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संक्षिप्त जैन इतिहास |
कहते थे तथा उनका राजचिह्न सिंह था । वे अपने को कुडलूम्पुराधीश्वर कहते थे । कनति नामक स्थानसे उनका जो एक शिलालेख मिला है, उसपर बायीं ओरसे चमर, छत्र, चन्द्र, सूर्य, तीन सर्प, एक खड़ग, गऊ - वत्स तथा सिंह अंकित हैं । उनके शिलालेख से प्रगट है कि सेनवार राजा जीवितवार एक स्वाधीन शासक थे । उनके पुत्र जीमूतवाहन थे ।
राजा ।
जीमूतवाहनके पश्चात् उनके पुत्र मार अथवा मारसिंह नामक राजा हुये थे। मार एक पराक्रमी राजा थे । जीमूतवाहन आदि उन्होंने विद्याधर लोकके सब ही राजाओंको अपने आधीन किया था । वह हेमकूटपुर के स्वामी कहे जाते थे । सन् ११२८ ई० में विक्रमादित्य राजा के दरबार में सेनवार राजपुत्र सूर्य और आदित्य मंत्रीपद पर नियुक्त थे, जिससे अनुमान होता है कि इस समयके पहले ही सेनवार राजा अपनी स्वाधीनता खोबैठे थे । सूर्यके पुत्र सेनापति थे, जिन्होंने पांड्य वंशके राजाओंकी शक्तिको भक्षुण्ण - बनाये रक्खा था | इन राजाओं के समय में भी जैनधर्मकी उन्नति हुई थी । सन् १०६० के लगभग कादवंती नदी के तटपर जब सेनवार वंश के राजा खचर कंदर्प राज्य करते थे तब देशीगण पाषाणान्वयी भट्टारक मङ्कदेवके शिष्य महादेव मट्टारक थे, जिनके शिष्य श्रावक निर्वधने भेकताकी चट्टानपर ' निर्वय जिनालय ' बनवाया था ।
१- मे कु०, पृ०१४८ -१४९. २ - प्रमैप्राजहमा०, पृ० २८९.
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