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________________ गङ्ग राजवंश। AAKANKINNAR.NANINNAMOKESENSENS. ..........NA R MANN.. . . ...... . था तथा उसकी माताको कुनगलकी शासन व्यवस्था करने का मार सौंपा था। राजमल्लने ब्राह्मण और जैनोंको दान दिये थे। उन्होंने पजामें धर्म और सेवामाव बढ़ाने की नीयतसे राज-पुरस्कार नियत किये थे। जैसे पेरमनडी पट्ट बांधना-खेतों का लगान हमेशाके लिये नियत कर देना इत्यादि । केरेगोड़ी रंगपुरके दानपत्रों में उन्हें सद्गुणोंका भण्डार और गङ्गकुलका चंद्रमा लिखा है। कोम्बले नामक स्थानपर राजमल्लका देहांत हुमा था। कई मादमियोंने राजशोकमें अपनेको उनकी चितापर जला दिया था ! उनके पश्चात् एरेयप नीतिमार्ग द्वितीयके नामसे सन् ८०७ ई०के लगभग राजसिंहासन पर बैठे। उन्हें नीतिमार्ग द्वितीय। सबसे पहले कृष्ण द्वि०के सामन्त बकेस चल्लवेतन वंशके लोकदेयरससे युद्ध करना पड़ा था। गलन्जनूर नामक स्थान पर घमासान युद्ध हुमा था । शिलालेखोंसे स्पष्ट है कि कृष्णराजका अधिकार समग्र गणवाड़ी पर होगया था और गङ्गोंकी पुरानी राजधानी मण्णेमें रहकर प्रचंड दंडनायक सम्पय समूचे दक्षिण पर शासन करता था। इसका अर्थ यह है कि यद्यपि नीतिमार्ग और राजमल्लने स्वाधीन होने के भरसक प्रयत्न किये थे, परन्तु ममोघवर्षके मैत्रीपूर्ण व्यवहारमें फंस कर गंगराज पुनः राष्ट्रकूटोंके करद होगये थे। एरेको दुसरा मोरचा नोलम्बाधिराज पोलकचोर और उनकी रानी गङ्गराजकुमारी जयव्येके पुत्र महेन्द्रसे लेना पड़ा था। सन् ८७८ ई० में वह स्वाधीन होगया १-गङ्ग• पृष्ठ ८१-८७. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035246
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1938
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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