SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गङ्ग राजवंश। [१४३ लक्ष पण्डित द्वारा कराये हुए और शांतराज पण्डितने सन १८२५ के लगभग मैसुर नरेश कृष्णराज ओडेयर तृतीय द्वारा कराये हुए मस्तकाभिषेकका उल्लेख किया है। शिलालेख नं० ९८ (२२३) में सन् १८२७ में होने वाले मस्तकाभिषेक का उल्लेख है । सन् १९०९ में भी मस्तकाभिषेक हुभा था' । अभीतक सबसे अन्तिम अभिषेक मार्च सन् १९२५ में हुमा था। इस अभिषेक के उपांन इस दिव्य मूर्तिके विषय में हाल हीमें माशङ्काका अवसर उपस्थित हुभा है। कहा जाता है कि मूर्तिपर कुछ चिट्टे पड़ गये हैं। उन चिट्टोको मिटाने और मूर्तिकी रक्षा करने के लिये मैसूर-सरकार और दक्षिण भारतके जैनी सचेष्ट हैं। इसी सिलसिलेमें (सन् १९१० जनवरी फरवरी में ) मस्तकाभिषेक करने का निश्चित होचुका है और इस महोत्सव के अवसर पर मूर्तिरक्षाका प्रबन्ध होगा! इसप्रकार गङ्ग राज्यकालमें शिल्प और कलाकी भी विशेष उन्नति हुई थी। इस सा.के मतानुसार वह पराकाष्ठाको प्राप्त हुई थी। (Sculpture and carving in stone attained to an elaboration perfectly marvellous). Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035246
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1938
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy