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________________ ११०] संक्षिप्त जैन इतिहास । पूज्य गदकी प्रसिद्धि यहांतक हुई थी कि व्याकरणमें किसी विद्व न्की विद्वत्ता प्रकट करने के लिए लोग उन्हें साक्षात् 'पूज्यपाद ' कहा करते थे। कनड़ी कवि वृत्तिविलासने स्वाचित 'धर्मविलास' की प्रशस्तिमें पूज्यपादजीकी बड़ी प्रशंसा लिखी है और उनकी भन्यान्य रचनाओं का उल्लेख निम्न प्रकार किया है: " भरदि जैनेन्द्रमासुर-एनल ओरेदं पाणिनीयके टीकुं वरेदं तत्त्वार्थमं टिप्पणदिन अरिपिदं यंत्रमंत्रादिशास्त्रोक्तकरम् । भूरक्षणार्थ विचिसि जसमुं तालिददं विश्वविद्याभरणं भव्यालिपाराधितपदकमकं पूज्यपादं व्रतीन्द्रम् ॥" भावार्थ-" व्रतीन्द्र पूज्यपादने, जिनके चरणकमलोंकी भनेक भव्य माराधना करते थे और जो विश्वभरकी विद्याओं के शंगार थे, प्रकाशमान जैनेन्द्र व्याकरण की रचना की, पाणिनि व्याकरणकी टीका लिखी, टिप्पण द्वारा तत्वार्थका अर्थावबोधन किया और पृथ्वीकी रक्षाके लिये यंत्रमंत्रादि शास्त्रकी रचना की।" माचार्य शुमचन्द्र ने 'ज्ञानार्णव' के प्रारंभ में देवनन्दि ( पूज्यपाद ) की प्रशंसा करते हुए लिखा है: 'अपा कुर्वन्ति यद्वाचः कायवाकचित्तसंभवम् । कलङ्कमङ्गिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ।। अर्थात्-" जिनकी वाणी देहधारियों के शरीर, वचन और मन सम्बन्धी मलको मिटा देती है, उन देवनंदीको मैं नमस्कार करता १- सर्वव्याकरणे विपश्चिद धिपः श्री पूज्यपादः स्वयं ।' -प्रवणबेलगोल शि. नं. ४७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035246
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1938
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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