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________________ संक्षिप्त जैन इतिहास। पूर्ति के लिये मुख्यतः अनुशीलन, दान और मपरिग्रह भावको प्रधा. .ता देना मावश्यक समझा जाता था। इन संस्थाओंमें उपाध्याय महाराज ऐसी ही मार्मिक शिक्षा प्रदान करते थे जो मनुष्यको एक मादर्श जैनी बनाती थी। इन शिक्षालयोंमें मौखिक रूपमें शिक्षा दी जाती थी। शिक्षाका माध्यम प्रचलित लोकभाषा-तामिक अथवा कनड़ी था। गुरु उपदेश के स्थान पर अपने उदाहरण द्वारा शिक्षाके उद्देश्यको व्यवहारिक सफलता दिलानेके लिये जोर देते थे। गुरुका निर्मल और विशाल उदाहरण निस्सन्देह छात्र पर स्थायी प्रभाव डालता था ! इपलिये इन मठोंसे छात्रगण न केवल शिक्षित होकर ही निकलते थे बल्कि उन्हें देश, जाति और धर्मके प्रति अपने कर्तव्य का भी भान हो जाता था। गङ्ग राज्य काल में संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के साहित्य विशेष उन्नतिको प्राप्त हुये थे। मशोकके साहित्य शासन लेखों और सातवाहन एवं कदम्ब राजाओंके सिकोपर अंकित लेखोंसे प्रगट है कि उस समय प्राकृत भाषा का बहु प्रचार था। महावल्लीका शिलालेख एवं शिवस्कन्दवर्मना दानपत्र भी इसी मतका समर्थन करते हैं । पहली शताब्दिसे ग्यारहवी शताब्दि तक जैनों और ब्राह्मणोंदोनोंने पाकृत भाषाको साहित्य-रचनामें प्रयुक्त किया था । परन्तु साथ ही यह स्पष्ट है कि जैनाचार्यों ने संस्कृत भाषामें भी अपूर्व साहित्य सिरजा था। समन्तभद्राचार्य, पूज्यपादस्वामी प्रमृति बाचा -गंग०, पृ० २६०-२६६ । .. ... . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com -
SR No.035246
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1938
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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