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________________ ४६ ] संक्षिप्त जैन इतिहास | हुए थे। उन्हें ' अविनीत- स्थिर - प्रज्वळ ' 'अनीत' और ' भरिनृप दुर्विनीत ' कहा गया है । वह कृष्णके समान वृष्णि वंशके रत्न बताये गए हैं । उनमें अतुल बल था, अद्भुत शौर्य था, अप्रतिम प्रभुता थी- अतिम विनय थी, अपार विद्या और असीम उदारता थी। उनका चरित्र युधिष्ठिर तुल्य था । उनमें राज्य संचालन के लिये तीनो शक्तियां अर्थात् प्रभुशक्ति, मंत्रशक्ति और उत्साहशक्ति पर्याप्त विद्यमान थीं । यद्यपि वह वैष्णव कहे गये हैं, परन्तु उनकी उदार हृदयता सब धर्मों के प्रति समान थी । " एक शासन लेख के आधार से राइस सा० बताते हैं कि ' शब्दावतार 'के रचयिता प्रसिद्ध जैन वैयाकरण श्री पूज्यपादस्वामी उनके शिक्षा गुरु थे । दुर्विनीतने अपने गुरुके पदचिह्नों पर चलनेका उद्योग किया था । परिणामतः उन्हें भी साहित्य से प्रेम होगया । कवि भारविके प्रसिद्ध काव्य ' किरातार्जुनीय ' के १५ सर्वोपर उन्होंने एक टीका रची । ' कवि राजमार्ग' में उनकी गणना प्रसिद्ध कन्नड कवियोंमें की गई है । " भवन्ती सुन्दरी - कथासार " की उत्थानिकासे प्रगट है कि कवि मारवि दुर्विनीत के राजदरबार में पहुंचे थे और कुछ समयतक उनके महमान रहे थे। दुर्विनीतके किन्हीं शिलालेखोंमें उन्हें स्वयं ' शब्दावतार नामक व्याकरणका कर्त्ता लिखा है । उन्होंने पैशाची प्राकृत भाषामें रचे हुए 'बृहत् कथा नामक प्रन्थका संस्कृत भाषान्तर रचा था। दुर्विनीत जैसे ही एक सफल ग्रन्थकार थे वैसे ही वह एक सफल शासक थे । प्रजाति के लिये 9 " १-गङ्ग०, पृ० ४०-४१. २ - मेकु०, पृ०:३५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035246
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1938
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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