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संक्षिप्त जैन इतिहास ।
भर्द्ध-पद्मासन मुद्रामें मिलती थीं, जैसे कि बौद्ध मूर्तियां होती थीं। किन्तु पद्मासन और कायोत्सर्ग मुद्राकी जैन मूर्तियां बिल्कुल निराली थीं और उनका नमरूप अपना अनूठापन रखता
जैनियोंके अपने स्तुर मौर्यसम्राट अशोक एवं उससे भी पहलेसे थे। उनके निकट स्तूप धार्मिक चिन्ह मात्र नहीं थे, बल्कि वह सिद्धपरमेष्ठी भगवान के प्रतीक रूप पूज्य वस्तु थे। तीर्थङ्करकी समवशरण रचनामें उनका खास स्थान था और उनपर सिद्धभगवानकी प्रतिमायें बनी होती थीं। इसीलिये स्तुर जैनियोंकी पूजाकी वस्तु रहे हैं । स्तूपोंके अतिरिक्त जैनियोके अपने मंदिर भी थे। यह मंदिर पहले पहले मैसूर में 'नगर' अथवा 'मार्ति ' प्रणालीके बनाये गये थे । इनका भाकार चौकोन होता था और ऊार शिखिर बनी होती थी। ६ठी-७वीं शताब्दियों में इसी ढङ्गके मंदिर बनाये गये थे। उपरांत 'बेसर' प्रणालीके मंदिर बनाये गये थे। यह मंदिर समकोण भायताकार (rectangular) होते थे और इनकी शिखिर सीड़ी दरसीड़ी कम होती जाती थी, जिसके अंतमें एक भर्द्धगोलाकार गुम्बज बना होता था। सातवीं शताब्दिके प्रारम्भमें ऐसे ढंगके मंदिर बादामी, ऐहोले, मामल्लपुरम्, कांची मादि स्थानों पर बनाये गये थे। कहा जाता है कि जैनियोंकी 'समवशरण' रचना प्रणाली ही 'बेसर' प्रणालीका मूलाधार है । ' समवशरण ' गोल बनाया जाता था, जिसमें तीन रंगभूमियां (Battlements) होती थीं, जिनमें द्वारपालों, बारह समाओंके अतिरिक्त बीचमें धर्मचक्र, भशोकवृक्ष मौर जिनेन्द्र मूर्तियों सहित सिंहासन होता था।
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