SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दक्षिण भारतके जैनधर्मका इतिहास । [ ३ वस्तुतः सुदूर दक्षिण भारतकी ऐतिहासिक घटनायें बिन्ध्याचलके निकटवर्ती दक्षिणस्थ भारत से भिन्न रही हैं । इसी विशेषताको लक्ष्य करके दक्षिण भारत के इतिहासकी रूपरेखा दो विभिन्न आकृतियोंमें उपस्थित की जाती हैं । किन्तु एक बात है कि यह भिन्नता बिजयनगर साम्राज्यकाळ ( ई० १४ वीं से १६ वीं शताब्दि ) के पहले पहले ही मिलती है; उपरान्त दोनों भागों की ऐतिहासिक धारायें मिलकर एक हो जाती हैं और तब उनका इतिहास नभिन्न हो जाता है । मागेके पृष्टोंमें पाठक महोदय दक्षिण भारतके मध्यकालीन इतिहासका अबलोकन करेंगे। पहले, सुदूरवर्ती दक्षिण भारत के इतिहास में वह पल्लवों, कादम्ब, चोल और गङ्ग वंशोंके राजाओं का वर्णन पढ़ेंगे। उनकी श्रीवृद्धिको चालुक्योंने हतप्रम बना दिया था । चालुक्यगण दक्षिण पथसे आगे बढ़कर चेर, चोल और पाण्ड्य देशोंके अधिकारी हुये थे और उनके पश्चात् राष्ट्रकूटवंश के राजाओंका मभ्युदय हुआ था। वे चालुक्योंकी तरह गुजरातसे लगाकर ठेठ दक्षिण भारत तक शासनाधिकारी थे । राष्ट्रकूटों का परम सहायक मैसूरका प्राचीन गङ्गवंश था । गङ्गवंशके राजालोग मैसूर में ईस्वी दुसरी शताब्दिसे स्वाधीन रूपमें शासन कर रहे थे । चालुक्य, राष्ट्रकूट और गङ्ग वंशोंके राजाओंको चोक राजाओंने परास्त करके ब्राह्मण धर्मको उन्नत बनाया था; किंतु उनका अभ्युद दीर्घकालीन न था । मैसूर के उत्तर-पश्चिममें कलचूरी वंशके राजा लोग उजवशील हो रहे थे और मैसूर के पश्चिममें होयसळवंश राज्याधिकारी होरहा था। होयसलोंके हतप्रभ होने पर विजयनगर साम्राज्यकी श्रीवृद्धि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035246
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1938
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy