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________________ गङ्ग-राजवंश | [ ११३ ब्राह्मणोंको दान-दक्षिणा दीजाती और साधर्मियों व अन्य प्रियज नोको भोजन कराया जाता था । यह सब कुछ चार दिन तक होता रहता था। चौथे दिन नवदम्पतिको वस्त्राभूषण से सुसज्जित करके हाथीपर बैठाकर नगर के बीच धूमधाम से घुमाया जाता था । इस अवसरपर रोशनी भी की जाती थी । किन्तु उससमय बहुविवाह प्रथा के साथ ही बाल्यविवाह और अनिवार्य वैधव्य सदृश कुप्रथायें भी प्रचलित थीं; जिनके कारण उस समयकी स्त्रियों के जीवन आजकलकी महिलाओंके समान ही कष्टसाध्य होरहे थे । किंतु फिर भी उस समयका गाईस्थिक जीवन सुखमय था । विधवायें अपने जीवनको स्वपर - कल्याणक मार्गमें उत्सर्ग कर देती थीं । महान् भाचार्यों और साध्वियोंकी सत्संगतिमें उनके जीवन सफल हो जाते थे । सारांशतः गङ्गवाड़ीका सामाजिक जीवन उदार और समृद्धिशाली था । उस समय गङ्गवाड़ीमें शिल्प और स्थापत्य कलाकी भी विशेष उन्नति हुई थी। समूचे देश में दर्शनीय भव्य मंदिर, दिव्य मूर्तियां, सुंदर स्तम्भ शिल्पकला । आदि मूल्यमई विशाल कीर्तियां स्थापित की गई थीं । ब्राह्मण, जैन और बौद्ध तीनोंने ही द्राविड़, चौलुक्य, अथवा होयसळ रीतिके मंदिरादि निर्माण कराये थे । परन्तु गङ्गबाढ़ीमें जैनोंका अपना निराला ही आकार-प्रकार ( style ) मंदिरादि निर्माणका रहा था । उसका सादृश्य बौद्ध - शिल्पसे किञ्चित् अवश्य था । खासकर कतिपय जैन मूर्तियां ठीक वैसे ही १ नाम ० १० २९४-२९५. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035246
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1938
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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