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गङ्ग-राजवंश।
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___ यह संभव नहीं जान पड़ता कि ६७ फीट की मूर्ति खोद निकालनेके योग्य पाषाण कहीं भन्यत्रसे लाकर उस ऊंची पहाड़ीपर प्रतिष्ठित किया जासका होगा । इससे यही ठीक अनुमान होता है कि उसी स्थानपर किसी प्रकृति प्रदत्त स्तंभाकार चट्टानको काटकर इस मूर्ति का आविष्कार किया गया है ।
कमसे कम एक हजार वर्षसे यह प्रतिमा सूर्य, मेघ, वायु मादि प्रकृतिदेवीकी अमोघ शक्तियोंसे बातें कर रही है, पर अबतक उसमें किसी प्रकारकी थोड़ी भी क्षति नहीं हुई ! मानो मूर्तिकारने उसे माज ही उद्घाटित की हो । इस मूर्तिकी दोनों बाजुओपर यक्ष
और यक्षिणीकी मूर्तियां हैं, जिनके एक हाथमें चौरी और दूसरेमें कोई फल है । मूर्तिके बायीं ओर एक गोक पाषाणका पात्र है, जिसका नाम ' ललित सरोवर' खुदा हुआ है । मूर्तिक अभिषेकका जल इसी में एकत्र होता है।
इस पाषाण पात्रके भर जानेपर अभिषेकका जल एक प्रणाली द्वारा मूर्तिके सम्मुख एक कुएंमें पहुंच जाता है और वहांसे वह मंदिरकी सम्हदके बाहर एक कन्दरामें पहुंचा दिया जाता है। इस कन्दराका नाम ' गुल्लकायज्जि वागिलु' है। मूर्तिक सम्मुखका मण्डप नव सुन्दर स्खचित छतोंसे सना हुमा है। माठ छतोंपर भष्ट दिक्पालोंकी मूर्तियां हैं और बीचकी नवमी छतर गोम्मटेशके अभिषेकके लिये हाथमें कलश लिये हुये इन्द्रकी मूर्ति है। ये छत बड़ी कारीगरीके बने हुए हैं । मध्यकी छतपर खुदे हुए शिलालेख (नं. ३५१) से अनुमान होता है कि यह मंडप बलदेव मंत्रीने
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