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________________ पल्लव और कादम्ब राजवंश। [१५ है। फिर भी जो कुछ भी उन्होंने लिखा है उससे तत्कालीन जैन धर्मके स्वरूपका पता चलता है । इस समय अर्थात् ई० ७ वीं८ वीं शतान्दि तक जैनधर्मका केन्द्र मदुरा ही था। उसके भासपास भनेमले, मसुमले इत्यादि जो माठ पर्वत थे, उन पर जैन धर्मके भग्रणी साधु लोग रहा करते थे। उन्हींके हाथमें जैन संघका नेतृत्व था। वे जैन साधुगण एकान्तमें रहते थे-जन समुदायसे प्रायः कम मिलते थे। वे प्राकृत भाषा बोलते और नाकके स्वरसे मन्त्रोंका उच्चारण करते थे। वेद और ब्राह्मणों का खंडन करनेमें हमेशा तत्पर रहते हुए वे तेज धूपमें ग्राम-ग्राम विचरते थे। उनके हाथों में मक्सर एक छत्री, एक चटाई और एक मोर पिच्छिका रहती थी। इन साधुओंको शास्त्रार्थ करने का बड़ा चाव था और अन्य मतके भाचार्योको बाद परास्त करने में उन्हें मजा भाता था । वे देशलुञ्चन करते और स्त्रियों के सम्मुख भी नम रहते थे । माहारके पहले वे अपने शरीरोंको स्वच्छ (सान ) नहीं करते थे। वे घोर तपस्या करते थे और माहारमें सोंठ तथा मरुतवृक्ष (?) की पत्तियां अधिक लेते थे। वे शरीरमें भस्म (gallnut powder ) भी रमाते थे। वे यंत्र-मंत्रके अभ्यासमें दक्ष थे और अपने मंत्रोंकी खूब प्रशंसा करते थे ।' जेन साधुओंके इस वर्णनसे उनका प्रभावशाली होना स्पष्ट है। वे ज्ञान-ध्यान और तपश्चरणमें लीन रहने के साथ ही जैनधर्म प्रभावनाके लिए हरसमय दत्तचिस रहते थे। इसका मर्थ यह है कि 'वे महान् पण्डित थे। उनके नेतृत्व जैनधर्मका मभ्युदय हुभा था। १-साइजैक मा० १, पृ. 0-1. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035246
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1938
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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