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________________ संक्षिप्त जैन इतिहास | प्राचीन केन्द्रस्थान है । यहां पहाड़ीकी चोटी पर कुछ कोठरियाँ मुनियोंके ध्यानके लिये बनी हुई हैं, जिनमें से एक में ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दिका एक ब्राह्मी लेख इस बातका द्योतक है कि उस समय इन कोठारियोंमें जैन मुनिगण रहा करते थे । इस स्थानका मूल प्राकृत नाम ' सिद्धण्णवास' अर्थात् ' सिद्धों का डेरा ' है । इससे अनुमान होता है कि यह कोई निर्वाणक्षेत्र है । किन्हीं महा मुनीश्वरने यहांसे सिद्ध पद प्राप्त किया होगा : इसीलिये यह क्षेत्र ' सिद्धण्णवास' रूपमें प्रसिद्ध हुआ । यहां एक जैन गुहामंहिर है, जिसकी भीतोंपर पूर्व पल्लव राजाओंकी शैलीके चित्र हैं । यह चित्र राजा महेन्द्रवर्मनके ही बनवाये हुये हैं और अत्यन्त सुन्दर हैं । मंदिर के मंडप में संपक आसन से स्थित पुरुष परिमाण अत्यन्त सुगड़ और सुंदर पांच तीर्थंकर मूर्तियां बिराजमान हैं; जिनमें से दो मंडप के दोनों पाश्र्वौमें अवस्थित हैं । 'यहां अब दीवारों और छतपर सिर्फ दो-चार चित्र ही कुछ अच्छी हालत में बचे हैं । इनकी खूबी यह है कि बहुत थोड़ी परन्तु स्थिर और दृढ़ रेखाओंमें अत्यन्त सुन्दर और मूर्त आकृतियां बड़ी उस्तादीके साथ लिख दीगई हैं । छाया आदि डालने का प्रयत्न प्रायः नहीं किया गया । रंग बहुत थोड़े हैं- सिर्फ लाल, पीला, नीला, काला और सफेद । इन्हींको मिलाकर कहीं-कहीं कुछ और हरा, पीला, जामुनी, नारंगी आदि रंग भी बना लिये गये हैं । इतनी सरलता से बनाये गये इन चित्रोंमें भाव आश्चर्यजनक ढंग से स्फुट हुए हैं और माकृतियां सजीवसी जान पड़ती हैं । १२. ] 00110 १- इआ०, सन् १९३०, पृ० ९-१० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035246
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1938
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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