मिक कार्य किये । खेद है कि यह सुन्दर नगर माज कावेरी नदीके रेनमें दवा पड़ा है। यदि कभी खुदाई हुई और उसका उद्धार हुआ, तो अपूर्व जैन कीर्तियां वहांसे उपलब्ध होंगी।' इसप्रकार राजाश्रय प्राप्त करके जैनधर्म उन्नतावस्थाको प्राप्त १-गंग०, पृष्ठ २०४-२०५. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। [१०१ हुआ और इस काल में अनेक धुरंधर ज... दिगम्बर जैनाचार्य । चायों ने उसके नाम और काममें चार चांद लगा दिये । उनके सतत और पुनीत अध्यवसायके वशवर्ती हो दिगम्बर जैनधर्म दक्षिण भारतमें नवीं शताब्दि तक सर्वोपरि रहा । इतिहासको सर्व प्राचीन दिगम्बर जैनाचार्य रूपमें श्रुत केवली भद्रबाहुका ही पता है । वह मौर्यसम्राट् चन्द्रगुप्तके साथ जैनसंघको लेकर दक्षिणभारतमें भाये थे और श्रवणबेळगोलमें ठहरे और समाधिको प्राप्त हुये थे, यह हम पहले लिख चुके हैं। उस जनसंघ द्वारा जैनधर्म का खूब प्रचार हुमा था। श्रवणबेलगोल, पंचपांडवमलय आदि स्थान संभवतः इन्हीं साधुओंके कारण तीर्थरूपमें प्रसिद्ध हुये थे। इन साधुओंकी तपस्यासे पवित्र हुये स्थान भला क्यों न पूज्य होते ? जनता इन साधुओंको चमत्कारिक ऋद्धि-सिद्धि दाता भी मानते थे और उनकी पूजा विनय श्रद्धापूर्वक करते थे। प्रत्येक सभदायके भाचार्य अपने मतको ही सर्वप्रधान बनाने का उसोग करते थे। जैनाचार्यों ने इस अवसरसे काम उठाया और चौथी शताब्दिके लगभग जैनधर्म को पांड्य, चोल और चेर देशोंमें प्रमुखपदपर ला बैठाया । गामिल साहित्य जनों के संरक्षणमें वृद्धिंगत हुमा। कुंदकुंदाचार्य सदृश प्राचीन और महान् आचार्यने इस पुनीत कार्यमें भपनेको उत्सर्ग कर दिया, यह पहले लिखा जाचुका है। __ कहते हैं कि वह द्राविड़सबके मूलस्थान पाटलीपुत्रमें ही संमतः रहते थे और उनके शिष्य प्रसिद्ध पल्लव राजकुमार शिवकुमार महारान थे, जिनके लिये उन्होंने अपने अनूठे ग्रंथ-रत्न लिखे थे। उन्होंने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.०२] संक्षिप्त जैन इतिहास । ननधर्म प्रचारके लिए पांड्य, चोल और चेर देशमें कई वार भ्रमण 'करके भव्योंका उद्धार किया था। यह भाचार्य महाराज इतने मान्य और प्रसिद्ध हुए कि इनके नामकी अपेक्षा जैन साधुओं का 'कुन्दकुन्दान्वय' अस्तित्व में भाया । कुन्दकुन्दस्वामीके बाद दूसरे प्रख्यात भाचार्य स्वामी समन्तभद्र थे। इनकी प्रतिभा और पवित्रताने जन धको खूब ही प्रकाशित किया था। इनका भी वर्णन पहले लिखा जाचुका है। गङ्ग राजवंशके वर्णनमें विशेष उल्लेखनीय श्री सिंहनन्दाचार्य हैं । उनका महान व्यक्तित्व, प्रतिभा और प्रभाव इसीसे प्रष्ट है कि उन्होंकी सहायतासे माघव और दिदिग गङ्गराज्यकी स्थापना करने में सफल-मनोरथ हुए थे। सिंहनन्दि भाचार्यने उन राजकुमारोंको केवल धर्मो देश ही नहीं दिया था; बल्कि उनको सेना मौर अन्य राजकीय शक्तियां भी प्रप्त कराई थीं। खेद है कि इन महान् भाचार्य के विषयमें अधिक कुछ भी ज्ञात नहीं हुआ है । हाँ, यह अनुमान किया जाता है कि सिंह. नंदिके निकटतम उत्तराधिकारी वक्रग्रीव, 'नवस्तोत्र' के रचयिता बज्रनन्दिन् और 'विलक्षण सिद्धान्त' के खंडनकर्ता पात्रकेसरी थे। वक्रग्रीव भाचार्यकी विद्वत्ताका अनुमान इसीसे लगाया जा सकता है कि उन्होंने 'अथ' शब्दका अर्थ लगातार छै महीने तक प्ररूपा थी। दज्रनन्दिन् संभवतः माचार्य पूज्यपादके शिष्य थे, जिन्होंने मदुरामें 'द्राविड़ संघ' की स्थापना केवल जैन धर्मके प्रचारके लिये की थी। १-ग०, पृष्ठ १९३-१९६. २-शिसं०, ममिका- पृष्ठ १२८. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग राजवंश । [ १०३ आचार्य पात्रकेसरीका स्थान तत्कालीन जैन संघमें उल्लेखनीय था । वह जन्मसे जैनी नहीं थे। जैन धर्ममें पात्रकेसरी | वह दीक्षित हुए थे। इस घटना से उस समय के जैनाचार्यों के धर्मप्रचारका महत्व स्पष्ट होता है । उनके निकट धर्मप्रभावना केवल नयनाभिराम मंदिरों और । मूर्तियों को बना देने से ही नहीं थी, बल्कि मिथ्यादृष्टियों के अज्ञानको मिटा देना ही उनके निकट सच्चा धर्मप्रभाव था । पात्रकेसरी के समान उद्भट वैदिक धर्मानुयायी ब्राह्मण विद्वान्का जैनी होना उन जैनाचार्यों के अकाट्य पाण्डित्य और प्रतिभाका ज्ञापक है | आचार्य पात्रकेसरीका कर्मक्षेत्र अहिच्छत्र नामक स्थान थे । वहां वह राज्य में किसी अच्छे पदपर आसीन थे । स्वामी समन्तभद्र के 'देवागम' स्तोत्र को सुनकर उनकी श्रद्धा पलट गई थी और वह जैनधर्म में दीक्षित होगये थे | जैनी होनेपर उनके भाव उत्तरोत्तर पवित्र होते गये | यहांतक I कि वह अन्ततः दिगम्बर जैन मुनि होगए। मुनि दशा में वह पवित्र आचारको पालते और निर्मक ज्ञानको प्रकाशित करते थे । " भगवज्जिन सेनाचार्य जैसे आचार्योंने आपकी स्तुति की है और आरके निर्मक गुगको विद्वानों के हृदयपर हार की तरहसे आरूढ़ बतलाया है । " पात्रकेसरी स्वामीने ' जिनेन्द्र गुण संस्तुति ' नामक एक स्तोत्र ग्रन्थ रचा था, जिसे " पात्रकेसरी स्तोत्र " भी कहते हैं और जो 'माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला' में छप चुका है । इस १- अहिच्छत्र नामक स्थान दक्षिण भारत में भी था। चूंकि पात्र - केशरीके समसामयिक विद्वान् दक्षिण में ही हुए थे, इसलिए वह भी दक्षिण अहिच्छत्र में हुए प्रतीत होते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] संक्षिप्त जैन इतिहास । रचनासे प्रगट है कि उनके ग्रन्थ बड़े महत्वके होते थे । परन्तु खेद है कि उनकी अन्य कोई रचना उपलब्ध नहीं है । ग्यारहवीं शताब्दि तक उनके प्रसिद्ध न्याय ग्रन्थ 'विलक्षण कदर्थन ' के अस्तित्वका पता चलता है । बौद्धाचार्य शांतिरक्षित ( सन् ७०५-७६२ ) ने अपने 'तत्वसंग्रह ' नामक ग्रंथमें उससे कतिपय श्लोक उद्धत किये थे। अलंकदेवके ग्रंथोंके प्रधान टीकाकार श्री मनन्तवीर्य भाचार्यने, जिनका आविर्भाव मफलंकदेवके मंतिम जीवनमें अथवा उनसे कुछ ही वर्षों बाद हुमा जान पड़ता है, मालंकदेव कृत 'सिद्ध विनिश्चय' ग्रन्थकी टीकाके 'हेतुलक्षण सिद्धि' नामक छठे प्रस्तावमें पात्रकेसरीस्वामी, उनके "त्रिकक्षण-कदर्थन ” ग्रन्थ और उनके 'अन्यथानुपपन्नत्वं' नामके प्रसिद्ध श्लोकके विषय में उल्लेखनीय चर्चा की है, जिससे पात्रकेसरीकी विद्वत्ता और योग चर्या का पता चलता है । कहते हैं कि उक्त श्लोककी रचनामें उन्हें श्री पद्मावतीदेवीने सहायता प्रदान की थी । वह तीर्थकर सीमेवरस्वामीके निकटसे उक्त इलोकको प्राप्त करके लाई और पात्रकेसरीको उसे दिया । शासनदेवताका इस प्रकार सहायक होना पात्रकेसरीको एक ऊंचे दर्जेका योगी प्रमाणित करता है। उस इलोकको पाकर ही पात्रकेसरी बौद्धोंके अनुमान विषयक हेतु बक्षणका खण्डन करने के लिये समर्थ हए थे। श्रवणबेलगोल के 'मल्लिषेण प्रशस्ति' नामक शिलालेख (नं. ५४-६७ में, जो कि शक सं० १०५० का लिखा हुमा है, · त्रिलक्षण-कदर्थन' के उल्लेखपूर्वक पात्रकेसरीकी स्तुति की गई है। यथाः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश | [ १०५ " महिमासपात्र के सरिगुरोः परं भवति यस्य भक्त्यासीत् । पद्मावती सहाया त्रिलक्षण- कदर्थनं कर्तुम् ।। " भावार्थ-उन पात्रकेसरी गुरुका बड़ा माहात्म्य है जिनकी भक्ति के वश होकर पद्मावतीदेवीने 'त्रिलक्षण कदर्थन ' की कृतिमें उनकी सहायता की थी । बेलूर तालुकेके शिलालेख नं० १७ में भी श्री पात्रकेसरीका लेख है । इसमें समन्तभद्रस्वामी के बाद पत्रिकेसरीका होना लिखा है और उन्हें समन्तभद्र के द्रमिल संघका अग्रेसर सूचित किया है। साथ ही, यह प्रकट किया है कि पात्रकेसरीके बाद क्रमशः वक्रग्रीव, बज्रनन्दी, सुमतिट्टारक, मौर समयदीपक अकलंक नामके प्रधान माचार्य हुये हैं । इन उल्लेख से पात्रकेसरीकी प्राचीनताका पता चलता है। वे अकलंक देवसे बहुत पहले हुये प्रतीत होते हैं । द्राविड़ संघकी स्थापना वि. सं. ५२६ में वज्रनन्दीने की थी । अतः उनसे पहले हुए पात्र केसरीका समय छठी शताब्दी से पहले पांचवीं या चौथी शताब्दि के करीब होना चाहिये । कतिग्य विद्वान् श्री विद्यानन्द स्वमीका ही अपग्नाम पात्रकेसरी समझते हैं, परन्तु यह भूल है । पात्रकेसरी एक भिन्न ही प्रभावशाली चार्य थे। १ गङ्ग राज्य में जैनधर्मका प्रचार करनेवाले आचार्योंमें भट्टारक सुनतिदेव भी उल्लेखनीय थे । श्रवणबेलगोलकी अन्य आचार्य | मल्लिपेण प्रशस्तिमें उनका उल्लेख हुआ है और उन्हें 'सुमतिसप्तक' नामक सुभाषित १ - अनेकान्त, म ० १ १० ६८-७८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] संक्षिप्त जैन इतिहास । प्रथका रचियता लिखा है। इस ग्रन्थमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थो का अच्छा विवेचन किया गया था। दूसरे उल्लेखनीय भाचार्य श्री कुमारसेन, चिन्तामणि, श्री वर्द्धदेव और महेश्वर थे। श्री वर्द्धदेवका दूसरा नाम उनके जन्मस्थानके नामकी अपेक्षा तुम्बुलाचार्य था। उन्होंने ९६००० श्लोक प्रमाण 'चूड़ामणि' नामक ग्रन्थकी रचना की थी, जिसके कारण वह ' कवि चूड़ामणि' कहलाये थे। महाकवि दण्डिन् ( ७वीं शताब्दि ) ने इनकी प्रशंप्तामें कहा था कि: 'जह्वोः कन्यां जटाग्रेण वभार परमेश्वरः । श्रीबर्द्धदेव सन्धत्से जिहाग्रेण सरस्वतीं ॥ भावार्थ-जिसप्रकार शिवजीने अपनी जटाके अग्रभागसे गंगाको धारण किया, उसी प्रकार श्रीवर्द्धदेवने अपनी जिह्वाके अग्रभागसे साक्षात् सरस्वतीको धारण किया है ! निस्संदेह भाचार्य श्रीवर्द्धदेवकी प्रतिमा और कीर्ति मद्वितीय थी। श्री वर्द्धदेव भाचार्यके समकालीन विद्वान् पूज्यपाद थे, जिनका दीक्षानाम देवनन्दि था और जो देवनंदि पूज्यपाद। संमततः छठी शताब्दिमें माने अस्तित्वसे इस घरातलको पवित्र बना रहे थे । शास्त्रोंमें उनकी प्रसिद्धि एक योगी-रूपमें विशेष है। अपनी महद् बुद्धिके कारण वह जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये थे। कनड़ीके 'पूज्यपाद चरित्र' नामक ग्रन्थमें उनका जीवन-वृतांत लिखा हुमा मिलता है। उससे १-गंग• पृ. १९६-१९७। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग राजवंश। [१०७ विदित होता है कि 'पूज्यपादका जन्म कर्णाटक देशके कोले नामक ग्राममें रहनेवाले माषमट्ट नामक ब्राह्मण और श्रीदेवी ब्राह्मणीके गृहमें हुमा था। माधवमट्टने अपनी पत्नीके अग्रहसे जैनधर्म स्वीकार किया था। इसलिये बालक पूज्यगद जन्मसे ही जैन वातावरणमें पाले- पोसे भौर शिक्षित-दीक्षित किये गये थे। पूज्यगदकी एक छोटी बहिन थी, जिसका नाम कमलिनी था। वह गुणभट्टको व्याही थी और उसका नागार्जुन नामका पुत्र था। एकदफ़ा पूज्यपादने एक बगीचे में एक सांपके मुंहमें फंसे हुये मेंडकको देखा, जिससे उन्हें वैराग्य होगया और वे दिगम्बर जैन साधु बन गये । उधर गुणभट्टके मरजानेसे नागार्जुन अतिशय दरिद्र होगया। साधुप्रवर पूज्यपादको उस पर दया भागई और उन्होंने उसे पद्मावतीका एक मन्त्र दिया एवं उसे सिद्ध करने की विधि बतला दी। पावतीने नागार्जुनके निष्ट प्रकट होकर उसे सिद्धरसकी वनस्पति बतलादी। इस सिद्ध. रतसे नागार्जुन सोना बनाने कगा। उसने एक जिनालय बनवाया और उसमें भगवान् पार्श्वनाथकी प्रतिमा स्थापित की। पूज्यपाद पामयोगी थे। वह गगनगामी लेप लगाकर विदेह क्षेत्रको जाया करते थे। उन्होंने मुनि अवस्थामें बहुत समय तक योगाभ्यास किया और एक देवके विमान में बैठकर भनेक तीर्थोकी यात्रा की। तीर्थयात्रा करते हुये मार्गमें एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट होगई थी सो उन्होंने एक शान्त्याष्टक रचकर ज्योंकी त्यों करली । इसके बाद उन्होंने अपने ग्राममें भाकर समाधिपूर्वक मरण किया। उन्होंने 'जैनेन्द्र व्याकरण 'महत्प्रतिष्ठालक्षण और वैद्यक-ज्योतिषके कई ग्रन्थ रचकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] संक्षिप्त जैन इतिहास | 19 जैनधर्मका द्योत किया था । इस वृतान्तसे स्पष्ट है कि (१) पूज्यपाद कर्णाटक देशके अधिवासी ब्राह्मण थे, (२) उनका कार्यक्षेत्र भी वहां ही था, (३) उन्होंने विदेहक्षेत्रकी यात्रा की थी, (४) जैनेन्द्र व्याकरण आदि ग्रन्थोंको उन्होंने रचा था, (५) और वह एक बड़े योगी एवं मंत्रवादी थे । 'पूज्यपाद चरित्र' में वर्णित इन बातों का समर्थन अन्य स्रोत से भी होता है । गङ्ग-राजा दुर्विनीत के वह गुरु थे, यह पहले लिखा जा चुका है । अतः पूज्यपादका कार्यक्षेत्र दक्षिण भारत ही प्रमाणित होता है । मर्करा (कुर्ग ) के प्राचीन ताम्रपत्र ( वि० सं० १२३ ) में कुन्दकुन्दान्वय और देशीयगणक मुनियोंकी परम्परा इसप्रकार दी है: - गुणचन्द्र, अभयनंदि, शीलमद्र, ज्ञाननंदि, गुणनंदि, और वदननंदि । अनुमान किया जाता है कि पूज्यपाद इन्हीं वदननंदि आचार्य के शिष्य अथवा प्रशिष्य थे। उनके सम्बन्ध में निम्न श्लोक भी विद्वानों द्वारा उपस्थित किया जाता है ' यो देवनन्दि प्रथमाभिधानो । बुद्धया महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः ॥ श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभियत्पूजितं पादयुगं यदीयम् । ' भावार्थ - ' उन आचार्यका पहला नाम देवनन्दि था, बुद्धि की महत्ता के कारण वे जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये और देवोंने उनके चरणोंकी पूजा की, इस कारण उनका नाम पूज्यपाद हुआ । श्रवणबेलगोल के ( नं. १०८ ) मंगगज कविकृत शिलालेख में (वि. १ - जेहि० मा० १५ १० १०५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग- राजवंश । [ १०९ सं० ० १५००) में उनके विषय में नीचे लिखे श्लोक उपलब्त्र होते हैं ." श्री पूज्यपादोद्धृनधर्म र ज्यस्थतः सुराधीश्वर पूज्यपादः । । यदीयदु गुगा!नदान वदन्ति शाखाणि तदुद्धानि ॥ १५ ॥ विश्वबुद्धरयमत्र योगिभिः कृतकत्वभावमनुविदुच्चकैः । जिनवद्वभुव यदगचापहृत्स जिनेन्द्रबुद्धिरिति सधुरिः ॥ १६ ॥ श्री पूज्यपादमुनिरप्रतिमोषद्धि जीयाद्विदेह जिनदर्शन पूनगात्रः । यत्पादधौत जलसंस्पर्श प्रभावात् कालायसं किल तदा कनकीचकार ॥१७॥' इन श्लोकोंका अभिप्राय यह है कि पूज्यपाद स्वामी देवेन्द्र द्वारा पूज्यनीय थे । वह बड़े गुणी, बहु शास्त्र विज्ञ, विश्वोवकारकी बुद्धि धारक परम योगी थे। वह अपनी बुद्धि की प्रकर्षा के कारण जिनेन्द्रबुद्धि कहलाते थे । वह औषधि ऋद्धि के धारण करनेवालेविदेह क्षेत्र में स्थित जिनेन्द्र के दर्शन द्वारा हुए पवित्रगात थे और उनके पदप्रक्षालित जलसे लोहा भी सोना होजाता था । विद्वानों ने उनकी विद्या और प्रतिभाकी पद-पदपर प्रशंपा की है और उनका उल्लेख संक्षिप्त 'देव' नामसे भी किया है। श्री वादिराजने उनकी अचिन्त्य महिमा बताई' और श्री जिनसेनाचार्यने उन्हें देववन्द्य एवं 'जैनेन्द्र' नामक व्याकरणका कर्त्ता लिखा है। श्री शुमचंद्राचार्यने उनको सदा पूज्यपाद वैयाकरण कहा है और धनंजय कविने भी उनके व्याकरणका उल्लेख किया है । वैयाकरण के रूपमें 3 १ - ' अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिनंद्य हितैषिणा । - पार्श्वनाथचरित स १. २ - ' इन्द्रचन्द्रार्क जैनेन्द्रव्यापि व्याकरणे क्षिगः । देवस्य देववन्द्यस्य न वंदते गिरः कथम् ॥ ' - हरिवंश पुराण । ३- 'पूज्यपादः सदा पूज्यपादः पूज्यैः पुनातु माम् । इत्यादि । - पांडवपुराण | पूज्यपादस्य लक्षणम् । – नाममाला । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] संक्षिप्त जैन इतिहास । पूज्य गदकी प्रसिद्धि यहांतक हुई थी कि व्याकरणमें किसी विद्व न्की विद्वत्ता प्रकट करने के लिए लोग उन्हें साक्षात् 'पूज्यपाद ' कहा करते थे। कनड़ी कवि वृत्तिविलासने स्वाचित 'धर्मविलास' की प्रशस्तिमें पूज्यपादजीकी बड़ी प्रशंसा लिखी है और उनकी भन्यान्य रचनाओं का उल्लेख निम्न प्रकार किया है: " भरदि जैनेन्द्रमासुर-एनल ओरेदं पाणिनीयके टीकुं वरेदं तत्त्वार्थमं टिप्पणदिन अरिपिदं यंत्रमंत्रादिशास्त्रोक्तकरम् । भूरक्षणार्थ विचिसि जसमुं तालिददं विश्वविद्याभरणं भव्यालिपाराधितपदकमकं पूज्यपादं व्रतीन्द्रम् ॥" भावार्थ-" व्रतीन्द्र पूज्यपादने, जिनके चरणकमलोंकी भनेक भव्य माराधना करते थे और जो विश्वभरकी विद्याओं के शंगार थे, प्रकाशमान जैनेन्द्र व्याकरण की रचना की, पाणिनि व्याकरणकी टीका लिखी, टिप्पण द्वारा तत्वार्थका अर्थावबोधन किया और पृथ्वीकी रक्षाके लिये यंत्रमंत्रादि शास्त्रकी रचना की।" माचार्य शुमचन्द्र ने 'ज्ञानार्णव' के प्रारंभ में देवनन्दि ( पूज्यपाद ) की प्रशंसा करते हुए लिखा है: 'अपा कुर्वन्ति यद्वाचः कायवाकचित्तसंभवम् । कलङ्कमङ्गिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ।। अर्थात्-" जिनकी वाणी देहधारियों के शरीर, वचन और मन सम्बन्धी मलको मिटा देती है, उन देवनंदीको मैं नमस्कार करता १- सर्वव्याकरणे विपश्चिद धिपः श्री पूज्यपादः स्वयं ।' -प्रवणबेलगोल शि. नं. ४७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। [१११ है।" देवनंदि (पूज्यपाद) के तीन ग्रन्थोंको वक्ष्य करके यह प्रशंसा की गई प्रतीत होती है । शरीरके मलको नाश करनेके लिये उनका वैद्यकशास्त्र, वचनका मैल (दोष) मिटाने के लिए 'जैनेन्द्र व्याकरण' और मनका मैल दूर करने के लिए 'समाधितंत्र' नामक ग्रंथ उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि देवनन्दि पूज्यपाद एक बहु प्रख्यात् भाचार्य थे। उन्होंने सारे दक्षिण भारतमें भ्रमण करके धर्मका उद्योत किया था। जहां जहां वह जाते थे वहां वहां वादियोंसे बाद करते और विजय पाते थे, जिससे जैन धर्मकी अपूर्व प्रतिष्ठा स्थापित होगई थी। उनकी विद्या सार्वदेशी थी, जिसके कारण. उन्होंने सिद्धांत, न्याय और व्याकरणके अद्वितीय ग्रन्थ रचे थे । उनका जनेन्द्र व्याकरण' ही संभवतः जैनियोंद्वारा रचा हुआ संस्कृत भाषाका पहला व्याकरण है । इसके अतिरिक्त उन्होंने निम्न ग्रंथोंकी रचना और की थी: १-सर्वार्थसिद्धि-दिगम्बर सम्प्रदायमें भाचार्य उमास्वामी कृत तत्वार्थाधिगम सूत्रकी यही सबसे पहली टीका है। इससे प्राचीन टीका स्वामी समन्तभद्र कृत गंधहस्ति भाष्य था; परन्तु वह अनुपलब्ध है। २-समाधितंत्र-अध्यात्म विषयका बहुत ही गम्भीर और तात्विक ग्रन्थ है। ३-इष्टोपदेश-केवल ५१ श्लोक प्रमाण छोटासा सुन्दर उपदेशपूर्ण ग्रंथ है। . ४-न्यायकुमुद चन्द्रोदय-न्यायका ग्रन्थ है, जिसका उल्लेख हुमचके एक शिलालेखमें हुआ है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] संक्षिप्त जैन इतिहास । ५-शब्दावतार न्यास-यह पाणिनिसूत्रकी टीका है। इसका उल्लेख भी उपरोक्त शिलालेखमें हुआ है । ६-शाकटायन सूत्र न्यास-शाकटायन व्याकरणकी टीका । पूर्वोक्त शिला) ७-वैद्यशास्त्र-यह चिकित्साशास्त्र अनुपरा है । ८-छंदशास्त्र । -जैनाभिषे-यह भी अनुालय है।' पूज्यगद के पश्च त् मूलसंवमें भाचार्य महेश्वर मादि अनेक माचार्यों ने माने अस्तित्व, व्यक्तित्व और अवशेष जैनाचार्य । कार्यग्टुत्व गुणों से भैन मकी प्रतिनाको अक्षुण्ण बनाये रक्खा था। भाचार्य महेश्वरके विषयमें कहा गया है कि वह महाराक्षसोद्वारा पूजित थे।' भट्टाकलङ्कस्वामीने राजा हिमशीतळकी राजसभा में बौद्धोंको परास्त करके जैन धर्म की प्रभावना की थी। उनके समय में बहुतसे जैनी उत्तरकी ओरसे माकर होडमण्डलममें बस गए थे। उन्होंने मण्णमले, मदुरा और श्रवणबेलगोलमें अपनी पल्लियां स्थापित की थीं। मण्णमलैकी जैन पल्लीके कतिाय प्रख्यात् जैन गुरु सन्दुसेन, इन्दुसेन और कनकनन्दि नामक थे। श्रवणबेलगोलके मूलसंघमें सर्वश्री भाचार्य पुष्यसेन, विमलचन्द्र और इन्द्रनन्दि थे, जो संभवतः मालङ्कम्वामीके सहधर्मी और ग्गवंशी राजा श्रीपुरुष और शिवमार द्वितीयके समसामयिक थे। विमलचन्द्रने शैव-पाशुपतादि-वादियों के १-जैशसं०, भूमिका पृष्ट १४१-१४२. २-जैशि६० मृमिका प. १४०. ३-४-गंग०, पृष्ठ० १९८-९९. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना सजवंश। [१११ साथ बाद करने के लिए 'शत्रु भयङ्कर' नामक राजाके भवनद्वारपर नोटिस लगा दिया था। यह उल्लेख उनकी विद्वत्ता, निर्मी कता मोर राज्यमान्यताका द्योतक है। श्री तोरणाचार्य और उनके शिष्य पुष्पनन्दि राजा शिवमारके गुरु थे। परमादीमल्लने नाना स्थानोश्र परवादियोंसे बाद करके अपने नामको सार्थक कर दिया था । मार्यदेव जैनधर्मके एक अन्य महाप्रचारक थे, जिन्होंने श्रवणबेलगोलकी विन्ध्यगिरिमर कायोत्सर्ग मुद्रासे समाधिमरण किया था। चन्द्रकीर्ति और कर्मप्रकृति नामक भाचार्य उनके समकालीन थे। चन्दकीर्तिने 'श्रुनबिन्दु' नामक ग्रन्थकी रचना की थी। उपरान्त श्रीपालदेव नामक प्रसिद्ध भाचार्य हुये, जिनका उल्लेख श्री जिनसेनाचार्य ने अपने आदिपुराण' में किया है, और जो व्याकरण, न्याय और सिद्धांत विषयों के पण्डित होने के कारण विद्याचार्य' कहलाते थे। इनके शिष्य प्रख्यात् वादी मीतसेन और हेमसेन थे, जिन्होंने बौद्ध वादियों को शास्त्रार्थमे परास्त किया था। श्रीधराचा. र्यके शिष्य एरेयप्पके गुरु एकाचार्य देशीगण और पुस्तकगच्छ के प्रसिद्ध भाचार्य थे, जिन्होंने एक महिने तक केवल जल लेकर जीवन निर्वाह करके समाधिमरण किया था । नवीं और दशवीं शताब्दिमें दक्षिण भारतमें एक विकट पार्मिक परिवर्तन हुमा। जैनधर्म और बौद्धधर्म-संकट। धर्म-दोनों ही विरुद्ध शैव और वैष्णवों का भकिवाद विजयी हुमा । पाण्यदेवमें 1-क्षिसं., पृष्ठ १०५. २-गग०, पृष्ठ १९९ -गम, १० २००. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] संक्षिप्त जैन इतिहास । सम्बन्दरक उद्योगोंके परिणाम स्वरूर जैनधर्म हतप्रभ हुभा तो अप. रने उन्हें पल्लवदेशमें न-कहींका बना छोड़ा, यह पहले ही लिखा जाचुका है । उधर दक्षिणपथमें अद्वैतवादी शंकराचार्य और मनिकवचकरके प्रचारसे जैनधर्मको काफी धक्का लगा। परिणामतः दक्षिण भारतमें जैनोंकी संख्या, जैनोंकी राजकीय प्रतिष्ठा और उनका प्रभाव क्षीण होगया । इस अवस्थामें भी एक विशेषता उनमें पूर्ववत् रही और वह यह कि उनका बौद्धिक-विकाश ज्योंका त्यों रहा । उन्होंने व्याकरण, न्याय और ज्योतिष विषयोंक अनूठे ग्रंथोंको सिरजा । मला, पेरियकुलम् , पल्लि और मदुग नामक तालुकोसे जो शिलालेख मिले हैं उनसे स्पष्ट है कि उतने प्रदेशमें जैनधर्मका प्रभाव तब भी अक्षुण्ण रहा था। मुनि कुरुन्दि मष्टोरवासी और उनके शिष्योंने यहां खासा धर्मपचार किया था। 'जीवकचिन्तामणि' नामक ग्रन्थसे प्रगट है कि भाचार्य गुणसेन. नागनंदि, मरिष्टनेमि और अजनन्दि भी इसी समय हुए थे, जिन्होंने अपनी धर्मपराय. णतासे भव्यों का उपकार किया था। श्री गुणभद्राचार्य के शिष्यमण्डल पुरुष भी इन प्रचारकोंके साथ उल्लेखनीय हैं। उन्होंने तामिलभाषामें एक छंदशास्त्र रचा था । पल्लव और पाण्ड्यदेशोंमें निर्गसित होकर मधिकांश जैनी गंगवाड़ीमें ही मारहे। श्रवणबेलगोल उनका केन्द्र था। गंगवाड़ीमें भाये हुये इन जैनियोंमें इस समय कतिपय विशेष उल्लेखनीय भाचार्य हुये, जिनका प्रभाव न उपरांतके दिगम्बर वेवळ गंगवाड़ीपर बल्कि राष्ट्रकूट-राज्य पर जैनाचार्य। भी था। इनमें श्री प्रमाचन्द्राचार्य राठौर . 1-गंग०, १९९-२०२। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। [११५ सम्राट् अमोघवर्षके गुरु श्री जिनसेनाचार्य के पहले होचुके थे। उन्होंने अपने समयके राजा और प्रनाको धर्मस्त बनाकर जैनमतका उद्योत किया था। यह प्रभाचन्द्र परीक्षामुखके' रचयिता श्री माणिकनंदी भाचार्य के शिष्य थे और इन्होंने प्रमेयकमनमार्तण्ड' और 'न्यायकुमुद चंद्रोदय' नामक ग्रन्थोंकी रचना की थी । जैनेन्द्र व्याकरणका ‘शब्दाम्भोज भास्कर' नामक महान्यास भी संभवतः आपका बनाया हुमा है ।' निस्संदेह वह एक अत्यंत प्रभावशाली विद्वान थे (One of the most infteential Jain techer) श्री जिनसेनाचार्य और श्री गुण मद्रायने राष्ट्रकूट राजामें उन्हींकी तरह धर्मका उद्योत किया था। किन्छु गंगवाड़ीमें दूसरे प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री मनितसेन थे। ___ यह भनितसेनाचार्य गङ्गसम्राट् मारसिंह और प्रसिद्ध गंग सेनापति चामुंडरायजीके गुरू थे। “मल्लिअजितसेनाचार्य। घेणाचार्य विचित 'नागकुमार काम्य' और 'भैरवपद्मावतीकर' नामक ग्रंथोकी प्रशस्तियोंमें उनको 'मुपकिरीट' विघट्टिनकमयुग:-'सकल नृपसुकुटपटितचरण युग: - जितकषाय'-'गुणवारिधि'-'चारूचरित्र' तपोनिधि लिखा है। श्री नेमिचन्द्राचार्यने अपने 'गोम्मटसारमें उनकी प्रशंसा करते हुए, उन्हें भार्यसेन गणिक गुणसमूहका धारक और भुवनगुरु. प्रगट किया है। और 'बाहुबनिचरित्र के क ने उन्हें नन्दिसंघके अन्तर्गत देशीगणका भाचर्य तथा श्री सिंहनन्दि मुनिके चरणकमलका अमर १-HIR, मूमिका 8 ५८१ग०, पृ० २०२ . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] संक्षिस जैन इतिहास । बतलाया है। इससे प्रगट है कि 'श्री मजितसेनाचार्य नंदिसंघके मन्तर्गत देशीगणके भाचार्य थे और उनके गुरु सिंहनंदी तथा मार्यसेन नामके मुनिराज थे। उन्होंने 'अलङ्कार चूड़ामणि' और 'मणिप्रकाश' नामक ग्रन्थको रचा था।' गङ्ग राजा मारसिंहने सन् ९७३ ई० में बकापुरमें इन्हीं भाचार्य महाराज के चरणकमलोंमें सल्लेख. नाव्रत धारण करके देवगति प्राप्त की थी। सेनापति चामुंडराय और उनके पुत्र जिनदेवन उनके श्रावक-शिष्य थे। श्रवणबेलगोलमें एक जिनमन्दिर निर्माण कराकर उन्होंने भजितसेनाचार्य के प्रति उत्सर्ग किया था। भजितसेनस्वामी स्वयं राजमान्य महापुरुष थे और उनके उपरांत हये जैनाचार्य भी राज्याश्रमको पाने में सफल हये थे। परिणामतः राजा और प्रजाके सहयोग द्वारा श्री मजितसे न जीने जैनधर्म का प्रकाश खुब ही किया था। इन मुनिगजके प्रधान शिष्य 'कनकसेन' नामक मुनि थे, जो 'विगतमानमद'-'दुरितांत'-'बरचरित्र'-महा. व्रत पालक' मुनिपुंगव लिखे गये हैं। कनकसेनके भनेक शिष्य थे, जिनमें 'भवमहोदधितारतरंडक' जितमद श्री जिनसेनजी मुख्य थे। इन जिनसेनजीके छोटे भाई का नाम नरेन्द्रसेन था, जो चारुचरित्र. वृत्ति, पुण्यमूर्ति और वादियों के समूहके जीतनेवाले कहे गये हैं। श्री जिनसेनके शिष्य मलिषेण थे, जो ' उभय भाषा कवि १-जैहि०, मा• १५ पृष्ठ २१-२४ । ष्णराव महाशयने न मालूम किस भाधारसे भजितसेनजीको श्री गुणभद्राचार्यका शिष्य लिखा है ! (ग. पृ. २०)। 2-Sartstrit MH. My gotto Odong, p. 304. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग राजवंश। [११७ चक्रवर्ती ' कहलाते थे। यह बड़े भारी मंत्रमल्लिषेणाचार्य आदि। वादी थे । महापुगणकी प्रशस्तिमें इन्होंने स्वयं अपनेको — गारुड मंत्रवाद वेदी' लिखा है। भैरव-पद्मावती कल्प' और 'ज्वालिनी कला' नामक इनकी दोनों रचनायें मंत्रशास्त्र विषयक हैं । 'बाल गृहचिकित्सा' नामका ग्रन्थ भी उनका रचा हुमा हे । 'महापुराण' और ' नागकुमार चरित्र' भी उनके रचे हुए ग्रन्थ हैं। इनके अतिरिक्त 'हितरूप. सिद्धि' नामक ग्रन्थ के कर्ता और मतिसागर मुनिके शिष्य दया. पाक मुनि भी उल्लेखनीय हैं। वह वादिराज मुनिके सहधर्मी थे। वादिराज दशवीं शताब्दिके अर्द्धभागमें हुए प्रसिद्ध भाचार्य थे। उन्होंने चालुक्योंकी राजधानीमें अनेक परवादियों को परास्त किया था। वादिराजके सम सामयिक श्रीविजय नामक भाचार्य थे, जिनकी विनय गंगवंशके बुटुग, मारसिंह और रक्कमगंग नामक राजा ओंने की थी। सारांशतः गंगवाड़ीमें उस समय जैनधर्मके भाषारस्तम्भरूप अनेक प्रसिद्ध आचार्य हुये थे, जिन्होंने अपने पवित्र उपदेश और पावन कार्योंसे लोकका महान् कल्याण किया था। दिगम्बर जैनधर्मका मादर्श सदैव उसके तीन जगत प्रसिद्ध सिद्धांतों-अहिंसा, त्याग और तपमें गर्मित. जनाचार। रहा है। साथ ही मनुष्योंकी बुद्धि और वाणीको परिष्कृत भोर समुदार बनाने लिये उसका न्यायाला स्याद्वाद सिद्धांतपर स्थिर रहा है। गंग 3611-11-AIR ३११। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] ११८ संक्षिप्त जैन इतिहास । उसका पा सत्कायो वाड़ीके दिगम्बर जैनधर्ममें उसका मादर्श और न्याय मूर्तिमान हुमा था । दि० जैन मुनियों और श्रावकोंके सत्कार्योसे वह र मुन्नत बना था। मुनियों और श्रावकोंके लिये उस समय जो नियम प्रचलित थे, उनसे उपरोक्त व्याख्याका समर्थन होता है। गंगवाड़ीमें भी साधुदशा पूर्ण आचेलक्य-दिगम्बस्त्वमें गर्भित थी । इस असिघारा सम तीक्ष्ण व्रतका व्रतीजन सहर्ष अनुगमन करते थे । वह पंचमहाव्रतादिरूप मूलगुणों का पालन करते हुये अपनेको सदा ही दण्ड, शल्य, मद और प्रमादके चुंगलोंसे बचाये रहते थे। वह निरंतर ज्ञान, ध्यान और भावनाओंके चिंतनमें समय विताते थे ।' कर्म सिद्धांतमें उन्हें दृढ़ विश्वास था । शरीरसे ममता नहीं थी और न वह उसको साफ करने की चिंता रखते थे; बल्कि कोई२ भाचार्य तो शरीर के प्रति अपनी इस उपेक्षावृत्ति के कारण धूलधूसरित रहते हुये 'मनधारिन्' कहलाते थे। मुनि अवस्थामें वह हमेशा अपने ज्ञानको निर्मल बनाते थे और सुन्दर साहित्यिक रचनामों द्वारा लोक कल्याणका साधन सिरजते थे। मौखिक शास्त्रार्थों और अपने सत्कार्यों द्वारा वह जैनधर्मकी प्रभावना करते थे। मौनी भट्टारकने तो धर्मरक्षाके लिये शस्त्र प्रहण भी किया था। मुनियोंके साथ गृहस्थजन भी धर्म पालनका पूर्ण ध्यान रखते थे। वे 'श्रावक' मथवा 'मन्यजन' के नामसे प्रसिद्ध थे। यद्यपि उनका जीवन उतना कठिन और त्यागमय नहीं होता था, जितना कि मुनियोंका होता :- . - . -नका. भाग २ नं. १६१-२५८- । --- 2-Ride, Intro. to E. C. II. P. XXXVII, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग राजवंश । [११९ था, परन्तु उनके भादर्श और सिद्धांत वही थे-उनमें कोई अन्तर न था, अन्तर यदि था तो केवल व्यवहारकी मात्राका । इसीलिये श्रावक के लिये जो व्रत हैं वह अणुव्रत कहलाते हैं । गंगराज्यके श्रावक उनका पालन करते थे। शिलालेखोंसे प्रगट है कि उस समय 'प्रतिमाओं का प्रचलन विशेष था। प्रत्येक श्रावक प्रतिमाधारी होता था और अंसमें सल्लेखना व्रत करता था। सल्लेखना वाका पालन तो उससमय मुनि मार्यिका श्रावक-श्राविका सब हीने किया था। गङ्ग-राज्यके अन्तर्गत जनसाधारणमें शिक्षाका प्रचार भी संतोषजनक था; यद्यपि शिक्षाका कोई एक शिक्षा। नियमित क्रम नहीं था; परन्तु शिक्षाकी प्रणाली कठिन नियंत्रण और मनुशीकनपर भवलंबित थी। लोग इहलोक और परलोकको सफल बनाने के लिये ज्ञानोपार्जन करना भावश्यक समझते थे। बहुत से लोग अपनी ज्ञानपिपासाको तृप्त करने के लिये शिक्षा ग्रहण करते थे। साधारणतः प्रत्येक ग्राममें एक गृहस्थ उपाध्याय रहता था, जिसके घ में रहकर विद्यार्थीगण शिक्षा लेते थे। प्रारंभिक शिक्षा इन उपाध्यायों द्वारा प्रदान कीजाती थी। उच्चशिक्षाके लिये केन्द्रीय स्थानों में विद्यापीठ' 'मठ' 'अग्रहार' और 'पटिक' नामक उच्च शिक्षालय थे । इन शिक्षालयोंमे उच्चकोटिकी धार्मिक, दार्शनिक और लौकिक शिक्षा प्रदान की जाती थी। इसके अतिरिक्त देशमें विद्वत्सम्मेलन भी हुमा करते थे, जिनक द्वारा सांस्कृतिक ज्ञानकी वृद्धि हुमा करती . . ३-जैशिसं० देखो । . .. ७. -. www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] संक्षिप्त जैन इतिहास । NORANNERNINNARENNNNN... NIRAINRINAKSSINESIAMINONNNNN....NAN.... थी। शिक्षाका उद्देश्य विद्यार्थीको एक धर्मात्मा और सेवाभावका धारी नागरिक बनाना था। उसमें शारीरिक और बौद्धिक विकासके साथ२ आत्मोन्नत का भी ध्यान रखा जाता था । साांशतः गङ्गराज्यमें शिक्षाको सर्वोगी बनाने का ध्यान रखा गया था । नीति मार्गके ज्येष्ठपुत्र नरसिंहदेव के विषय में कहा गया कि वह राजनीति, हम्नविद्या, धनुर्विद्या, व्याकरण, शास्त्र, मायुर्वेद, भारतशास्त्र, काव्य, इतिहास, नृत्यकला, सांगीत और वादित्रकलामें निपुण थे। संगीत और नृत्य कलायें प्रायः प्रत्येक विद्यार्थी सीखता था । राज. कुमारियां भी इन कलाओंमें दक्ष हुमा करती थीं और राजदरबारों में उनका प्रदर्शन करने में वे लज्जाका अनुभव नहीं करती थीं । शिलाविद्याकी शिक्षा सन्तान क्रमसे कुल में चली भाती थी । शिल्पियोंकी 'वीरपञ्चल' संस्था खुब ही संगठित और समुन्नत थीं, जिनमें सुनार (अक्कसलिग), सिक्के ढालनेवाले ( कम्मद अचारीगल) लुहार (कम्मर ), बढ़ई और मैमार ( राज) सम्मिलित थे। तक्षण और स्थापत्यकलाकी उन्नति पञ्चल लोगों द्वाग खुब हुई थी। यह पञ्चक लोग मानेको विश्वकर्मा ब्राह्मण कहते थे और इनके नामके साथ 'अचारी' पद प्रयुक्त होता था । गङ्गोंके किन्हीं शासन लेखोंमें इन्हें 'मोजा' व 'ओज्झा' और 'श्रीमत्' भी लिखा है। प्रसिद्ध गोम्मट मूर्तिके एक शिरसीका नाम विदिगोजा था और राजमल्ल प्रथम (८२८ ई.) के समय मधुरोबझा प्रसिद्ध शिल्पाचार्य थे। समा. जो इन शिल्पियोंका सम्बान विषयो। १-गंग• पृष्ठ २६७-२६० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्गाजवंश। । १२१ धान मप्रहारों, घटिकों और मठोंमें उच्च कोटिकी लौकिक मौर धार्मिक शिक्षा प्रदान की जाती थी। अग्र. अग्रहार। हार घटिक संस्थायें प्रायः ब्राह्मण आचार्यो द्वाग चलित होती थीं और इनका अन्तरप्रान्तीय सम्बंध था। कांचीपुरकी घटिका समन्तभद्र, जाद मादि जैनाचार्योने जाका ब्राह्मण विद्वानोंसे बाद किये थे। इन वादोंमें विजयी होनेवालेकी खूब ही प्रसिद्धि होती थी। यही कारण था कि दार्शनिक और तात्विक सिद्धान्तोंका सूक्ष्म अध्ययन तीक्ष्ण बुद्धिधारी छात्रगण विशेष रीतिसे किया करते थे। श्री अकलङ्कस्वामीकी कथासे स्पष्ट है कि उन्होंने प्राणोंको संकट में डालकर उच्च कोटिकी शिक्षा प्राप्त की थी। इससे स्पष्ट है कि यद्यपि एक बौद्धमठमें संस्थायें साम्प्रदायिक थी; परन्तु इनमें शिक्षा सार्वदेशिक रूपमें दी जाती थी। उच्च शिक्षाके लिये गंगवाड़ीके जैनियोंमें भी अपने मठ और चैत्यालय थे, जिनके द्वारा जैनोंमें धर्मज्ञानका जैन मठ । प्रचार भी किया जाता था। ईस्वी सातवीं शताब्दिमें पाटलिका (दक्षिण अर्काट जिला) का जैनमठ उल्लेखनीय समुन्नतरूपमें था। इसके अतिरिक्त पेरूर, मण्णे और तलसाड मादि स्थानोंके चैत्यालय भी उल्लेख योग्य है। इच संस्थानों द्वारा जबताके मन्तव्योंको परिष्कृत किये जानेके साथ ही उसमें शिक्षा और साक्षरताका प्रचार किया जाता था। बैन संघका उद्देश्य वैयक्तिक चारित्रको awa मानाथ ओस उद्दश्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास। पूर्ति के लिये मुख्यतः अनुशीलन, दान और मपरिग्रह भावको प्रधा. .ता देना मावश्यक समझा जाता था। इन संस्थाओंमें उपाध्याय महाराज ऐसी ही मार्मिक शिक्षा प्रदान करते थे जो मनुष्यको एक मादर्श जैनी बनाती थी। इन शिक्षालयोंमें मौखिक रूपमें शिक्षा दी जाती थी। शिक्षाका माध्यम प्रचलित लोकभाषा-तामिक अथवा कनड़ी था। गुरु उपदेश के स्थान पर अपने उदाहरण द्वारा शिक्षाके उद्देश्यको व्यवहारिक सफलता दिलानेके लिये जोर देते थे। गुरुका निर्मल और विशाल उदाहरण निस्सन्देह छात्र पर स्थायी प्रभाव डालता था ! इपलिये इन मठोंसे छात्रगण न केवल शिक्षित होकर ही निकलते थे बल्कि उन्हें देश, जाति और धर्मके प्रति अपने कर्तव्य का भी भान हो जाता था। गङ्ग राज्य काल में संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के साहित्य विशेष उन्नतिको प्राप्त हुये थे। मशोकके साहित्य शासन लेखों और सातवाहन एवं कदम्ब राजाओंके सिकोपर अंकित लेखोंसे प्रगट है कि उस समय प्राकृत भाषा का बहु प्रचार था। महावल्लीका शिलालेख एवं शिवस्कन्दवर्मना दानपत्र भी इसी मतका समर्थन करते हैं । पहली शताब्दिसे ग्यारहवी शताब्दि तक जैनों और ब्राह्मणोंदोनोंने पाकृत भाषाको साहित्य-रचनामें प्रयुक्त किया था । परन्तु साथ ही यह स्पष्ट है कि जैनाचार्यों ने संस्कृत भाषामें भी अपूर्व साहित्य सिरजा था। समन्तभद्राचार्य, पूज्यपादस्वामी प्रमृति बाचा -गंग०, पृ० २६०-२६६ । .. ... . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com - Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। [१२३ योकी संस्कृत-रचनायें अमूल्य थीं । ७वी-८वीं शताब्दियोंमें जब जैनी एक बड़ी संख्यामें आकर गंगवाड़ीमें बस गये, तब वहां संस्कृत जैन साहित्यकी पवित्र जाही ही वह निकली । अष्टशती, माप्तमीमांसा, पद्मपुराण, उत्तरपुषण, कल्याणकारक मादि ग्रंथ इसी समयकी रचनायें हैं। सारांशत: गंग रज्यमें जैनियों द्वारा साहित्य की विशेष उन्नति हुई थी। गंगवाड़ीमें कनड़ी भाषाका प्रचार अधिक था। इस भाषाका साहित्य भी तामिक-साहित्य इतना प्राचीन कनडी साहित्य । था। ९ वीं-१० वीं शताब्दि के साहित्यक उल्लेखों एवं श्री पुरुष मादि राजाभोंके शिलालेखोंसे सष्ट है कि 'पूर्वद इलेकन्नड' अर्थात् प्राचीन कन्नड़ भाषा, जो मुलतः बनवासीकी भाषा थी, उसका प्रचार कन्नड़ साहित्यक कवियोंके मस्तित्वसे पहलेका था। किन्तु सातवीं माठवीं शताब्दिमें भाकर उसका स्थान 'हले-कन्नड' अर्थात् नूतन-कन्नड़ी-भाषाने ले लिया और १९ वीं शताब्दि तक उसका प्रचलन खूब रहा। पम्प कविने कनड़ी भाषाके प्रसिद्ध कवि रूपमें समन्तभद्र कविपरमेष्ठी और पूज्यपाद प्रभृति का उल्लेख किया है। यह कनड़ीके प्राचीन कवि थे। समस्तमद्रस्वामीने ' भाषामंजरी '_' चिंतामणिटिप्पणी' मादि ग्रन्थ रचे थे। श्री वर्द्धदेव अथवा तुम्बुलराचार्यने प्रसिद्ध ग्रंथ 'चूडामणि' की रचना की थी। भट्टाकलकने अपने 'कर्णाटक शब्दानुशासन' में इस ग्रंयकी खुब प्रशंसा लिखी। ... १-गंग०, पृ. २७०-२२।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] संक्षिप्त जैन इतिहास । और इसे कनड़ीके सर्वश्रेष्ठ ग्रंथोंमें एक बनलाया है। इन्हीं आचार्यके रचे हुए अन्य ग्रंथ 'शब्दागम'-' युक्त्यागम '-'परमागम'• छन्दशास्त्र'-' नाटक ' मादि विषयोपर भी थे । पूर्व-कवियोंमें विशेष उल्लेखनीय श्रीविजय, कविश्वर, पण्डन, चंद्र' लोकपाल आदि थे । ९ वीं और १० वीं शताब्दियों के मध्यवर्ती-कालमें गंगवाड़ी ही कनड़ी साहित्यकी लील भूमि होरहा था। उस समय किम्वोलल. कोप, पुलिगेरे और मोमकुण्ड भी कनड़ी साहित्यके केंद्र थे। नागवमें, पम्प, पोन्न, मसग, चाकुंडय. रन्न, प्रभृति महाकवि 'उभय-भाषा-कवि-चक्रवर्ती थे। अर्थात् उन्होंने संस्कृत, प्राकृत और कनड़ी दोनों प्रकारकी भाषाओं में श्रेष्ठ रचनायें रची थीं। इस कालके सर्व प्राचीन कवि 'हरिवंश" भादि ग्रन्थोंके रचयिता गुणवर्म थे, जो गंग राजा ऐरेयप (८८६-९१३ ई०) क समकालीन थे। पोन्न भौर केसिराजने असग कविका उल्लेख किया है; जो संभवतः विमानस्व मो-काव्य' के रचयिता थे। किंतु इस समयके कवि-समुदायमें सर्व प्रमुख कवि पम थे। जिन्हें 'कविता गुणार्णव'-'गुरुहम्प'- पूर्णकवि'-'सुजनोत्तम'-हंसराज' कहा गया है। महाकवि पम्पका जन्म सन् ९०२ में वेङ्गिके एक प्रसिद्ध ब्राह्मण वंशमें हुमा था। बेनि प्रदेशके महाकवि पम्प। विक्रमपुर नामक अग्रहारके निवासी मभिराम देवराय नामक महानुभाव उनके पिता थे। बन धमकी शिक्षासे प्रभावित होकर उन्होंने श्रावकके व्रत प्रण किये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। [१२५ थे। महाकवि पम्प इन्हींके पुत्र थे और वह जन्मसे ही एक श्रद्धालु जैनी थे। उनके संरक्षक भरिकेशरी नामक एक चालुक्य-नृप थे, जो जोल नामक प्रदेशपर शासन करते थे। कवि पम्प भरिकेशरीके राजदरबारमें न केवल राजकवि' ही थे, बल्कि मंत्री अथवा सेनापति भी थे। उनकी राजधानी पुलिगेरे (लक्ष्मेश्वर ) में रहकर उन्होंने ग्रन्थ रचना की थी। सो भी महाकविने साहित्यक रचनायें यशकी माकांक्षा अथवा किसी प्रकारके अन्य लोभसे प्रेरित होकर नहीं की थी। उन्होंने लोककल्याणकी भावनासे प्रेरित होकर ही भमूल्य ग्रंथ-रत्न सिजे थे। उनकी प्रतिभा अपूर्व थी। · आदि. पुराण' के समान महान् काव्यको उन्होंने तीन महीने जैसे मल्ल समयमें रच दिया था और 'विक्रमार्जुनविजय' अर्थात् 'पम्म भारत'को रचने में उन्हें केवल छै महीने ही लगे थे। इनके अतिरिक्त उन्होंने 'लघुपुराण'-'पार्श्वनाथपुगण' और 'परमार्ग' नामक ग्रंथोंकी भी रचना की थी। पूर्वोक्त दो ग्रंथों के रचनेसे ही उनका यश दिगन्तव्यापी हो गया था। मरिकेसरीने कविकी इन रचनाओंसे प्रसन्न होकर एक ग्राम भेंट किया था। इस समय अर्थात् दशवीं शताब्दिके जो तीन कवि कन्नड़ साहित्यके 'तीन-रत्न' कहे जाते हैं, उनमें महाकवि पोन्न। महाकवि पम्पके भतिरिक्त महाकवि पोन और रन (रत्न) की भी गणना है। कवि पोल महाकवि पम्पके समकालीन थे। पम्पके पिताकी तरह वह भी १-ग. पृ० २०० लि. पृ...। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६.] संक्षिप्त जैन इतिहास | वेजी देश ही निवासी थे । उपरांत जैन धर्म ग्रहण करने पर वह कर्णाटक देशमें आरहे ! उन्होंने संस्कृत और कनड़ी दोनों भाषाओं में साहित्य-रचना की थी । साहित्य में वह 'होन्न' - पोन्निग' - शांतिवर्म ' सवन आदि नामों से उल्लिखित हुए हैं। पोनकी उल्लेखनीय रचना 'शांतिपुराण' था, जिसे उन्होंने स्वयं 'पूर्ण-चूड़ामणि' न्थ कहकर पुकारा है । कन्नड़ और संस्कृत साहित्य एवं 'भक्करदराज्य' ( अक्षर राज्य) में पोन सर्वश्रेष्ठ कवि थे; इसीलिये राष्ट्रकूट राजा कृष्णसे उन्हें 'उभय - कवि - चक्रवर्ती' की उपाधि प्राप्त हुई थी । जिनाक्षरमाले ' नामक ग्रन्थ भी कवि पेनकी रचना है। उनकी अन्य रचनायें अनुपत्र हैं। ' महाकवि रत्न । तीन 'रत्नों' में अन्तिम महाकवि रत्न थे, जिन्हें 'कविरत्न ' 'अभिनवकवि चक्रवर्ती' इत्यादि उपनामोंसे ग्रंथोंमें स्मरण किया गया है। कन्नड़ कवियोंमें रत्न सर्वश्रेष्ठ कवि गिने जाते हैं । उन्होंने अपने जन्म से वैश्य जातिके वलेर कुलको समलंकृत किया था । उनके पितृगण चूड़ी बेचनेका रोजगार किया करते थे, पर बेचारोंकी आर्थिक स्थिति संतोषजनक नहीं थी । उनके पिताका नाम जिनवल्लम अथवा जनवल्लभेन्द्र था और उनकी माता अचलव्वे नामक थीं। सेठ जिनवल्लम जिससमय अपने निवास स्थान मुदबलल (मुछोक) में थे, जो बेलिगेरे ५०० प्रदेश के अन्तर्गत नम्भुखण्डी ७० प्रतिका एक ग्राम था, उससमय सन् ९४० ई० में कवि रन्नका 17 १-गंग पृ० २७८ व कटि० पृ० ३१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat - www.umaragyanbhandar.com Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। [१२७ जन्म हुआ था। जन्मसे ही वह देवी प्रतिमाको प्रकट करते थे। गंग-सेनापति च वुडगयका नाम सुनकर युवक रन उनकी शरणमें पहुंचे और उनके आश्रयमें रहकर वह संस्कृत-प्राकृत और कन्नड़ भाषाओं के प्रकाण्ड पण्डित होगये । संस्कृत के 'जैनेन्द्र' व्याकरण और कनड़ी 'शब्दानुशासन में वह निष्णात थे। साथ ही कनड़ी में कविता करनेकी देवी शक्तिका भी उनमें अद्भुत प्रदर्शन हुमा था। उन्होंने सबसे पहिले अपनी कवित्व शक्तिका चमत्कार जिनेन्द्र भगवानका चरित्र रचन्में प्रगट किया। उन्होंने सर्व प्रथम 'भजितपुराण' नामक ग्रंथ रचा। श्री अजितसेनाचार्य उनके गुरू थे । जैन सिद्धांतका मर्म कविने उनके निकटसे ही प्राप्त किया था। उपरांत उन्होंने अपना दूसरा प्रसिद्ध ग्रन्थ गदायुद्ध' नामक रचा, जिसमें उन्होंने भीमके पौरुषका वस्खान दुर्योधनसे जूझते हुए खूब ही किया। इस ग्रंथको उन्होंने अपने आश्रयदाता माहवमल्ल नामक राजाको वक्ष्यकरके लिखा है। सम्रट तैल द्वितीय एवं अन्य सामंत और मांडलिक राजाओंसे कवि रन्नने सम्मान प्राप्त किया था । तैलप उनकी रचनाओंसे प्रसन्न हुये थे और उन्होंने कविको 'कवि चक्रवर्ती' की उपाधिसे विभूषित करने के साथ ही एक गांव, एक हाथी, एक पालकी और चौरी आदि वस्तुयें भेंट की थीं। कवि पोनके आश्रयदाता कतिपय सेनापतिकी पुत्री अतिमवेके भाग्रहसे कवि रन्नने, मपना मजितपुराण' लिखा था और उसमें इस धर्मात्मा महिलाकी प्रशंसा लिखले हुवे उन्हें 'दानचिंतामणि' बताया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | उनके साथ इस ग्रन्थमें बुटुग, मारसिंह चन्त्रकेतन वंशके शंकरगंड आदि राजाओंका भी उल्लेख हुआ है । " महाकवि रन्नके आश्रयदाता गंग-सेनापति चावुंडराय भी स्वयं एक कवि थे. और उन्होंने 'चावुंडराय अन्य कविगण | पुराण' की रचना की थी, यह पहले लिखा जा चुका है। कवि रन्नके सहपाठी श्री नेमिचन्द्र कवि थे, जिन्होंने 'कविराज - कुंजर' और 'लीलावती' नामक ग्रंथ रचे थे । ' लीलावती' शृङ्गारसका एक सुन्दर काव्य है । यह I महानुभाव तैल- नृपके गुरु थे । सन् ९८४ के लगभग कवि नागवर्मने 'छन्दोम्बुधि' ग्रंथकी रचना की थी; जो बाज भी कन्नड छन्दशास्त्रपर एक प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है । कविने यह ग्रन्थ अपनी पत्नीको लक्ष्य करके लिखा है । इन्होंने संस्कृत भाषाके कवि बाण कृत कादम्बरी' का अनुवाद भी कनड़ी भाषामें किया था । नागवर्मके पूर्वज भी बेङ्गी देश के निवासी थे। किंतु स्वयं उनके विषय में कहा गया है कि वह सय्यदि नामक ग्राममें रहते थे, जो किसुकाडु नाडमें अवस्थित थे । उन्होंने स्वयं लिखा है कि वह नृप रक्कम गंगके आधीन साहित्यरचना करते थे । चावुंडरायने उनको भी आश्रय दिया था । अजितसेनाचार्य उनके गुरु थे । इस प्रकार इन श्रेष्ठ कवियों द्वारा तत्कालीन कन्नड़ साहित्य खूब समुझत मा था । 1 १-०, पृष्ठ २०८-२७९ व अनेकांत भाग १ पृ० ४४. २० पृ० ३३ व ग० पृ० २७९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग राजवंश। [१२९ गंगवाड़ीमें साधारण जनताका आचार-विचार और रहन सहन प्रशंसनीय था। 'कविराजमार्ग' नामक ग्रंथके जनताका आचार देखनेसे एवं महाकवि पम्पने जो यह लिखा विचार। है कि उनकी रचनाओं को सबही प्रकारके मनुष्य पढ़ा करते थे, यह स्पष्ट है कि गंग. वाड़ीके निवासी स्त्री-पुरुष विद्या और ज्ञान के प्रेमी एवं उनका भादर सत्कार करनेवाले थे। जैनाचार्यों ने उन्हें ठीक ही 'भव्य-जन' कहा है। वे वीर- रसपूर्ण काव्योंको कण्ठस्थ करते थे। कथाओं और पुगणोंसे लेकर सुंदर और शिक्षाप्रद अवतरणों का स्वास अवसरोंपर अभिनय किया करते थे। समय समयपर भाषण सुनते और विद्वानोंकी सत्संगतिसे काम उठाते थे । सांस्कृतिक ज्ञान उनका विशाल था । वह देशाटन भी खूब किया करते थे, जिसके कारण मानव जीवन सम्बन्धी उनका अनुभव खूब बड़ा-चढ़ा था । यद्यपि उनका गाई स्थिक जीवन समृद्धिशाली था; परन्तु फिर मी वे परिग्रहका परिमाण करके सीवा-सादा जीवन विताते थे। वे बड़े ही मिष्ट सम्माषी, सत्यानुय यी, संयमी, समुदार और प्रेम एवं लक्ष्मीके पुनारी थे। जैनधर्मकी महिंसामय शिक्षाका उनके हृदयोंपर विशेष प्रभाव पड़ा हुआ था, जिसके कारण पशुओंपर लोग दया करते थे। उन्हें देवताओं के नामपर यज्ञादिमें भी नहीं होमते थे। खान-पान और मौज-शौक के लिये पशुओं को किसी तरहका कष्ट नहीं दिया जाताथा। सबही लोग सादा-सात्विक निरामिष भोजन किया करते थे। कतिपय नीच जातियोंको छोड़कर शेष भोजनमें लड्डू, सीकरण, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] संक्षिप्त जैन इतिहास । होलिगे उण्डे इत्यादि मिठाइयोंका भी उल्लेख मिलता है । मद्यादि मादक वस्तुओंको वे छूते भी नहीं थे- केवल पान-सुपारी खानेका रिवाज था । धनीवर्ग इसप्रकारकी आनंदरे लियां और मनोविनोद किया करते थे कि जिसमें किसी प्रकारकी हिंसा न हो। आने वस्त्राभूषणोंमें भी वे लोग सादगीका ध्यान रखते थे। स्त्रियां लम्बी और बड़ी साडियां तथा रङ्ग-बिरंगी चोलियां पहना करती थीं। नृतकियां मवश्य पैजामा पहनतीं थीं, जिससे कि उन्हें नाचने में मुविधा रहती थी। सबही स्त्रियां प्रायः मणिमुक्ताजडित करधनी. हार, बालियां, गलेबन्द आदि माभूषण पहनतीं थीं। वे शरीरपर जाफरानका लेप भी सुगंधिके लिये करती थीं। शिके बालोंमें वे फूलोंकी माका और गुलदस्ते भी लगाती थीं।' जैनधर्मकी शिक्षाका बाहुल्य जनतामें शील और विनय गुणों को बढ़ाने में कार्यकारी ही हुआ था । यही कारण महिलायें। है कि गणवाड़ीकी तत्कालीन स्त्रियां भादर्श रमणियां थीं। उनमें शिक्षाका काफी प्रचार था। वे गणित, व्याकरण, छंदशास्त्र और ललित कलाओंको सीखती थीं। शिलालेखोंसे प्रगट है कि राजकुमारियां परम विदुषी और कविननोंकी माश्रयदात्री हुमा करती थीं । उनमें संगीत, नृत्य और वादिनलाओं का प्रचार प्रचुर मात्रामे था। वे भालेख्य और चित्र. कलाओं में भी निपुण हुमा करती थीं । निस्सन्देह राजकुमारियों के किये इन कलाओंमें दक्ष होना मावश्यक समझा जाता था। नृत्य. १-गंग० पृ. २८.-२९०। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश । [१३१ कलाके साथ संगीत और वादित्रकलाओंका सीखना आवश्यकीय था। उस समय 'समुद्रघोष', 'कटु-मुख वादित्र', 'तंत्रि', 'ताल', 'नकार', 'बिजे', 'झांझ', 'तुर्य', 'वीणा', आदि कई प्रकारके वादित्रका प्रचलन था। नृत्यकला भी 'भारती', 'सात्वकि', कैसिके', 'भरमटे' मादि कई प्रकारकी प्रचलित थी। उच्च घरोंकी स्त्रियां प्रायः इन ललित कलाओंमें निष्णात थी। उनमें उच्च कोटिका सांस्कृतिक सौन्दर्य विद्यमान था। जैनधर्मने उनके हृदयकी देवी कोमलता और उदारताको पूर्ण विकसित कर दिया था। वे खुन ही दान-पुण्य भी किया करती थीं और धर्म कार्यों में भाग लेती थीं। राज्यकी बोरसे विदुषी-महिलाओंका सम्मान — विभूतिट्ट' प्रदान करके किया जाता था । अपनी धार्मिकतासे प्रभावित होकर बहुतसी स्त्रियां गृह त्यागकर भात्मकल्याणके पथर मारूढ़ होकर स्वपर कल्याणकी होती थीं। समाजमें उनका विशेष सम्मान था । सल्लेखना व्रत धारण करनेवाली भनेक विदुषी महिलामों का उल्लेख श्रवणबेलगोलके शिलालेखोंमें हुआ है।' उस समय गणवाड़ीके भव्यजनोंका सामाजिक व्यवहार यद्यपि अधिकांश रूपमें विवेकको लिये हुये था; सामाजिक व्यवहार । परन्तु फिर भी परम्परागत रूढ़ियों के मोहसे वे सर्वथा मुक्त नहीं थे। उनमें बहु विवाह करनेकी पुरातन प्रथा प्रचलित थी-पुरुष चाहता था उतने विवाह कर लेता था। इसपर भी विवाह एक धार्मिक क्रिया समझी जाती १- ०, २८८-२९० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] संक्षिप्त जैन इतिहास । SINHATRA......AMAN......AISANKAN....NNNNNN NNN थी। धर्मविवाह के अतिरिक्त स्वयम्बर रीतिसे भी विवाह होते थे। चन्द्रलेखाने स्वयंवरमें ही विक्रमदेवको वरा था और पुन्नाट राजकुमारीने स्वयम्वर समाके मध्य ही भविनीतके गलेमें वरमाला डाली थी। उस समय लोगोंमें उदारताके भाव जागृत होगये थे-साम्प्रदायिक संकीर्णता नष्ट होगई थी। विदेशी और मूक भील आदि जातियों के लोग भी शुद्ध करके आर्य संघमें सम्मिलित कर लिये गये थे । जैनाचार्योंने भार, कुरुम्ब मादि दक्षिणके असभ्य मूल अधिवासियोंको जैनधर्ममें दीक्षित किया था। इन नवदीक्षितोंको उनकी भाजीविकाके अनुसार ही समाजमें स्थान मिला था। कुरुम्बजन शासनाधिकारी हुये थे। इसलिये वे क्षत्रियवर्णमें परिणीत किये गये थे। साथ ही अनेक नये मतोंका जन्म तथा उत्तर और दक्षिणका सम्बन्ध घनिष्ट बनाने का उद्योग नूतन समाज और जातियोंको जन्म देने में एक कारण था। फिर भी इनमें परस्सर विवाह सम्बन्ध होते थे। यहां तक कि वैदिक धर्मानुयायी ब्रह्मणों के साथ भी कभी कभी जैनियों के विवाह सम्बन्ध होते थे। विवाह संस्कारमें अनेक रीतियां वरती जाती थीं; परन्तु दुरहा दुलहनका हाथ मिका देना मुख्य था। पुरोहित दूल्हाके हाथ में दुलहनका हाथ थमा कर उनपर कलश-धारा छोड़ता था। इसीसमय दुधहन सात पग चलती थी और पुरोहित शास्त्रों का पाठ करता था। · इतना होनपर विवाह विच्छेद रूपमें सम्पन्न हुमा समझा जाता था। दम्पतिको इस समय उनके रिश्तेदार तरह-तरहकी वस्तुयें और धन भेंट करते थे। और खुब ही गाना-बनाना होता था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ___www.umaragyanbhandar.com Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश | [ ११३ ब्राह्मणोंको दान-दक्षिणा दीजाती और साधर्मियों व अन्य प्रियज नोको भोजन कराया जाता था । यह सब कुछ चार दिन तक होता रहता था। चौथे दिन नवदम्पतिको वस्त्राभूषण से सुसज्जित करके हाथीपर बैठाकर नगर के बीच धूमधाम से घुमाया जाता था । इस अवसरपर रोशनी भी की जाती थी । किन्तु उससमय बहुविवाह प्रथा के साथ ही बाल्यविवाह और अनिवार्य वैधव्य सदृश कुप्रथायें भी प्रचलित थीं; जिनके कारण उस समयकी स्त्रियों के जीवन आजकलकी महिलाओंके समान ही कष्टसाध्य होरहे थे । किंतु फिर भी उस समयका गाईस्थिक जीवन सुखमय था । विधवायें अपने जीवनको स्वपर - कल्याणक मार्गमें उत्सर्ग कर देती थीं । महान् भाचार्यों और साध्वियोंकी सत्संगतिमें उनके जीवन सफल हो जाते थे । सारांशतः गङ्गवाड़ीका सामाजिक जीवन उदार और समृद्धिशाली था । उस समय गङ्गवाड़ीमें शिल्प और स्थापत्य कलाकी भी विशेष उन्नति हुई थी। समूचे देश में दर्शनीय भव्य मंदिर, दिव्य मूर्तियां, सुंदर स्तम्भ शिल्पकला । आदि मूल्यमई विशाल कीर्तियां स्थापित की गई थीं । ब्राह्मण, जैन और बौद्ध तीनोंने ही द्राविड़, चौलुक्य, अथवा होयसळ रीतिके मंदिरादि निर्माण कराये थे । परन्तु गङ्गबाढ़ीमें जैनोंका अपना निराला ही आकार-प्रकार ( style ) मंदिरादि निर्माणका रहा था । उसका सादृश्य बौद्ध - शिल्पसे किञ्चित् अवश्य था । खासकर कतिपय जैन मूर्तियां ठीक वैसे ही १ नाम ० १० २९४-२९५. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] संक्षिप्त जैन इतिहास । भर्द्ध-पद्मासन मुद्रामें मिलती थीं, जैसे कि बौद्ध मूर्तियां होती थीं। किन्तु पद्मासन और कायोत्सर्ग मुद्राकी जैन मूर्तियां बिल्कुल निराली थीं और उनका नमरूप अपना अनूठापन रखता जैनियोंके अपने स्तुर मौर्यसम्राट अशोक एवं उससे भी पहलेसे थे। उनके निकट स्तूप धार्मिक चिन्ह मात्र नहीं थे, बल्कि वह सिद्धपरमेष्ठी भगवान के प्रतीक रूप पूज्य वस्तु थे। तीर्थङ्करकी समवशरण रचनामें उनका खास स्थान था और उनपर सिद्धभगवानकी प्रतिमायें बनी होती थीं। इसीलिये स्तुर जैनियोंकी पूजाकी वस्तु रहे हैं । स्तूपोंके अतिरिक्त जैनियोके अपने मंदिर भी थे। यह मंदिर पहले पहले मैसूर में 'नगर' अथवा 'मार्ति ' प्रणालीके बनाये गये थे । इनका भाकार चौकोन होता था और ऊार शिखिर बनी होती थी। ६ठी-७वीं शताब्दियों में इसी ढङ्गके मंदिर बनाये गये थे। उपरांत 'बेसर' प्रणालीके मंदिर बनाये गये थे। यह मंदिर समकोण भायताकार (rectangular) होते थे और इनकी शिखिर सीड़ी दरसीड़ी कम होती जाती थी, जिसके अंतमें एक भर्द्धगोलाकार गुम्बज बना होता था। सातवीं शताब्दिके प्रारम्भमें ऐसे ढंगके मंदिर बादामी, ऐहोले, मामल्लपुरम्, कांची मादि स्थानों पर बनाये गये थे। कहा जाता है कि जैनियोंकी 'समवशरण' रचना प्रणाली ही 'बेसर' प्रणालीका मूलाधार है । ' समवशरण ' गोल बनाया जाता था, जिसमें तीन रंगभूमियां (Battlements) होती थीं, जिनमें द्वारपालों, बारह समाओंके अतिरिक्त बीचमें धर्मचक्र, भशोकवृक्ष मौर जिनेन्द्र मूर्तियों सहित सिंहासन होता था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग- राजवंश । [ १२५ I इसके अतिरिक्त जैनियोंने 'चतुर्मुख' अथवा 'चौमुखा ' मंदिर भी बनाये थे, जो एक तरह के मण्डप जैसे ही थे । उनमें बीच में एक बड़ा कमरा (Hall) होता था जिसमें चारों ओर बड़ेर दरवाजे व बाहर बरांड। तथा उसारा (Portico) होते थे । छत सराट पाषाणसे पाट दी जाती थी, और वह बड़े२ स्तंभों पर टिकी रहती थी । यह स्तम्भ तक्षण कला के अदभुत नमूने होते थे जैनियों के कुछ मंदिर तीन कोठरियों (Threecelled temples) वाले भी थे । जिनमें तीर्थंकर की मूर्तियां यक्ष, यक्षिणी सहित बिराजमान होत थीं । चौलुक्य, कादम्ब और होयसल राजाओंने इस ही तरह के मंदिर बनाये थे क्योंकि आखिर वह जेनी ही थे । बर्जेस और फर्गुसन सा०का कहना है कि ७वीं वीं शताब्दियों में दक्षिण भारतमें जो स्थापत्यकलाका जैन आकार प्रकार प्रचलित था, वह उत्तर में इको तक पहुंचा था और साथमें द्राविड़ - चिन्हों को भी लेगया था । शिलालेखों से यह भी पता चलता है कि गंगवाड़ी और बनवासीमें एक समय लकड़ी के बने हुए जिनालय और चैत्यालय प्रचलित थे। ग्ङ्ग-वंशके J जैन मंदिर संस्थापक माधवने मंडलि नामक पर्वतपर एक जिनालय लकड़ीका बनवाया था। जिसकी रक्षा उनके उत्तराधिकारियोंने विशेष रूपमें की थी । अविनीत और दुर्विनीतकी प्रशंसा शिलालेखों में की गई है कि वे जिनालयों और चैत्यालयों के संरक्षक थे | मारसिंह के सेनापति श्री विजयने गङ्ग राजधानी मन्नेमें १- गंग० पृ० २२२-२२६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६] संक्षिप्त जैन इतिहास । KAMAN A NEEKSNRAININ ................... .........................." एक विशाल और भव्य जिनालय निर्मापित कराया था । श्रीपुरुषने गुडलरमें श्री कंदच्छी द्वारा निर्मापित जिनालयको दान दिया था। इन जिनालयोंकी अपनी विशेषतायें इस प्रकार थीं। इनके गर्भगृहमें प्रकाश बीच के बड़े कमरों में से माता था। तीर्थङ्कगेकी प्रतिमायें प्रायः सदा ही चौकोन कोठरियोंमें विगजमान की जाती थीं । वेदिकाके द्वार पर भी जिनमूर्ति होती थी; परन्तु जिनालयके बाहरी द्वर ( Outer door ) पर गजलक्ष्मीकी ही मूर्ति होती थी। मंदिरकी दीवालों और छतोर सुन्दर तक्षण ( नकाशी) का काम खुदा होता था। उनमें मुख्यतः जिनेन्द्रकी जीवन घटनायें उत्कीर्ण की जाती थीं। बड़े मंदिरोंका बाहरी परकोटा भी होता था, जिसमें छोटी- छोटी कोठरियां जिनमूर्तियां विराजमान करनेके लिए बनी होती थीं। कोई कोई मंदिर दोमंजिल भी होते थे। वरंडा ( Verandah) जैन मंदिरोंकी अपनी खास चीज थी। जैन मंदिरोंके द्वार चारों दिशाओंको मुख किये हुये बनाये जाते थे । हिन्दुओं के समान जैनी दक्षिणकी ओर मंदिरका द्वार रखना बुरा नहीं मानते थे । पल्लवोंके प्राधान्यकाल में जैनोंके लकड़ी के बने हुये मंदिर पाषाणके बना दिये गये थे ।' किन्तु गंग राजाओंने उपरांत जो मंदिर बनवाये वह द्राविड़ प्रणालीके आधारसे बनयाये । इनमें भी जैन उपरांत बने हुए मन्दिरोंके प्रमावका प्राबल्य था; क्योंकि मन्दिर। गङ्ग राजाओंका राजधर्म जैनमत था। विद्वा. नोका कहना है कि जैनमन्दिर सौन्दर्यके १-गंग०, पृ. २२७-२३४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रवणबेलगोला-स्थित-श्री चंद्रगिरि पर्वत । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STA G0000000 New श्री श्रवणबेलगोला - स्थित - श्री इन्द्रगिरिपर्वत । 100011 938 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। C साथ २ उपासना-तत्वके प्रतिमूर्ति होते थे-मावुकहृदय जैनी अपनी प्रार्थनाको उस पाषाणमें मूर्तिमान बना देते थे। सातवीं से दशवी शताब्दियोंके मध्यवर्ती कार में जैनाचार्योने अपने धर्मका प्रशंसनीय प्रचार किया था और उससमय प्राय: सब ही प्रमुख जैन स्थानों जैसेजवगल, कुत्तूर, मल्गोदु. ङ्कनाथपुर, चिक्कानसोगे, हेगडदेवनकोटे वित्ता, हुम्च, और श्रवणबेलगोलमें स्थापत्यकलाके शादर्श नमूने जैनियोंने बनवाये थे। हनगलकी 'चन्द्रनाथवस्ती' कुत्ताकी 'शांतिनाथवस्ती'; हनसोगेकी 'मादिनायबस्ती'; कित्ताकी पार्श्वनाथ वस्ती'; विक्रमादित्य सांतार द्वारा सन् ८९.८ में निर्मित बाहुबलिकी 'गुद्ददवस्ती'; iक्कसगङ्गकी धर्मपुत्री पल्लवरानी चत्तलदेवी द्वारा निर्मापित ६ञ्चलबस्ती' और भङ्गाडिका 'मकर मिनालय' सब ही इस बात के प्रमाण हैं कि वे द्राविड़ प्रणालीके माघारपर बनाये गये थे। मंदिरोंके अतिरिक्त गंग राजाओंने मण्डप, स्तंभ, विशालकाय मूर्तियां मादि निर्मापित कराकर अपने समय के जैन-स्तम्भ। शिल्लको मूल्यमई बनाया था। हिंदुओंके मण्डपमें चार स्तम्भ हुआ करते थे. परन्तु गंगोंके बनवाये हुये जैन मण्डपोमें पांच स्तम्भ होते थे। चारों कोनों पर एक एक स्तम्भ होने के अतिरिक्त मण्डपके बीचमें भी जैनियोंने एक स्तम्भ रक्खा था और इस बीचवा ले स्तम्मकी यह विशेषता थी कि वह ऊपर छतमें इस होशियारीसे पच्ची किया जाता था कि उसकी तलीसे एक रूमाल भारपार निकल सकता था। फर्ग्युसन १-पूर्व पृ. २३५-२३६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] संक्षिप्त जैन इतिहास । मा० ने इन स्तंभोंकी खूब प्रशंसा लिखी है। इन मण्डाके स्तंभोंके अतिरिक्त मला भी स्तंभ बनाये गये थे। वह स्तंभ दो प्रकारके थे (१) मानस्तंभ, (२) ब्रह्मदेवस्तम्भ । मानस्तंभोंमें कार चोटी पर एक छोटीसी वेदिका होती थी जिसमें चतुमुखी जिन प्रतिमा बिराजमान रहती थी। ऐसा एक स्तंभ पार्श्वनाथवस्ती' के सन्मुख श्रवणबेलगोलमें है। ब्रह्मदेव स्तम्भों में चोटी पर ब्रह्मकी मूर्ति स्थापित होती थी। जसे कि गंग राजा मारसिंहके सम्मानमें सन् ९७४ ई०का बना हुमा 'कुगे ब्रह्मदेव स्तंभ' है । और सन् ९८३ ई० में चामुण्डराय द्वारा निर्मापित 'त्यागदब्रह्मदेव स्तम' है । यह स्तम्भ एक समूचे पाषाणका बना हुआ है। और इसके नीचले भागमें नकाशीका मनोहर काम होरहा है । इसीपर एक ओर चामुण्डराय और उनके गुरु श्री नेमिचंद्राचार्यकी मूर्तियां अंकित हैं। जो बेल इसपर उकेरी हुई है उसका सादृश्य अशोके प्रयागवाले स्तंभ पर अंकित बेलसे है।' गङ्ग-शिल्पकी एक अनूठी वस्तु उनके बनवाये हुये 'वीरकल' थे। यह शिलापट अत्यन्त चातुर्यसे वीरोंकी वीरकल। स्मृतिमें अंकित किये जाते थे। इनपर बहुधा संग्रामके दृश्य उमेरे हुये होते थे मौर लेख में किसी वीरके शौर्य का बखान होता था। क्याथनहल्लि और तयलरके वीरकलोंगर बड़े २ दातोंवाले सुंदर हाथी अङ्कित हैं, जिनके गलोंमें माकायें झुलती हुई दर्शाई हैं । अतुकुरमें सम्राट १-गंग०, पृष्ठ २३७-२३९ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग राजवंश। [१३९ बेट। बुटुगके समयका एक वीरकल मिला है, जिसमें समाके आखेटका दृश्य मङ्कित है । इसमें शिकारी कुत्ते और जंगली सूभरकी लड़ाईका दृश्य बिल्कुल प्राकृतिक और सजीव है। देदृहुंडीके पापाणपर अंकित नीतिमार्गके समाधिमरणका दृश्य भी भावुकता और सनीवताका नमूना है । बेगू के वीरकल में दो वीरों के संग्रामका चित्रण खुब ही हुआ है । इन वीरकलोंसे उस समयके योद्धाओंके अस्त्र-वस्त्र और युद्ध संचालन क्रियाका भी पता चलता है।' वीरकलों के साथ गङ्गोंने छोटी-छोटी पहाड़ियोंकी शकल में 'बेट्ट' नामक इमारतें बनाई थीं। यह 'बेट्ट' खुले हुये सहन होते थे, जिनके चारों ओर पर. कोटा होता था और मध्यमें श्री गोम्मटस्वा. मीकी विशालकाय मूर्ति होती थी। जैन कलाकारों के लिये निस्सन्देह गोम्मटस्वामीकी मूर्ति भाकर्षणकी एक वस्तु रही है। 'बेट्ट' के परकोटेमें प्रायः छोटी-छोटी कोठरियां बनीं होती थीं, जिनमें तीर्थकर भगवानकी प्रतिमाएं विराजमान की जाती थीं। इन 'बेट्टों' के मध्य में विराजित गोम्मट मूर्तियां भी गङ्ग शिल्पकी मद्वितीय वस्तु हैं । श्रवणबेलगोलके विंध्यगिरि श्री गोम्मट-मूर्ति। पर्वतपर वीरमार्तण्ड चावंडगयने सन् ९८३ ई०के लगभग एक अखण्ड पाषाणकी विशा. लकाय मूर्ति निर्माण कराई थी। यह मूर्ति संसारकी द्भुत मा. र्यजनक वस्तुओंमेंसे एक है और देश-विदेशके अनेकानेक यात्री १-पूर्व०, २३९-२४१ ।२- ० पृ. २४१ व २४२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KARN.N E ......... ......" ANAN......... .......... ........ १४.] संक्षिप्त जैन इतिहास । इसके दर्शन करनके लिये प्रतिवर्ष श्रवणबेलगोल पहुंचते हैं। यह नम, उत्तरमुख, खङ्गासन मूर्ति मपनी दिव्यतासे वहां के समस्त भूभागको भलंकृत और पवित्र करती है-कोसों दूरसे उसकी छवि मन मोहती है । निस्सन्देह वह शिलाकी एक अनुपम कृति है । उसके सिरके बाल धुंधराले, कान बड़े और लम्बे, वक्षस्थल चौड़ा, विशाल बाहु नीचेको लटकते हुए और कटि किंचित् क्षीण है। मुखपर अपूर्व कांति और अगाध शांति है । घुटनोंसे कुछ ऊपरता बमीठे दिखाये गये हैं, जिनसे सर्प निकल रहे हैं। दोनों पैरों और बाहुओंसे माधवीकता लिएट रही है, तिसपर भी मुखार अटल ध्यानमुद्रा विराजमान है। मूर्ति क्या है मानो तपस्याका अवतार ही है। दृश्य बड़ा ही भव्य और प्रभावोत्पादक है । सिंहासन एक प्रफुल्ल हमलके आकारका बनाया गया है । इस कमलपर बायें चरणके नीचे तीन फुट चार इंचका माप खुदा हुआ है। कहा जाता है कि इसको मठारहसे गुणित करने पर मूर्तिकी ऊंचाई निकलती है। जो हो, पर मूर्तिकारने किसी प्रकारके मापके लिये ही इसे खोदा होगा। निःसंदेह मूर्तिकारने अपने इस भपूर्व प्रयास में अनुपम सफलता प्राप्त की है। एशिया खण्ड ही नहीं समस्त भूतलका विचरण कर भाइये, गोमटेश्वरकी तुलना करनेवाली मूर्ति आपको क्वचित् ही दृष्टिगोचर होगी। बड़े बड़े पश्चिमीय विद्वानोंके मस्तिष्क इस मूर्तिकी कारीगरीपर चक्कर खागये हैं । इतने मारी और प्रवल पाषाण पर सिद्धहस्त कारीगरने जिस कौशलसे अपनी छैनी चलाई है उससे भारतके मूर्तिकारोंका मस्तक सदैव गर्वसे चा उठा रहेगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग-राजवंश। [१४१ ___ यह संभव नहीं जान पड़ता कि ६७ फीट की मूर्ति खोद निकालनेके योग्य पाषाण कहीं भन्यत्रसे लाकर उस ऊंची पहाड़ीपर प्रतिष्ठित किया जासका होगा । इससे यही ठीक अनुमान होता है कि उसी स्थानपर किसी प्रकृति प्रदत्त स्तंभाकार चट्टानको काटकर इस मूर्ति का आविष्कार किया गया है । कमसे कम एक हजार वर्षसे यह प्रतिमा सूर्य, मेघ, वायु मादि प्रकृतिदेवीकी अमोघ शक्तियोंसे बातें कर रही है, पर अबतक उसमें किसी प्रकारकी थोड़ी भी क्षति नहीं हुई ! मानो मूर्तिकारने उसे माज ही उद्घाटित की हो । इस मूर्तिकी दोनों बाजुओपर यक्ष और यक्षिणीकी मूर्तियां हैं, जिनके एक हाथमें चौरी और दूसरेमें कोई फल है । मूर्तिके बायीं ओर एक गोक पाषाणका पात्र है, जिसका नाम ' ललित सरोवर' खुदा हुआ है । मूर्तिक अभिषेकका जल इसी में एकत्र होता है। इस पाषाण पात्रके भर जानेपर अभिषेकका जल एक प्रणाली द्वारा मूर्तिके सम्मुख एक कुएंमें पहुंच जाता है और वहांसे वह मंदिरकी सम्हदके बाहर एक कन्दरामें पहुंचा दिया जाता है। इस कन्दराका नाम ' गुल्लकायज्जि वागिलु' है। मूर्तिक सम्मुखका मण्डप नव सुन्दर स्खचित छतोंसे सना हुमा है। माठ छतोंपर भष्ट दिक्पालोंकी मूर्तियां हैं और बीचकी नवमी छतर गोम्मटेशके अभिषेकके लिये हाथमें कलश लिये हुये इन्द्रकी मूर्ति है। ये छत बड़ी कारीगरीके बने हुए हैं । मध्यकी छतपर खुदे हुए शिलालेख (नं. ३५१) से अनुमान होता है कि यह मंडप बलदेव मंत्रीने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ____www.umaragyanbhandar.com Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास।। १२ वीं शताब्दिके प्रारम्भमें किसी समय निर्माण कराया था। शिलालेख नं० ११५ (२६७) से विदित होता है कि सेनापति भातमय्य ने इस मण्डपका कठघरा (हप्पलिगे) निर्माण कराया था। शिलालेख नं० ७८ ( १८२ ) में कथन है कि नयकीर्ति सिद्धांत चक्रवर्तीके शिष्य बसविसेट्टिने कठघरेकी दीवाल और चौवीस तीर्थकरोंकी प्रतिमायें निर्माण कराई थीं और उसके पुत्रोंने उन प्रतिमाओके सम्मुख जालीदार खिडकियां बनवाई। शिलालेख नं. १०३ (२२८) से ज्ञात होता है कि चंगान-नरेश महादेवके प्रधान सचिव केशवनाथके पुत्र चन्न बोम्मरस और नंजरायपट्टनके श्रावकोंने गोमटेश्वर मण्डपके ऊपरके खण्ड (बल्लिाड़) का जीर्णोद्धार कराया। 'कुछ वर्षों के अंतरसे गोमटेश्वरकी इस विशालकाय मूर्तिका मस्तकाभिषेक होता है, जो बड़ी धूमधाम, मस्तकाभिषेक। बहुत क्रियाकाण्ड और भारी द्रव्य-व्ययके साथ मनाया जाता है । इसे महाभिषेक कहते हैं । इस मस्तकाभिषेकका सबसे प्राचीन उल्लेख शक संवत् १३२० के लेख नं० १०५ ( २५४ ) में पाया जाता है। इस लेखमें कथन है कि पण्डितार्यने सात वार गोमटेश्वरका मस्तकाभिषेक कराया था। पंचवाण कविने सन् १६१२ ई० में शांतवर्णि द्वारा कराये हुए मस्तकाभिषेकका उल्लेख किया है, व मनन्त कविने सन् १६७७ में मैसूर नरेश चिकदेवराज मोडेयरके मंत्री विशा १-जेशिसं०, भूमिका पृष्ठ १५-२० व ३५-३६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गङ्ग राजवंश। [१४३ लक्ष पण्डित द्वारा कराये हुए और शांतराज पण्डितने सन १८२५ के लगभग मैसुर नरेश कृष्णराज ओडेयर तृतीय द्वारा कराये हुए मस्तकाभिषेकका उल्लेख किया है। शिलालेख नं० ९८ (२२३) में सन् १८२७ में होने वाले मस्तकाभिषेक का उल्लेख है । सन् १९०९ में भी मस्तकाभिषेक हुभा था' । अभीतक सबसे अन्तिम अभिषेक मार्च सन् १९२५ में हुमा था। इस अभिषेक के उपांन इस दिव्य मूर्तिके विषय में हाल हीमें माशङ्काका अवसर उपस्थित हुभा है। कहा जाता है कि मूर्तिपर कुछ चिट्टे पड़ गये हैं। उन चिट्टोको मिटाने और मूर्तिकी रक्षा करने के लिये मैसूर-सरकार और दक्षिण भारतके जैनी सचेष्ट हैं। इसी सिलसिलेमें (सन् १९१० जनवरी फरवरी में ) मस्तकाभिषेक करने का निश्चित होचुका है और इस महोत्सव के अवसर पर मूर्तिरक्षाका प्रबन्ध होगा! इसप्रकार गङ्ग राज्यकालमें शिल्प और कलाकी भी विशेष उन्नति हुई थी। इस सा.के मतानुसार वह पराकाष्ठाको प्राप्त हुई थी। (Sculpture and carving in stone attained to an elaboration perfectly marvellous). Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] संक्षिप्त जैन इतिहास । तत्कालीन छोटे राजवंश। १. नोलम्ब-राजवंश। नोलम्ब राजवंशके राजा अपनेको पक्कनवंशसे सम्बन्धित प्रगट करते थे। उनका राज्य नोलम्बबाड़ी बत्तीस सहस्र नामक प्रान्त पर था, जो वर्तमान चित्तकदुर्ग जिलासे कुछ अधिक था। भाजकल मैसूर में जो नोणव' नामक किसान लोग मिलते हैं वे प्राचीन नोलम्बबाड़ी प्रजाकी सन्तान हैं। 'हेमावती-स्तंभ- लेख 'से प्रगट हैं नोलम्ब राजा ईश्वरवंशी थे। उनके मूल पुरुष त्रिनयन नामक राजपुत्र थे; जिनसे वे भाना सम्बन्ध काञ्चीके राजा पल्लव द्वारा स्थापित करते थे। पहले नोलम्ब राजा मङ्गल नामके थे जो नोलम्बाधिराज कहलाते थे। उनकी प्रशंसा कर्णाट-वासियोंने की थी। मङ्गलके पुत्र सिंहपोत थे, जिनके चारुपोन्ना नामक पुत्र हये। इनके पुत्र पोललचोर नोलम्ब नामक थे । महेन्द्र पोलक का पुत्र हुमा, जिनका पुत्र नन्निग अथवा अय्यप देव था। अय्यपदेवके दो पुत्र हुये, जिनके नाम क्रमशः (१) मण्णिग अथवा बीर नोलम्ब और (२) दिलीप अथवा इरिव नोलम्ब थे। इन्होंने समयानुसार नोलम्बबाड़ीपर राज्य किया था। सिंहपोतके विषयमें कहा जाता है कि वह गङ्गवंशी गाना शिव. मार सैगोहकी छत्रछाया में शासन करते थे। सिंहपोत। जब शिक्मारका भाई दुग्गमार उनसे विमुख होकर स्वाधीन होनेके लिये प्रयत्न कर रहा था, तब उन्होंने दुग्गमारको परास्त करनेके लिये नोलम्बान सिंहपोतको भेजा था। वह उसमें सफल हुये थे, यह लिखा जाचुका है। होकर स्वाधान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ____www.umaragyanbhandar.com Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन छोटे राजवंश । [ १४५ उपरांत जिस समय राष्ट्रकूट राजाओंने गंगराजा शिवमारको अपना बन्दी बना लिया था और गंगवाड़ी पोक चोर उनके अधिकार में पहुंच गई थी तो उससमय र ठौर राजाने सिंदपोतक पुत्र चारुपोन्नेर और उनक पौत्र पोलल चोरको नोलम्ब लिगे सहस्र एवं अन्य प्रांतोंपर शासन करनेका अवसर दिया था । किन्तु जब गंग राजा फिर स्वाधीन होगये और राजमल्ल सत्य वाक्य प्रथम शासनाधिकारी हुये, तो उन्होंने नालम्ब राजाओंसे मित्रता करली - सिंहपोत की पौत्री, पल्लवधि गजकी पुत्री और नोलम्ब घिराजकी लघु मगनीके साथ उन्होंने अपना विवाह किया तथा अग्नी पुत्री जायव्वे नोलम्बा घिसन पोळल. चोरको व्याह दी । एक शिलालेखसे प्रगट है कि पोलल चोर गंग राजा नीतिमार्गके आधीन 'गंग छै सहस्र' नामक प्रान्त पर शासन करने थे । 5 पालल चोरकी रानी गंग राजकुमारी जायव्वेकी कोख मे उनके उत्तराधिकारी महेन्द्र मथवा वीर महेन्द्रका महेन्द्र जन्म हुआ था । महेन्द्र भी 'गंग छे महत्र ' प्रांतपर गंग राजाओं आन शामनाधि I कारी थे । किन्तु सन् ८७८ के लगभग वह स्वतंत्र होगये थे और उन्होंने गंग राजाओंसे मोरचा लिया था। गंग युवराज बुटुगके. पुत्र एरेय हाथसे इस वीरकी जीवनलीला समाप्त हुई थी । महेन्द्रकी गनी दीवंबिके एक कदम्ब राजकुमारी थी, और इनके पुत्र अध्मप थे । १० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | ............ 1 शिलालेखोंसे स्पष्ट है कि भय्यप एक शक्तिशाली शासक थे । वह स्वतंत्र रूप में नोलम्बवाड़ी बत्तीस सहस्रपर शासन करते थे । उनका पुत्र भण्णय्य उनके साथ प्रांतीय शासक रूपमें राज्य करता था । अय्यपनन्निग, नन्निग श्रय, नोलिपय्य और नोलम्बाधिराज नामों से प्रख्यात था । उसके पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र अणिग अथवा वीर नोलम्ब राजा हुआ था, जो अध्णय्य और अंङ्कय्य नाम से भी परिचित था । गंग राजाओंसे इसे युद्ध करना पड़ा था, जिसमें गंग राजा पृथिवीपति द्वितीयके पुत्र अनि वीरगतिको प्राप्त हुये थे । आखिर अणिगको राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीयने सन् ९४० ई० में परास्त किया था । अय्यप दिलीप | । उपरांत मणिगका उत्तराधिकारी उसका छोटा भाई दिलीप हुआ, जो नोलपय्य नामसे भी प्रख्यात् था। दिलीपने वैदुम्ब और महाबली राजाओंको अपने आधीन कर लिया था । इससे उसके शौर्य और विक्रमका पता चलता है । इनके पश्चात् इरिव नोलम्बके पुत्र नभि नोलम्ब राजा हुये; परन्तु वह अधिक समयतक राज्य नहीं कर सके, क्योंकि गङ्ग वंशके राजा मारसिंहने नोलम्बोपर आक्रमण करके उन्हें नष्ट कर दिया था। तीन नोलम्ब राजकुमार अपने प्राण लेकर अन्यत्र जा छिपे थे । उन्हीं की संतान से उपरांतकालमे नोलम्ब वंशका पता इतिहास में चलता है ।' १- मैकु०, १४ ५४-५८. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्कालीन छोटे राजवंश | २. सांतार - राजवंश | इस राजवंश के मूल संस्थापक जिनदत्तराय नामक महानुभाव थे, जो एक समय जिनदत्तराय । उत्तर - मथुरा के उम्रवंशी राजा थे। जिनदत्तरायके पिता सहकार नामक राजपुरुष थे । सहकारने एक किरात कन्यासे विवाह किया और उसके किगत पुत्रको राज्याधिकार दिलानेके लिये वह जिनदत्तरायके प्राणों का ग्राहक होगया । जिनदत्तगय इस संकट के अवसरपर अपने प्राण लेकर भागा | साथमें उनकी माता भी होली, जिन्होंने शासनदेवी पद्मावती की मूर्ति भी लेली । वे माता-पुत्र भागते हुये दक्षिण भारतके होम्बुच नामक स्थानपर पहुंचे। वहांपर उन्होंने एक सुंदर मंदिर बनवाकर उसमें पद्मावतीदेवीकी प्रतिमा बिराजमान की । पद्मावतीदेवीके अनुग्रह से जिनदत्तरायको सोना बनानेकी विद्या सिद्ध हुई। उन्होंने बहुतसा सोना बनाया। अब उन्होंने आसपास के सरदारोंको अपने वश कर लिया । सांतक - प्रदेशको जीतने के कारण उनका राजवंश " सांतार " कहलाया । पहले यह राजा चांत " कहलाते थे । जिनदत्तरायमे पोम्बुर्च (होम्बुच ) में अपनी राजधानी स्थापित की; जहांसे वह और उनके उत्तराधिकारी सांत लिंगे सहस प्रांतपर शासन करते रहे थे । वह प्रांत वर्तमान तीर्थहल्ली तालुक से किंचित् अधिक था । जिनदत्तरायने दक्षिणमें कलस देश ( मुडगेरे तालुक़ ) तक अपना राज्य बढ़ाया था और उत्तर में गोवर्द्धन गिरि ( सागर तालुक़ ) पर किला बनाया था । उपरान्त सान्तारोने अपनी राजधानी कलसमें और फिर कारकळ ( दक्षिण कनारा) में " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ १४७ " www.umaragyanbhandar.com Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १४८] संक्षिप्त जैन इतिहाँस । स्थापित की थी। प्रारम्ममें इस वंशके सभी राजा जैनी थे, परन्तु उपरान्त वे लिंगायत मतके भनुयायी होगये थे। और भररस वोडेयरके नामसे प्रसिद्ध हुए थे; जैसे कि आगे लिखा जायगा। लिंगायत होनेपर भी उनकी रानियाँ जैनधर्मानुयायी ही थीं। उनका अस्तित्व १६ वीं शताब्दिसक मिलता है, जिसके बाद उनका राज्य केलड़ी राज्यमें गर्मित होगया था। प्रारम्भिक सान्तार राजाओंमें श्रीकेसी और जयकेसी भाई माई थे, और श्रीवेशीका पुत्र रणकेशी था । सान्तार वंशके अन्य राजा जगेसी समय सान्त लिगे प्रान्त पर राजा। राष्ट्रकूट राजा नृपतुङ्ग अमोघवर्षके भाषीन राज्य करता था। किन्तु इस वंशके राजाओंका ठीक सिलसिला विक्रम सान्तारसे चलता है, जिमके विरुद्ध 'कन्दुकाचार्य' और 'दान-विनोद ' थे। उसे सान्तिलगे प्रान्तमें स्वाधीन राज्य स्थापित करने का गौरव प्राप्त है, जिसकी सीमायें दक्षिण में सूल नदी पश्चिममें तवनसी भौर उत्तरमें बन्दिगे नामक स्थान था । सन् १०६२ व १०६६ में वी शान्तार और उसके पुत्र भुजबल सान्तारने चालुक्य राजाभोंमे सान्तिलगे ।ज्यको मुक्त किया था। इस समयसे सान्तार गजामोंकी शक्ति बढ़ गई थी और वह प्रभावशाली हुए थे। भुजबलके भाई ननि-माता के विषय में कहा गया है कि उन्होंने गंग-राजा बुटुट-पेरम्माडिसे भी अधिक सम्मान प्रास किया था। बुग स्वयं भाषी दुर चलकर उनसे मिलने 1ोजपने राजसिंहासन पर बराबर मासन दकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन छोटे राजनुं । [ १४९ " सत्कारित किया था । इनसे तीसरी पीढ़ीमें राजा जगदेव हुए थे । जिन्होंने द्वारा समुद्र के होयसल राजाओं पर आक्रमण किया था, किन्तु उसमें वह सफल नहीं हुये थे। इस घटना के पश्चात् सान्तार राजधानी कळस ( मुडगेरे तालुक़ ) में स्थापित की गईं थी, जिसके कारण सन् १२०९ से १५१६ ई० तक सान्तार - राज्य कलसराज्य' के नामसे प्रसिद्ध हुआ था । कळस राजधानीसे जिन राजाओंने राज्य किया, उनमें से दो रानियोंने सन् १२४६ से १२८१ तक शासन-सूत्र संभाला था। इनके नाम जाकल और काळळ - महादेवी थी । हूमछ ( नगर तालुका) के शिलालेख नं० ३५ (१०७७ ई०) में सान्तार वंशकी जो वंशावली दी है, उससे इस वंश के निम्नलिखित राजाओं का पता चलता है । हिरण्यगर्भ (विक्रम सान्तार) की रानी बनवासी राजा कामदेवकी पुत्री लक्ष्मीदेवी थीं। उनके पुत्र चागी सांतार थे, जिनकी भार्या एंजलदेवी थीं । वीर सांतार उन्हीं के पुत्र थे और उनकी रानी जाकलदेवीसे वन्न! सांतारका जन्म हुआ था; जिनकी रानी नागलदेवी थीं । उनके पुत्र नन्निसांतार राजा हुए, जिनक छोटे भाई कामदेव थे । कामदेवकी रानी चंदलदेवी थीं; जिनकी कोख से त्यागी सांतार जन्मे थे । नन्निसांतारकी मार्या सिरिया देवी थीं, जिनके पुत्र रायसांतार हुए थे । रायकी रानीका नाम अक्कादेवी था और वह चिक्कवीर सांतारकी माता थीं। चिक्ककी रानी विज्जलदेवी से अम्मनदेव हुए थे, जिनकी भार्या होचळदेवी १ –मेकु०, पृष्ठ १३०-१४०. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] संक्षिप्त जैन इतिहास | और पुत्र तैलपदेव एवं पुत्री वीरवरसी थी । तैलपदेवकी महादेवी केलयव्वरसी थीं, जिनके पुत्र वीरदेव थे। उनकी गंगवंशी वीर मद्दादेवी से भुजबल सांतारका जन्म हुआ था । इनको चत्तकदेवी भी कहते थे । इनके अतिरिक्त इस वंश के और भी राजा थे । लिखा जाचुका है कि सांतार राजा मूलमें जैन धर्मानुयायी थे । जैन धर्मकी उन्नति और प्रभाव - विस्तार के लिये उन्होंने अनेक कार्य किये थे । दक्षिण भारत में एक समय यह पहले ही सांतार राजा और जैन धर्म । जैनियोंके मठ तीन स्थानों अर्थात् (१) श्रवणबेलगोल (२) मलेयूर और (३) हूनसमें स्थापित और अतीव प्रसिद्ध थे । इनमें से हूमस - मठको सांतार राजा जिनदत्तायने स्थापित किया था । इस मठके गुरु श्री कुन्दकुन्दान्वय और नन्दि संघ से सम्बन्धित रहे हैं। इसी मठके आचार्य श्री जयकीर्तिदेवसे सरस्वती- गच्छ प्रारम्भ हुआ था। श्री जिनदत्तरायके गुरु आचार्य सिद्धांतकीर्ति की इसी मठके स्वामी थे । निस्सन्देह इस मठके आचार्योंने जैन धर्मकी अपूर्व सेवायें की थीं। उपरांत सांतार राजाओंमें राजा तैलसांतार जगदेक एक प्रसिद्ध दानशीक शासक थे । उनकी रानी चत्तलदेवी थीं, जिनसे उनके पुत्र श्री वल्लमराज विक्रम सांतारका जन्म हुआ था । २ यह राना मी अपने पिताकी भांति एक महान दानवीर था । इसकी पुत्री पम्पादेवी परम विदुषी थी । 'महापुराण' का १ - ममेजेस्मा०, पृष्ठ ३१०. २ - भमेजेस्मा०, पृष्ठ १६२: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन छोटे राजवंश। [१५१ मध्ययन उन्होंने विशेष रूपसे किया था। स्वयं उनके रचे हुये 'भष्ट-विद्यार्चना-महाभिषेक' और ' चतुर्भक्ति' नामक ग्रंथ थे। वह इतनी विद्यासम्पन्न थीं कि लोग उन्हें 'शासनदेवता' कहते थे। वह द्राविड़ संघ नंदिगण अरुंगलान्वयी श्री अजितसेन पंडिनदेव अथवा वादीमसिंहकी शिष्या श्र विका थीं। उनके भाई श्री वल्लभ राजाने आचार्य वासुपूजा सिद्धांतदेवके चरण धोकर दान दिया था। चत्तलदेवीने भी कमलभद्र पंडितदेवके चरण धोकर 'पंचकूटजिन मंदिर के लिये भूमि दी थी। पम्पादेवीकी पुत्री वांचलदेवी भी अपनी विद्या और दानशीलताके लिये प्रसिद्ध थी। वह नाग. देवकी भार्या तथा पाडल तेलकी माता थीं। जिनधर्मकी वह पाम भक्त थीं। उन्होंने कवि पोनकृत 'शांतिपुराण' की एक सहस्त्र प्रतियां लिखाकर बांटी थीं तथा १५०० जिनमूर्तियां सुवर्ण और रत्नों की निर्माण कराई थीं। इन उल्लेखोम्मे सान्तार गज्यमें शिक्षाकी उन्नति और महिलाभोंका सम्मान एवं उनकी दानशीलताका पता चलता है। विक्रम सान्तारदेव भी जिनेन्द्र भक्त थे। उन्होंने 'पंचकूट जिनालय' के लिये अजितसेज पण्डित देवके चरण धोकर भूमि प्रदान की थी। तौलपुरुष सान्तार राजाकी रानी पालिपक्कने अपनी माताकी स्मृतिमें पाषाणका एक जिनमंदिर बनवाया था, जो ‘पालिपक-वस्ती' के नामसे प्रसिद्ध है और उन्होंने उस मंदिरको दान भी दिया था। त्रैलोक्यमल्ल वीर सांतारदेवने हूमसमें नोकियवे' नामक जिनमंदिर निर्माण कराया था। उनकी रानी चागलदेवीने मंदिरके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१) मंतित जैन इतिहास । सामने मकरतारण और बल्लिगवेमे • चागेश्वर' नामकी मिनमंदिर बनवाया था। इस मदिरके महातेमे हमसके माच गोविन्द नामक श्रावकने समाधिमरण किया था। वहां अन्य श्रावकों ने भी मल्लेखना व्रत माराधा था। वीर सांतारके राज्यमें दिवाइरनंदि सिद्धांतदेवके शिष्य पट्टनस्वामी नोकप्पा सेठीने 'तत्वार्थसुत्र' पर कनड़ में सिद्धांत रत्नाकर' नामक वृत्ति रची थी, जिसे उसक पुत्र मुल्ल मने लिखा था। ननि सांतारके राज्यमें पट्टनस्वामी नोश्रया में ठीने पट्टनस्वामी बिनालय' निर्माण कराया और वीर सांतारसे मोमवरी ग्राम प्राप्त करके उसे कुक्कड़वाड़ी ग्राम सहित सकलचंद्र पण्डितदेवके चरण घोकर दान किया । नोकय्य पट्टनस्वामी बड़े धर्मात्मा सज्जन थे । वह · सम्यक्तवाराशि' नामसे प्रसिद्ध थे। उन्होंने म्दुर में सुवर्ण और रत्नोंकी प्रतिमायें निर्माण कराकर स्थापित की थी। और वहां कई सरोवर बनवाए थे। भुनबल सांतारदेवने कनकनंदि मुनिकी सेवा में हरवरो ग्राम अपने बनवाये हुये जिनालय के लिये दिया था । तौलपुरुष विदयादित्य सांतारने सिद्धांत भट्टारकके उपदेशसे पाषाणका एक जिन मंदिर निर्माण कराया था। मजबलि सांतारने पोम्बु में 'पंचवस्ती' बनवाई। भनन्दृग्में चत्तकदेवी और त्रिभुवनमल्ल सांतारदेवने एक पाषाणकी वस्ती श्री द्रविल-संघ मदुगलान्वयी मजितसेन पण्डितदेव 'वादिघाट्ट' के नामसे निर्माण कराई।' सन् १०९० के करीब कोप्य ग्राममें महाराज मार सांतारवंशीने अपने गुरु मुनि वादीमसिंह १-ममै प्रास्मा०, पृ. ३१९-१२५ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन छोटे राजवंश । [ १५३ अजित सेनकी स्मृतिमें एक स्मारक स्थापित किया था । यह राजा मयूरवर्मा का पुत्र तथा जैनागमरूपी समुद्रकी बृद्धिमें चन्द्रमा के समान था । (ममै जैहमा० २९१ ) इन उल्लेखों से राष्ट है कि सान्तारवंशके राजाओंके समय जैनधर्मका परम उत्कर्ष हुआ था। जैन सिद्धांतका ज्ञान जनसाधारणमें प्रचलित था । › ३ - चांगल्व राजवंश - बांगला वंश के राजाओंने दीर्घकाल तक मैसूर जिलेके पश्चिमी भाग और कुर्ग देशपर शासन किया था। उनका मूल आवास चङ्गवाड़ नामक प्रदेश था, जो वर्तमान के हुन्सूर तालुक जितना था | चांगल्व अपनेको चन्द्रवंशी यादव कहते और बताते हैं कि द्वारावती में चङ्गात्र नामक राजा राज्य करते थे वे उन्हीं की सन्तान है । शिलालेखों में उन्हें ' मण्डलीक - मण्डलेश्वर ' कहा गया है।' वे मुख्यतः जैन मतानुयायी थे, जैन शिलालेखों में उनका उल्लेख हुआ मिलता है। पंसोगे के चौसठ जिन मंदिरों के विषय में कहा जाता है कि उन्हें राम-लक्ष्मणने बनवाया था - चांगल्ब राज्यकी पूर्वी सीमा वहीं तक थी। इन मंदिरोंपर जिन जैनाचार्यो का अधिकार था, वही चाङ्गल्व राजाओं के गुरु थे । चाङ्गत्वों के प्रसिद्ध राजा नन्नि चाङ्गल्व राजेन्द्र चोल थे । उन्होंने पनसोगेमें एक जिन मंदिर निर्माण कराया था। महाराज कुल्लोतुंग चांगल्व महादेव के मंत्री के पुत्र चन्नवोग्रसने गोम्मटस्वामीका जीर्णोद्धार कराया था। जैन उपरान्त इस वंश के राजा शैव मतानुयायी होगये थे। संभवतः १ मे कु०, पृ० १४३ - १४४ २ - ममे प्राजेस्मा, पृ० २०१ - २०३ च २५०-३२८. 3 - मैकु०, पृ० १४१. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat चङ्गालव । www.umaragyanbhandar.com Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] संक्षिप्त जैन इतिहास। चोल राजाओंके प्रभावमें आने के कारण उन्हें ऐसा करना पड़ा होगा। ४-कोङ्गल राजवंश-इस वंशके राजा एक समय मैसूर प्रान्तके मर्फलगुड़ तालुक और कुर्गदेशके पंचव-महाराय। येलु साबीर देश पर राज्य करते थे । पनसो. गेके युद्धमें चागल्वोंके विरुद्ध राजराज चोलकी ओरसे पंचव-महागय वीरतापूर्वक लड़े थे, जिसके कारण प्रसन्न होकर राजराज चोलने उनके शीशपर मुकुट बांधकर क्षत्रिय शिखामणि. कोङ्गव' उपाधिसे उन्हें अलंकृत किया था और उन्हें मालवि प्रदेश भेट किया था। पंचव -महाराय का एक शिलालेख ( सन् १०१२ ) बलमुरे नामक स्थानसे प्राप्त हुआ है, जिससे प्रगट है कि वह राजराज चोलके चरणकमलों का भ्रमर था, जिन्होंने उसे वेङ्गिण्डल और गंग मण्डलका महादण्डनायक नियुक्त किया था उन्होंने पश्चिमीय तटवर्ती देशों को विजय किया था, अर्थात् सन्मोंने तुतुब, कङ्कण और मल्यको अपने आधीन किया था। ट्रावनकोरके राजा चेम्मको संग्राम-भूमिसे भगा छोड़ा था । और तेलुगों और रट्टिगोंको भी खदेड़ा था। इस उल्लेखसे उनके शौर्य और पक्रपका परिचय प्राप्त होता है। कोङ्ग व वंशके यही मादि पुरुष थे । इनके पश्च त् हुये राजाओंमें अदत्तरादित्य नामक प्रताप शाली था। उसने सन् १०६६ से ११०० राजा अदत्तरादित्य । ई०तक राज्य किया था। वह शिलालेखोंमें पंच महाशब्द भोगी'-'महामण्डलेश्वर''मोरेयूर-पुरा-धीश्वर '-'प्राची-दिक सूर्य'-'सर्य वंश-चूड़ामणि' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन छोटे राजवंश । ` कहा गया है । इन उपाधियोंसे अदत्तर । दित्यका महान् व्यक्तित्व स्वतः प्रगट होता है। उनके एक मंत्री नकुलार्य नामक थे, जो चार भाषाओं में लिख-पढ़ सकते थे । [ १५५ मदत्तरादित्य के पहले हुये राजाओं में (१) वादिम, (२) राजेन्द्र चोल पृथ्वीमद्दाराज (सन् १०२२); (३) राजेन्द्र चोल कोंगर (१०२६) का उल्लेख मिलता है । अदत्तरादित्य के उत्तराधिकारी त्रिभुवन मल्लचोक कोङ्गलदेव थे । ये सभी राजा जैनधर्मानुयायी थे । राजा मवत्तरादित्यने मूलसंघ कानूरगण तगरीगल गच्छ के गंधविमुक्त सिद्धांतदेवाचार्य के उपदेश से एक जिनमंदिर निर्माण कराया था, जिसे उन्होंने सिद्धांतदेव प्रभाचंद्र उदयसिद्धांत रत्नाकरकी सेवामें अर्पित किया था । तथा उसके लिये भूमि भेंट की थी । महामंडलेश्वर त्रिभुवनमल्ल चोल कांगळदेव के सेवक रावसेत्रक पोते अदगदित्य के अधीन सरदार बुवेय अदिनामक थे । उन्होंने जैनाचार्य श्री पद्मनंददेवकी सेवामें भूमिदान किया था । सारांशतः कोङ्गाल्व राज्यमें राजा और प्रजा के संयुक्त उद्योगसे जैनधर्मका उल्लेखनीय प्रकाश हुआ था । कोङ्गख व जैनधर्म । सन् १३९० में किन्हीं जैनाचार्योंने मुक्कुर ( कुर्ग ) नामक स्थानकी वस्तियोंका जीर्णोद्धार कराया था । उन मंदिरोंके लिये कोङ्गाल्व सुगुणिदेवीने दान दिया था । इस उल्लेख से राष्ट है कि कोङ्गाल्व राज्यका अन्त चोलोंके अन्य राजा । १ - ममैप्राजैहमा०, पृ० २८४-२८६. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१५६] संक्षिम जैन इतिहास.। ANNIRAINRNAMINIMINISTRAINIKMERAMANAGENIORAININMENSNASAINTENANKARNINMENw. साथ लगभग सन् १९१५ ई० के होगया था; न्तु उनकी संतान उसक पश्चात् भी जीवित रही। अग्नी स्वाधीनता स्थिर रखनेक लिये कोङ्गारव रामओंने होयसलवंशके राजाओं के साथ वीरतापूर्वक मोरचा लिया था। सन् १०२२ में तो उन्होंने नृाकाम पोयसळ पर बढ़कर माक्रमण किया था। और रणक्षेत्रमें उसके पाणोंको संकटमें डाल दिया था । कदाचित् सेनापति जोगय्य उनकी सहायताको न माते तो वह शायद ही रणभू मेसे जिन्दा लौटते । सन् १०२६ ई० में भी कोनाव राजाओंने मनि नामक स्थान पर होयसलोंको परास्त किया था, किन्तु मन्ततः वह होयसलोंके सम्मुख टिक न सके और अपने राज्यसे हाथ धो बैठे। ५. पुन्नाट-राजवंश । मैसूर के दक्षिण की ओर अवस्थित मति प्राचीन पुन्नाट राज्य था । भद्रबाहु श्रुत केवलीने श्रवणबेलगोलसे भागे पुन्नाट राज्यमें जाने का आदेश आने संघको दिया था। ( ' संघोपि समस्तो गुरुवाक्यतः दक्षिणापथ देशस्थ पुन्नाट विषयम् ययो'-हरिषेण ) यूनानी लेखक टोल्मीने भी पुन्नाट का उल्लेख Pounnata · पौन्नट' नामसे किया है । ग़ज़ यह कि पुन्न टराज्य अत्यन्त प्राचीनकालसे प्रसिद्धि में मारहा था; किन्तु इस राज्यके गजाओंका उल्लेख सबसे पहले गङ्गवंशी राजा भविनीतके समयमें हुआ मिलता है। वह छै सहस्रका एक प्रांत था और उसकी राजधानी किस्थिपुर थी; जो वर्तमानमें कित्तुर नामक स्थान है। अविनीतके पुत्र दुर्विनीतकी रानी पुन्नाट-राजा स्कन्दवर्माकी १-मैकु०, पृ. १४५. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन छोटे राजवंश । [ १५७ पुत्री थीं । गजा स्कन्दवर्मान उनके लिये एक अन्य ही राजकुमार पति चुना था, परन्तु उन्होंने स्वयं दुर्विनीतको वरा था इम घटनासे तत्कालीन स्त्री-स्वातंत्र्य एवं वैवाहिक समुदारताका पता चलता है । उपरांत पुन्नाट राज्य गङ्ग साम्राज्य में मिला लिया गया था । पुन्न'ट- राजाओं का केवल एक शिलालेख मिला है, जिससे इस वंश के निम्नलिखित राजाओंके नाम मिळते हैं- (१) राष्ट्रवर्मा, (२) जिनका पुत्र नागदत्त था, (३) नागदत्त के पुत्र भुजग हुये, जिन्होंने सिंहवर्मा की पुत्रीक साथ विवाह किया था, (४) उनके पुत्र स्कन्द - वर्मा ये, जिनके पुत्र और उत्तराधिकारी, (५) पुन्नाट - राज रविदत्त हुये थे । १ ६. सेनवार- राजवंश के राजा जैन धर्मानुयायी थे जिनके शिलालेख * डू' जिला के पश्चिमीय मागले मिले हैं हले-पहले पश्चिमी चालुक्य राजा विनयादित्य के समय में अर्थात् न् ६९० के लगभग सेनवार राजाओंका उल्लेख हुआ मिळता है । सन् १०१० ई० के लगभग राजा विक्रमादित्य के आधीन एक सेन्वार राजा वनवासी प्रातपर शासन करने बनाये गये हैं। किन्तु सन १०५८ ई० के उपरांत सेनवार राजा स्वतंत्र होगये थे । वे अपनेको वरवंशी बताते थे । जैन शास्त्रोंमें विद्याधर वंश के राजाओंको 'खेचरवंशी ' भी कहा गया है। संभव है कि सेनवार राजा मूळमें विद्याधर वंशके । उनका राजध्वज सर्पचिह्न युक्त भा-इसीसे उसे 'फणिध्वन' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | कहते थे तथा उनका राजचिह्न सिंह था । वे अपने को कुडलूम्पुराधीश्वर कहते थे । कनति नामक स्थानसे उनका जो एक शिलालेख मिला है, उसपर बायीं ओरसे चमर, छत्र, चन्द्र, सूर्य, तीन सर्प, एक खड़ग, गऊ - वत्स तथा सिंह अंकित हैं । उनके शिलालेख से प्रगट है कि सेनवार राजा जीवितवार एक स्वाधीन शासक थे । उनके पुत्र जीमूतवाहन थे । राजा । जीमूतवाहनके पश्चात् उनके पुत्र मार अथवा मारसिंह नामक राजा हुये थे। मार एक पराक्रमी राजा थे । जीमूतवाहन आदि उन्होंने विद्याधर लोकके सब ही राजाओंको अपने आधीन किया था । वह हेमकूटपुर के स्वामी कहे जाते थे । सन् ११२८ ई० में विक्रमादित्य राजा के दरबार में सेनवार राजपुत्र सूर्य और आदित्य मंत्रीपद पर नियुक्त थे, जिससे अनुमान होता है कि इस समयके पहले ही सेनवार राजा अपनी स्वाधीनता खोबैठे थे । सूर्यके पुत्र सेनापति थे, जिन्होंने पांड्य वंशके राजाओंकी शक्तिको भक्षुण्ण - बनाये रक्खा था | इन राजाओं के समय में भी जैनधर्मकी उन्नति हुई थी । सन् १०६० के लगभग कादवंती नदी के तटपर जब सेनवार वंश के राजा खचर कंदर्प राज्य करते थे तब देशीगण पाषाणान्वयी भट्टारक मङ्कदेवके शिष्य महादेव मट्टारक थे, जिनके शिष्य श्रावक निर्वधने भेकताकी चट्टानपर ' निर्वय जिनालय ' बनवाया था । १- मे कु०, पृ०१४८ -१४९. २ - प्रमैप्राजहमा०, पृ० २८९. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन छोटे राजवंश। [१५९ ७. सालुव-राजवंश । सालुव मथवा सात्व वंशके राजा भी मूलमें जैनी थे । वे अपनेको चन्द्रवंशी बताते थे। तुलुव. देशान्तर्गत सङ्गीतपुर (हाडुबल्लि) नामक नगरमें उनकी राजधानी थी। सालुओं के पूर्वज टिक्कम से उनवंशी राजा महादेव और रामचन्द्र के सेनापति थे, जिन्होंने सन् १२७६-८० में होयसल राजा. ओपर माक्रमण किया था। कहते हैं, उन्होंने होयसल राजधानी दोरासमुद्रको लूटा था। सन् १३८४ में एक सालुव रामदेव तलकाड़के शासक (Governar. थे। वह कोट्टकोडं नामक स्थान पर तुरकोंसे लड़ते हुए वीरगतिको प्राप्त हुये थे। सालुव-टिप्प. राजका विवाह विजयनगरके राजा देवराय द्वितीयकी बहिन हरियाके साथ हुमा था। सन् १४३१ में देवरायने टिप्पराज और उनके पुत्र गोपरा. जको टेडल नामक प्रदेश प्रदान किया था। इनके विरुद्ध 'मेदिनी, मीसर, गंड' व 'कठारि. सालुव' थे । सन् १४८८-१४९८ ई०के मध्यमें इस वंशमें इन्द्र, उनके पुत्र संगिगज गौर पौत्र सालुवेन्द्र तथा इन्द्रगस्त्य हम्मडि-सालुवेन्द्र हुये थे। उपगंत सन् १५३० तक सालुव मक्किाय, देवराय और कृष्णदेव नामक गजा हुये थे। सन् १५६० के लगभग सालुवोंकी राजधानी क्षेमपुर (जेरसोप्पा) गई थी; जहां देवराय, भैरव, और साल्वमल्ल नामक राजामोंने तुल, कोंकन, ईचे मादि देशोंमें पराजय किया था। इसी वंशके कतिपय राजाभोंने सन् १४७८-१४९६ तक विजयनगर राजपपर शासन किया था। सालुव नरसिंह नामक राजकुमार विजयनगर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जैन इतिहास । KICHENNNXNNNNAKAMANANUSINHANNXN.......... N ANRAKSATIAWINNION सम्राटके सेनापति थे । वे बाहमनी सुलतान के मुकाबिलेमें बहादुरीसे कड़े और मुसलमानों के भाक्रमणसे साम्राज्यकी रक्षा की, जिसके कारण उनको प्रभाव और शक्ति बढ़ गई। कहते हैं कि मौका पाकर उन्होंने विजयनगर राजसिंहासनपर अपना अधिकार जमा लिया। कर्णाट और तेलिंगाना देशमें उस समय वह सर्वश्रेष्ट पराक्रमी और शक्तिशाली योद्धा थे। कांची उनके राज्यके ठीक वीचमें थी। परन्तु उनका राज्य अधिक समयता नहीं टिका । भाखिर उनके वंशज कृष्णराय आदि राजाओंके राजमंत्री होकर रहे।' ८-धरणीकोटाके जैन राजा-कृष्णा जिलेके धरणीकोटा नामक स्थानसे जिन रामाओंने १२ वीं-१३ वीं शताब्दिमें गज्य किया था, वे जैनी थे । यन मंडलवाले शिलालेखसे इन राजाओं में से छै राजाओं के नाम इस प्रकार लिखे मिलते हैं । (१) कोटभीमराय, (२) कोटवेतराय सन् ११८२, (३) कोटभीमगय द्वि०, (४) कोटकेनगय द्वि० मन् १२०९, (५) कोररुद्रराय (६) कोटवेतराय। अंतिमराजा कोटवतरायने वाङ्गलके राना गनपतिदेव और रानी रुद्रम्माकी कन्या गनपन्दवासे विवाह किया था। राजा गनपतिदेव जैनियों का विरोधी था। उसने अपनी कन्या इस दुष्ट भभिप्रायसे वेतमयको यादी थी कि वह भी नियों का विरोधी होजाय । परिणामतः गनपतिकी मनचेती हुई-गनपनवाका पुत्र प्रारुद्र वेतरायके पश्चात् राज्याधिकारी हुमा । उसने जैन धर्मको त्याग कर अपनी माताका बामणधर्म स्वीकार किया था। मालम होता है कि १-कु०, पृ. १५१-१५३. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन छोटे राजवंश । [१६१ उसका व्यवहार जैनियों के प्रति समुदार नहीं रहा-यही कारण है कि जैनी उसके समयमें धरणीकोटा छोड़कर चले गये थे। कहते हैं उस राजाके नाना गनपतिदेवने तो जैनियोंको कोल्हू ओंमें पिलवानेकी नृशंसता का परिचय दिया था। वरंगलमें आज भी जैन ध्वंसावशेष इस अत्याचारकी साक्षी देरहे हैं।' (९) महाबलि-रानवंश-के राजाओंका राज्य गंगोंसे पहले ___ मांध्र देशसे पश्चिमकी ओर था। उनका दंडाधिप श्री विजय । प्रदेश 'भर्द्ध-सप्त-लक्ष' कहलाता था तथा आंध्र मंडल में उनके बारह सहस ग्राम थे। उनके मादिपुरुष महाबली और उनके पुत्र बाण नामक राजा थे। उनका राजचिह्न वृषम था और उनकी राजधानी महाबलिपुर थी। प्रारम्ममें वे शिव उपासक थे। उनके एक राना नरेन्द्र मह गज थे, जो बलिवंश' के आभूषण कहे गये हैं। उनके दण्डाधिपति श्री विजय एक पराक्रमी योद्धा और महान वीर थे। एक शिलालेखमें उनके विषय में लिखा है कि " महायोद्धा दण्डाधिरति श्री विजय अपने स्वामीकी माज्ञासे चार समुद्रोंसे वेष्टित पृथ्वीर राज्य करने थे जिन्होंने अपने प्रवल तेजसे शत्रुओंको दबाया और उन्हें विजय कर लिया था । अनुपम कवि श्री विनयके हाथमें तलवार बड़े बलसे युद्ध शत्रुओं को काटती है और घुड़सवारों की सेनाके १-ममप्रबिस्मा०, पृ. २१-२३. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] संक्षिप्त जैन इतिहास । साथ हाथियों के बड़े समूहको प्रथम हटाकर भयानक सिपाईयोंकी कतारको स्वण्डित करके विजय प्राप्त करती है । बलि वंशके माभूषण नरेन्द्र महाराजके दंडाधिपति श्री विजय जब कोप करते हैं तो पर्वत पर्वत नहीं रहता, वन वन नहीं रहता और जल जल नहीं रहता।" एक मन्य लेखमें उनके विषय में लिखा है कि "मनुपम कवि श्री विजयका यश पृथ्वीमें उतरकर माठों दिशाओं में फैल गया था। उन श्रीवि. जयकी शक्तिशाली भुजायें जो शरणागतके लिये कल्पवृक्षके तुल्य हैं, शत्रुराजरूपी तृणके लिये भयानक खमिवनके समान हैं एवं प्रेमदेवताके द्वारा लक्ष्मीरूपी देवीको पकड़ने के लिये जालके तुल्य हैं, इस पृथ्वीकी रक्षा करें। दंडनायक श्रीविजय जो दान और धर्ममें सदा लीन रहते हैं, वह समुद्रोंसे वेष्ठित पृथ्वीकी रक्षा करते हुये चिरकाल जीवें।"' इन उल्लेखोंसे दंडाधिप श्रीविजयकी धार्मिकता और साहित्यशालीनताका परिचय प्राप्त होता है। वह एक महान योद्धा, धर्मात्मा सजन और अनुपम कवि थे। (१०) एलिनका राजवंश - इस वंशके राजा एकसमय केरल प्रांत में राज्य करते थे, जिन्हें 'चीगवंशी' भी कहते थे। तामिल साहित्यमें उनकी उपाधि 'आदि गैनम्' अर्थात् 'भादि गाँके स्वामी' थी। मादिगइ वर्तमान तिरूवादी नामक स्थान है। इन राजाओंकी राजधानी पहले वांजी नामक स्थान था। उपरांत वह तकता (धर्मपुरी)में 1-प्रमैप्रास्मा०, पृ. 32-3। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन छोटे राजवंश। [१६३ स्थान्तरित की गई थी। तिरूमलय पर्वतके शिलालेखमें इस वंशके तीन राजाओं के नाम इस प्रकार मिलते हैं। (१) एलिनीया यवनिका, (२) राजराजपावगन, (३) व्यामुक्तश्रवणोज्वल या विदुगदलगिय पेरूमक। ये सब जैनधर्मानुयायी थे। इनमें से पहले राजा एलिन यवनिकाने भरह मुगिरि (अर्थात् माहतों के सुन्दर पर्वत ) तिकमलय पर्वतपर पद्म यक्षिणीकी मूर्तियां स्थापित की थी। इन मूर्तियों का जीर्णोद्वार अंतिम राजा व्यामुक्त श्रवणोज्वलने किया था। पहले राजा एलिन यवनिकाके नामसे ऐसा भासता है कि यह राजा विदेशी थे। सन् ८२५ में इस वंशके अंतिम राजा चीरामल पेरूमनक विषयमें कहा जाता है कि वह मक्का गये थे। इस उल्लेखसे उनका भरवदेशसे सम्बन्ध होना स्पष्ट है। मकामें पहले ऐसे मंदिर थे जिनमें मूर्तियों की पूजा होती थी। श्रवणबेलगोलके एक मठाधीशने पहले यह बताया था कि दक्षिण भारतमें बहुतसे नैनी भरव देशसे आकर बसे थे मतएव बहुत संभव है कि यह राजा मूलमें मरबदेशके निवासी हों। इस प्रकार संक्षिप्त रूपमें तत्कालीन छोटे-छोटे राज्योंका पर्णन है। अपने राजामोडी तरह यह मण्डलीक सामन्त मी जैन धर्मके प्रचार में तल्लीन हुये मिलते हैं। निस्सन्देह जैन धर्मकी शरण १-पूर्व० पृष्ट ७९ व ... २-पूर्व पृष्ट १९, ३-ऐरि०, मा० ९ पृ. २८४. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | भाकर देशी-विदेशी सब ही प्रकारके शासकोंने शांतिलाम किया था और धर्मके पवित्र सिद्धांतों का प्रचार किया था । कुड़ापा जिले से प्राप्त एक लेख में जिस पावन भावनाको उत्कीर्ण किया गया है, उसको यहां उद्धृत करके हम यह खण्ड समाप्त करते हैं— शास्त्राभ्यासो जिन तिनुतिः, संगतिः सर्वदाय्यैः । सट्टत्तानां गुणगणकथा, दोषवादे च मौनम् ॥ सर्वस्यापि प्रियहतवचो, भावना चात्मतत्त्वे | सम्पद्यतां मम भवभवे, यावदेते ऽपवर्गः ॥ ता० ३०-७-३८ } कामताप्रसाद जैन - अलीगंज । । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बा० कामताप्रसाद नी कृतऐतिहासिक ग्रन्ध। भगवान महावीर भगवान पार्श्वनाथ २॥). भ० महावीर व भ० बुद्ध १॥) सं० अन इतिहास प्र० भाग मप्राप्य " " दूसग भाग २॥2) , ,, तीसराभाग-१ १) वीर पाठावलि पंच-रत्न 1) नव-रत्र पतितोद्धारक जैन धर्म सत्य मार्ग II) विशाल जैन संघ दिगम्बरत्व और दि० मुनि 12) 1-) मूलचन्द किसनदास का पारया पता: जैन विजय' प्रेस दिगम्बर जैनपुस्तकालय-सूरत । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ થશllહ. alchbllo 'Bee 9 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com