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________________ KARN.N E ......... ......" ANAN......... .......... ........ १४.] संक्षिप्त जैन इतिहास । इसके दर्शन करनके लिये प्रतिवर्ष श्रवणबेलगोल पहुंचते हैं। यह नम, उत्तरमुख, खङ्गासन मूर्ति मपनी दिव्यतासे वहां के समस्त भूभागको भलंकृत और पवित्र करती है-कोसों दूरसे उसकी छवि मन मोहती है । निस्सन्देह वह शिलाकी एक अनुपम कृति है । उसके सिरके बाल धुंधराले, कान बड़े और लम्बे, वक्षस्थल चौड़ा, विशाल बाहु नीचेको लटकते हुए और कटि किंचित् क्षीण है। मुखपर अपूर्व कांति और अगाध शांति है । घुटनोंसे कुछ ऊपरता बमीठे दिखाये गये हैं, जिनसे सर्प निकल रहे हैं। दोनों पैरों और बाहुओंसे माधवीकता लिएट रही है, तिसपर भी मुखार अटल ध्यानमुद्रा विराजमान है। मूर्ति क्या है मानो तपस्याका अवतार ही है। दृश्य बड़ा ही भव्य और प्रभावोत्पादक है । सिंहासन एक प्रफुल्ल हमलके आकारका बनाया गया है । इस कमलपर बायें चरणके नीचे तीन फुट चार इंचका माप खुदा हुआ है। कहा जाता है कि इसको मठारहसे गुणित करने पर मूर्तिकी ऊंचाई निकलती है। जो हो, पर मूर्तिकारने किसी प्रकारके मापके लिये ही इसे खोदा होगा। निःसंदेह मूर्तिकारने अपने इस भपूर्व प्रयास में अनुपम सफलता प्राप्त की है। एशिया खण्ड ही नहीं समस्त भूतलका विचरण कर भाइये, गोमटेश्वरकी तुलना करनेवाली मूर्ति आपको क्वचित् ही दृष्टिगोचर होगी। बड़े बड़े पश्चिमीय विद्वानोंके मस्तिष्क इस मूर्तिकी कारीगरीपर चक्कर खागये हैं । इतने मारी और प्रवल पाषाण पर सिद्धहस्त कारीगरने जिस कौशलसे अपनी छैनी चलाई है उससे भारतके मूर्तिकारोंका मस्तक सदैव गर्वसे चा उठा रहेगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035246
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1938
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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