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संक्षिप्त जैन इतिहास ।
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थी। धर्मविवाह के अतिरिक्त स्वयम्बर रीतिसे भी विवाह होते थे। चन्द्रलेखाने स्वयंवरमें ही विक्रमदेवको वरा था और पुन्नाट राजकुमारीने स्वयम्वर समाके मध्य ही भविनीतके गलेमें वरमाला डाली थी। उस समय लोगोंमें उदारताके भाव जागृत होगये थे-साम्प्रदायिक संकीर्णता नष्ट होगई थी। विदेशी और मूक भील आदि जातियों के लोग भी शुद्ध करके आर्य संघमें सम्मिलित कर लिये गये थे । जैनाचार्योंने भार, कुरुम्ब मादि दक्षिणके असभ्य मूल अधिवासियोंको जैनधर्ममें दीक्षित किया था।
इन नवदीक्षितोंको उनकी भाजीविकाके अनुसार ही समाजमें स्थान मिला था। कुरुम्बजन शासनाधिकारी हुये थे। इसलिये वे क्षत्रियवर्णमें परिणीत किये गये थे। साथ ही अनेक नये मतोंका जन्म तथा उत्तर और दक्षिणका सम्बन्ध घनिष्ट बनाने का उद्योग नूतन समाज और जातियोंको जन्म देने में एक कारण था। फिर भी इनमें परस्सर विवाह सम्बन्ध होते थे। यहां तक कि वैदिक धर्मानुयायी ब्रह्मणों के साथ भी कभी कभी जैनियों के विवाह सम्बन्ध होते थे। विवाह संस्कारमें अनेक रीतियां वरती जाती थीं; परन्तु दुरहा दुलहनका हाथ मिका देना मुख्य था। पुरोहित दूल्हाके हाथ में दुलहनका हाथ थमा कर उनपर कलश-धारा छोड़ता था। इसीसमय दुधहन सात पग चलती थी और पुरोहित शास्त्रों का पाठ करता था। · इतना होनपर विवाह विच्छेद रूपमें सम्पन्न हुमा समझा जाता था। दम्पतिको इस समय उनके रिश्तेदार तरह-तरहकी वस्तुयें और धन भेंट करते थे। और खुब ही गाना-बनाना होता था।
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