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गङ्ग-राजवंश ।
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कलाके साथ संगीत और वादित्रकलाओंका सीखना आवश्यकीय था। उस समय 'समुद्रघोष', 'कटु-मुख वादित्र', 'तंत्रि', 'ताल', 'नकार', 'बिजे', 'झांझ', 'तुर्य', 'वीणा', आदि कई प्रकारके वादित्रका प्रचलन था। नृत्यकला भी 'भारती', 'सात्वकि', कैसिके', 'भरमटे' मादि कई प्रकारकी प्रचलित थी। उच्च घरोंकी स्त्रियां प्रायः इन ललित कलाओंमें निष्णात थी। उनमें उच्च कोटिका सांस्कृतिक सौन्दर्य विद्यमान था। जैनधर्मने उनके हृदयकी देवी कोमलता और उदारताको पूर्ण विकसित कर दिया था। वे खुन ही दान-पुण्य भी किया करती थीं और धर्म कार्यों में भाग लेती थीं। राज्यकी बोरसे विदुषी-महिलाओंका सम्मान — विभूतिट्ट' प्रदान करके किया जाता था । अपनी धार्मिकतासे प्रभावित होकर बहुतसी स्त्रियां गृह त्यागकर भात्मकल्याणके पथर मारूढ़ होकर स्वपर कल्याणकी होती थीं। समाजमें उनका विशेष सम्मान था । सल्लेखना व्रत धारण करनेवाली भनेक विदुषी महिलामों का उल्लेख श्रवणबेलगोलके शिलालेखोंमें हुआ है।' उस समय गणवाड़ीके भव्यजनोंका सामाजिक व्यवहार यद्यपि
अधिकांश रूपमें विवेकको लिये हुये था; सामाजिक व्यवहार । परन्तु फिर भी परम्परागत रूढ़ियों के मोहसे
वे सर्वथा मुक्त नहीं थे। उनमें बहु विवाह करनेकी पुरातन प्रथा प्रचलित थी-पुरुष चाहता था उतने विवाह कर लेता था। इसपर भी विवाह एक धार्मिक क्रिया समझी जाती
१- ०, २८८-२९० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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