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संक्षिप्त जैन इतिहास ।
साथ हाथियों के बड़े समूहको प्रथम हटाकर भयानक सिपाईयोंकी कतारको स्वण्डित करके विजय प्राप्त करती है । बलि वंशके माभूषण नरेन्द्र महाराजके दंडाधिपति श्री विजय जब कोप करते हैं तो पर्वत पर्वत नहीं रहता, वन वन नहीं रहता और जल जल नहीं रहता।" एक मन्य लेखमें उनके विषय में लिखा है कि "मनुपम कवि श्री विजयका यश पृथ्वीमें उतरकर माठों दिशाओं में फैल गया था। उन श्रीवि. जयकी शक्तिशाली भुजायें जो शरणागतके लिये कल्पवृक्षके तुल्य हैं, शत्रुराजरूपी तृणके लिये भयानक खमिवनके समान हैं एवं प्रेमदेवताके द्वारा लक्ष्मीरूपी देवीको पकड़ने के लिये जालके तुल्य हैं, इस पृथ्वीकी रक्षा करें। दंडनायक श्रीविजय जो दान और धर्ममें सदा लीन रहते हैं, वह समुद्रोंसे वेष्ठित पृथ्वीकी रक्षा करते हुये चिरकाल जीवें।"' इन उल्लेखोंसे दंडाधिप श्रीविजयकी धार्मिकता
और साहित्यशालीनताका परिचय प्राप्त होता है। वह एक महान योद्धा, धर्मात्मा सजन और अनुपम कवि थे।
(१०) एलिनका राजवंश - इस वंशके राजा एकसमय केरल प्रांत में राज्य करते थे, जिन्हें 'चीगवंशी' भी कहते थे। तामिल साहित्यमें उनकी उपाधि 'आदि गैनम्' अर्थात् 'भादि गाँके स्वामी' थी। मादिगइ वर्तमान तिरूवादी नामक स्थान है। इन राजाओंकी राजधानी पहले वांजी नामक स्थान था। उपरांत वह तकता (धर्मपुरी)में
1-प्रमैप्रास्मा०, पृ. 32-3। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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