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________________ ११८] ११८ संक्षिप्त जैन इतिहास । उसका पा सत्कायो वाड़ीके दिगम्बर जैनधर्ममें उसका मादर्श और न्याय मूर्तिमान हुमा था । दि० जैन मुनियों और श्रावकोंके सत्कार्योसे वह र मुन्नत बना था। मुनियों और श्रावकोंके लिये उस समय जो नियम प्रचलित थे, उनसे उपरोक्त व्याख्याका समर्थन होता है। गंगवाड़ीमें भी साधुदशा पूर्ण आचेलक्य-दिगम्बस्त्वमें गर्भित थी । इस असिघारा सम तीक्ष्ण व्रतका व्रतीजन सहर्ष अनुगमन करते थे । वह पंचमहाव्रतादिरूप मूलगुणों का पालन करते हुये अपनेको सदा ही दण्ड, शल्य, मद और प्रमादके चुंगलोंसे बचाये रहते थे। वह निरंतर ज्ञान, ध्यान और भावनाओंके चिंतनमें समय विताते थे ।' कर्म सिद्धांतमें उन्हें दृढ़ विश्वास था । शरीरसे ममता नहीं थी और न वह उसको साफ करने की चिंता रखते थे; बल्कि कोई२ भाचार्य तो शरीर के प्रति अपनी इस उपेक्षावृत्ति के कारण धूलधूसरित रहते हुये 'मनधारिन्' कहलाते थे। मुनि अवस्थामें वह हमेशा अपने ज्ञानको निर्मल बनाते थे और सुन्दर साहित्यिक रचनामों द्वारा लोक कल्याणका साधन सिरजते थे। मौखिक शास्त्रार्थों और अपने सत्कार्यों द्वारा वह जैनधर्मकी प्रभावना करते थे। मौनी भट्टारकने तो धर्मरक्षाके लिये शस्त्र प्रहण भी किया था। मुनियोंके साथ गृहस्थजन भी धर्म पालनका पूर्ण ध्यान रखते थे। वे 'श्रावक' मथवा 'मन्यजन' के नामसे प्रसिद्ध थे। यद्यपि उनका जीवन उतना कठिन और त्यागमय नहीं होता था, जितना कि मुनियोंका होता :- . - . -नका. भाग २ नं. १६१-२५८- । --- 2-Ride, Intro. to E. C. II. P. XXXVII, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035246
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1938
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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