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________________ ३२) संक्षिप्त जैन इतिहास । ज्ञात है शिलालेखीय शाक्षीसे यह ज्ञात है कि यापनीय संके सवाधुओंका कार्यक्षेत्र काईटाक देशके मासपास रहा है। केवल कदम्बवंशके राजाओंसे ही यापनीय संघ भाचार्योंने सम्मान पाया हो, यह बात नहीं है, बल्कि गठौर और चालुक्यवंशोंके राजाओंने भी उनके भाचार्योका मादर किया था। राठौर प्रभूतवर्ष ( ८१२ ई०) ने यापनीय संघके विजयकीर्ति के शिष्य अर्क कीर्तिको दान दिया था। इस दानपत्रमें यापनीय संघको नंदिगण और पुन्नाग-वृक्ष मूल संघसे सम्बन्धित लिखा है। पूर्वीय चालुक्यरान अम्म द्वितीय (९४५ ई०) ने भी यापनीय आचार्य दिवाकरके शिष्य मंदिग्देवको दान दिया था। ईस्वी १४ वीं शताब्दि तक यापनीय संघके अस्तित्वका पता चलता है। उपरांत वह दिगम्बर संघमें ही अन्तर्मुक्त हुआ प्रतीत होता है। कदंब और पल्लव राज्यकाल के अंतर्गत जैन संघमें बहुत-कुछ उथल पुथल हुई प्रतीत होती है। जैन संघमें जैन संघकी दिगम्बर और श्वेतांबर संघभेद हुये सौ-दोस्थिति। सो वर्ष ही व्यतीत हुये थे कि यापनीय संघका जन्म हुआ मिलता है। हमारे खयालसे यापनीय संघकी स्थापना द्वारा उन आचार्योंका भाव पुनः एक दफा जैन संघको मिलाकर एक बना देना था; परन्तु वह भाचार्य अपने इस उद्योगमें सफल नहीं हुये । उल्टे दिगम्बरों और १-जर्नल भाव दी यूनीवर्सिटी ऑव बोम्बे, मा० , संख्या में प्रगट प्रो० उपाध्येका लेख देखिए। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035246
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1938
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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