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________________ गङ्ग- राजवंश । [ १२५ I इसके अतिरिक्त जैनियोंने 'चतुर्मुख' अथवा 'चौमुखा ' मंदिर भी बनाये थे, जो एक तरह के मण्डप जैसे ही थे । उनमें बीच में एक बड़ा कमरा (Hall) होता था जिसमें चारों ओर बड़ेर दरवाजे व बाहर बरांड। तथा उसारा (Portico) होते थे । छत सराट पाषाणसे पाट दी जाती थी, और वह बड़े२ स्तंभों पर टिकी रहती थी । यह स्तम्भ तक्षण कला के अदभुत नमूने होते थे जैनियों के कुछ मंदिर तीन कोठरियों (Threecelled temples) वाले भी थे । जिनमें तीर्थंकर की मूर्तियां यक्ष, यक्षिणी सहित बिराजमान होत थीं । चौलुक्य, कादम्ब और होयसल राजाओंने इस ही तरह के मंदिर बनाये थे क्योंकि आखिर वह जेनी ही थे । बर्जेस और फर्गुसन सा०का कहना है कि ७वीं वीं शताब्दियों में दक्षिण भारतमें जो स्थापत्यकलाका जैन आकार प्रकार प्रचलित था, वह उत्तर में इको तक पहुंचा था और साथमें द्राविड़ - चिन्हों को भी लेगया था । शिलालेखों से यह भी पता चलता है कि गंगवाड़ी और बनवासीमें एक समय लकड़ी के बने हुए जिनालय और चैत्यालय प्रचलित थे। ग्ङ्ग-वंशके J जैन मंदिर संस्थापक माधवने मंडलि नामक पर्वतपर एक जिनालय लकड़ीका बनवाया था। जिसकी रक्षा उनके उत्तराधिकारियोंने विशेष रूपमें की थी । अविनीत और दुर्विनीतकी प्रशंसा शिलालेखों में की गई है कि वे जिनालयों और चैत्यालयों के संरक्षक थे | मारसिंह के सेनापति श्री विजयने गङ्ग राजधानी मन्नेमें १- गंग० पृ० २२२-२२६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035246
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1938
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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