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________________ गङ्ग-राजवंश। [३९ हुई और माधवने जयकारेके साथ वह तलवार हाथ में ली और अपना पौरुष प्रगट करने के लिये उसके एक बारसे एक शिलाके दो टुकड़े कर डाले । सिंहनन्दिस्वामीने यह एक शुभ शकुन समझा और 'कनिकर कलिकामो' का एक मुकुट बनाकर उनके शीशपर रख दिया तथा अपनी मोपिच्छिका ध्वजरूपमें उन्हें भेट की। साथ ही आचार्य महाराजने उन भाइयों को प्रतिज्ञा कराके मादेश दिया कि “ यदि तुम अपनी प्रतिज्ञा मङ्ग करोगे, यदि तुम जैन शासनके प्रतिकूल जाओगे, यदि तुम पर-स्त्री-लम्पटी होगे, यदि तुम मद्य-मांस भक्षण करोंगे, यदि तुम दान नहीं करोंगे, और यदि तुम रणाङ्गणसे पीठ दिखाकर भागोगे तो निश्चय तुम्हारा कुल नाशको प्राप्त होगा। " इस मादेशको दोनों भाइयोंने शिरोधार्य किया । उस समय मैसूर ( जो तब गणवाडीके नामसे प्रसिद्ध था ) ये जैनियोंकी मधिक संख्या थी और उनके गुरु भी श्री सिंहनन्दि भाचार्य थे। गुरु आज्ञा मानकर जनताने दिदिग और माधवको भपना राजा स्वीकार किया । इस प्रकार श्री सिंहनंदि आचार्यकी सहायतासे गङ्ग राज्यका जन्म हुआ और इस राज्य में अधिकृत प्रदेश · गनवाड़ी ९६००० ' के नामसे प्रख्यात हुमा ।' उस समय गङ्गवाडीकी सीमायें इस प्रकार थीं-उत्तरमें उसका विस्तार मरन्डले ( Marandale ) तक था, गङ्ग राज्य। पूर्व दिशामें वह टोन्डैमंडलम् तक फैला हुमा ____था, पश्चिममें चेर राज्यका निकटवर्ती समुद्र १-गह, पृ. ५-७, इका० व जैशिसं० भूमिका पृ. ७१-७२. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035246
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1938
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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