SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पल्लव और कादम्ब राजवंश। [२९ था-परम महिंसाधर्म सर्वत्र प्रसारित हुआ था, धर्मके नामपर पशुओंकी निरर्थक हिंसा होना बन्द होगई थी। सर्वत्र अहिंसा और सत्य धर्मका दिव्य मालोक व्याप्त था। जैनत्वकी मुहर राजा और प्रजाके हृदयों पर लगी हुई थी। कदम्बों के राजकविगण जैनी थे, उनके सचिव और ममात्य जैनी थे; उनके दानपत्र लेखकगण भी जैनी थे और उनके व्यक्तिगत नाम भी जैनी थे। कदम्बोंक साहित्यकी रूपरेखा भी जैन काव्यशैली की थी। कदम्बोंकी राजधानी पलासिकामें जैनोंकी भिन्न संपदायों अर्थात यापनीय, निग्रन्थ, कूर्चक, महराष्टि गौर श्वेतपट संघोंके आचार्य शांतिपूर्वक रह कर धर्मप्रचार करते थे। जैनत्वका यह प्रबल रूप उपरांतके शैव कदम्ब गजाओंको मी प्रभावित करने में सफल हुआ था । ब्राह्मणभक्त होने और अश्वमेघ रचनेपर भी उन्होंने जनोंको दान दिये थे। धर्म महाराज श्री कृष्णवर्मा द्वितीयके प्रिय पुत्र युवराज देववर्माने त्रिपर्वतके ऊपर का कुछ क्षेत्र अर्हत् भगवान के चैत्यालयकी मरम्मत, पूना और महिमाके लिये यापनीय संघको दान किया था। दानपत्रमें देववर्माको · कदम्ब-कुर-केतु'- रणप्रिय- दयामृतमुखास्वादप्तपुण्यगुणेप्सु - देववम्मैकवीर' लिखा है, जिससे उनके १-" Their ( Kadambas' ) poets were Jains; their ministers were Jainas; some of their personal names were Jaina ; the donces of their grants were Jaina-The type of literature as evidenced by the Goa copper-plates was of the Jaina Karya Kind-Prof. B. S. Rao. साइंजे०, भा० २ पृष्ठ ४५. २-जमीयो०, मा० २२ पृ. ६१. ३-जैसाई०, पृ० ५१. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035246
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1938
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy